हमारा देश बलिदानियों का रहा है और इन बलिदानियों में नाम सिर्फ पुरूषों का ही नहीं बल्कि महिलाओं एवं आदिवासियों का भी अग्रणी रहा है। महिलाओं ने भी अपने देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था। इसी तरह आदिवासियों की भी आजादी के आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हालांकि इन महिला बलिदानियों एवं आदिवासी समुदाय के बलिदानियों के इतिहास को लंबे समय तक संजोने का प्रयास नहीं किया गया था। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर आजादी के अमृत काल में इन बलिदानियों के इतिहास को रोचक तरीके से संजोया जा रहा है। इसी कड़ी में भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा गुमनाम महिला स्वतंत्रता सेनानियों एवं आदिवासी सेनानियों के बलिदान की कहानियों को अमर चित्रकथा के साथ मिलकर सचित्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित कर जारी किया गया है। इसमें उन रानियों की कहानियां हैं जिन्होंने साम्राज्यवादी शासन के खिलाफ संघर्ष में साम्राज्यवादी शक्तियों से संघर्ष किया और जिन महिलाओं ने मातृभूमि के लिए अपना जीवन समर्पित किया और यहां तक कि बलिदान करने से पीछे नहीं हटीं। इसी तरह गुमनाम जनजातीय स्वतंत्रता सेनानियों पर सचित्र पुस्तक का प्रकाशन किया गया है।
इस पुस्तक में भारतीय इतिहास के गौरवशाली अतीत को हम देख सकते हैं। संस्कृति मंत्रालय ने अमर चित्र कथा के साथ मिलकर स्वतंत्रता संग्राम के 75 गुमनाम नायकों पर सचित्र पुस्तकों के प्रकाशन कर रही है। इसके तहत महिला एवं आदिवासी बलिदानियों पर पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है और इसके तहत तीसरी पुस्तक में अन्य क्षेत्रों के 30 गुमनाम नायकों पर पुस्तक प्रकाशित की जा रही है। गुमनाम नायकों पर खंड स्वतंत्रता संग्राम के भूले-बिसरे नायकों को याद करने का एक प्रयास है, जिनमें से कई नई पीढ़ी के लिए प्रसिद्ध हो सकते हैं लेकिन वे अज्ञात हैं। अतीत की फीकी यादों के रूप में पड़ी कहानियों को फिर से उजागर करने और सामने लाने का उद्देश्य आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन के एक माध्यम के रूप में काम करेगा। भारत 2.0 केवल विकास के किसी एक विशेष प्रतिमान में भारत की भावना को बढ़ावा देने के बारे में नहीं है। यह जीवन के सभी क्षेत्रों को समाहित करता है, सबसे बढ़कर हमारे दिल और आत्मा को समृद्ध करता है। जब तक हम अपने गुमनाम नायकों को तरक्की और विकास की इस यात्रा में शामिल नहीं करते हैं, तब तक भारत की भावना अधूरी है। उनके लोकनीतियों और सिद्धांतों को याद किया जाना चाहिए और उनका सम्मान किया जाना चाहिए।
महिला स्वतंत्रता सेनानियों पर केंद्रित पुस्तक
इस कॉमिक में 20 स्वतंत्रता सेनानी महिलाओं की कहानियां हैं। जिनमें रानी अब्बक्का, वेलु नाचियार, झलकारी बाई, मतंगिनी हजरा, गुलाब कौर, चकल्ली इल्लम्मा, पद्मजा नायडू, बिशनी देवी शाह, सुभद्रा कुमारी चौहान, दुर्गावती देवी, सुचेता कृपलानी, अक्कमा चेरियन, अरूणा आसफ अली, दुर्गाबाई देशमुख, रानी गायडीन्लीयु, ऊषा मेहता, पार्वती गिरी, तारकेश्वरी सिन्हा, स्नेहलता वर्मा व तिलेश्वरी बरूआ शामिल हैं।
रानी अब्बक्का : कर्नाटक के उल्लाल की रानी अब्बक्का ने 16वीं शताब्दी में शक्तिशाली पुर्तगालियों के खिलाफ कई दशकों तक लड़ाई लड़ी और उनके हमलों का मुंहतोड़ जवाब दिया था। रानी अब्बक्का को अभय रानी की उपाधि भी मिली थी क्योंकि पुर्तगालियों से उन्होंने उल्लाल शहर को आजाद करवाया था।
वेलु नचियार : वेलु नचियार शिवगंगा रियासत की रानी थी, जोकि भारत में अंग्रेजी औपनिवेशिक शक्ति के खिलाफ लड़ने वाली पहली वीरांगना थीं। उन्हें तमिलनाडु में वीरमंगई नाम से भी जाना जाता है। नचियार ने मैसूर के सुल्तान हैदर अली की सहायता से सेना बनाई थी और अंग्रेजों से लोहा लिया था।
झलकारी बाई : झलकारी बाई एक महिला सैनिक थीं, जिन्होंने झांसी की रानी के साथ मिलकर अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। वो झांसी की रानी की प्रमुख सलाहकार थीं और साल 1857 में स्वतंत्रता की पहली लड़ाई में हिस्सा लेने की वजह से एक प्रमुख हस्ती बन गई थीं।
मातंगिनी हाजरा : मातंगिनी हाजरा एक क्रांतिकारी थी, जिन्होंने रैली के लिए 5 हजार लोगों को तैयार किया था। वो सरकारी डाक बंगले लोगों के साथ पहुंची और नारे लगवा रही थी कि अंग्रेजों की गोली उनके माथे पर गोली मार दी। उन्हें उनके त्याग के लिए गांधी बुढ़ी के नाम से भी जाना जाता है।
गुलाब कौर : गुलाब कौर एक स्वतंत्रता सेनानी थीं, जिन्होंने भारतीय लोगों को ब्रिटिश राज के खिलाफ लडऩे और संगठित करने के लिए अपने जीवन की आशाओं और आकांक्षाओं का त्याग किया। वो गदर पार्टी में शामिल हुई थीं इसीलिए उन्हें गदर की बेटी के नाम से भी संबोधित किया जाता है।
तिलेश्वरी बरूआ : तिलेश्वरी बरुआ भारत की सबसे कम उम्र की शहीदों में शामिल थीं। उन्हें मात्र 12 साल की उम्र में वीरगति प्राप्त हुई थी। दरअसल उन्होंने कुछ स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिलकर एक पुलिस स्टेशन पर तिरंगा फहराने का प्रयास किया था। इसी दौरान उन्हें गोली मारी दी गई थी।
सुभद्रा कुमारी चौहान : सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम ही नहीं बल्कि वीररस से ओत-प्रोत कविताएं आज भी प्रत्येक भारतवासी के दिल में खास जगह रखती है। उन्हें हिंदी कवियों में विशेष स्थान होने के साथ ही स्वतंत्रता आंदोलनकारी भी कहा जाता है। जिन्होंने अपनी लेखनी से देश को दिशा दी थी।
दुर्गा देवी : दुर्गा देवी एक महान स्वतंत्रता सेनानी हैं व बहादुर महिला थीं। जिन्होंने जॉन सॉन्डर्स की हत्या के बाद भगत सिंह को सुरक्षित निकालने में मदद ही नहीं की बल्कि अपनी जान तक खतरे में डाल दी थी। यही नहीं उन्होंने भगत सिंह सहित कई स्वतंत्रता सेनानियों की मदद की थी।
जनजातीय स्वतंत्रता सेनानियों की गाथाएं
आज की तेजी से भागती दुनिया और कठिन प्रतिस्पर्धात्मक दैनिक जीवन में, युवाओं को हमारी समृद्ध विरासत और अतीत को याद करने के लिए मुश्किल से ही समय मिलता है। जब राष्ट्र आज़ादी का अमृत महोत्सव (भारतीय स्वतंत्रता के 75 वर्ष का स्मरणोत्सव) मना रहा है तब इन वीर स्वतंत्रता सेनानियों को याद करना हमारा फर्ज बनता है। भारत में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लड़ाई एक अनूठी कहानी है, जो इस उपमहाद्वीप में वीरता, बहादुरी, सत्याग्रह, समर्पण और बलिदान की विविध कहानियों से भरी है। ये कहानियां समृद्ध भारतीय सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं की रचना करती हैं। इस प्रकार, गुमनाम नायकों को कम-ज्ञात स्वतंत्रता सेनानियों के रूप में परिभाषित करने की जरुरत नहीं है बल्कि उनके आदर्श भारतीय मूल्य प्रणाली को चित्रित करते हैं। इस कथा संग्रह में उन बहादुर पुरुष एवं महिला स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान की कथाएं हैं, जिन्होंने ब्रिटिश राज के खिलाफ संघर्ष के लिए अपने जनजातीय साथियों को प्रेरणा दी और अपने जीवन का बलिदान किया।
भारत के स्वाधीनता संग्राम के वे जनजातीय स्वतंत्रता सेनानी, जिन्हें ज्यादा लोग नहीं जानते हैंः
तिलका मांझीः तिलका मांझी ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की ज्यादतियों के खिलाफ संघर्ष किया। वे पहाड़िय़ा जनजाति के सदस्य थे और उन्होंने अपने समुदाय को साथ लेकर कंपनी के कोषागार पर छापा मारा था। इसके लिए इन्हें फांसी की सजा दी गई।
थलक्कल चंथूः थलक्कल चंथू कुरिचियार जनजाति के सदस्य थे और इन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ पाजासी राजा के युद्ध में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इन्हें फांसी दे दी गई।
बुद्धु भगतः बुद्धु भगत उरांग जनजाति के सदस्य थे। ब्रिटिश अधिकारियों के साथ हुई कई मुठभेड़ों में से एक में इन्हें, इनके भाई, सात बेटों और इनकी जनजाति के 150 लोगों के साथ गोली मार दी गई।
तीरत सिंहः खासी समुदाय के प्रमुख तीरत सिंह को अंग्रेजों की दोहरी नीति का पता लग गया था, इसलिए उन्होंने उनके खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया। इन्हें पकड़ लिया गया, यातना दी गई और जेल में डाल दिया गया। जेल में ही इनकी मौत हो गई।
राघोजी भांगरेः राघोजी भांगरे महादेव कोली जनजाति के थे। इन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया और उनकी मां को कैद किए जाने के बावजूद उनका संघर्ष जारी रहा। इन्हें पकड़ लिया गया और फांसी दे दी गई।
सिद्धू और कान्हू मुर्मूः सिद्धू और कान्हू मुर्मू संथाल जनजाति के सदस्य थे, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया। इन्होंने हुल विद्रोह में संथाल लोगों का नेतृत्व किया। दोनों को धोखा देकर पकड़ लिया गया और फांसी दे दी गई।
रेन्डो मांझी और चक्रा विसोईः रेन्डो मांझी और चक्रा विसोई खोंद जनजाति के थे। जिन्होंने अपनी जनजाति के रिवाजों में हस्तक्षेप करने पर ब्रिटिश अधिकारियों का विरोध किया। रेन्डो को पकड़ कर फांसी पर लटका दिया गया जबकि चक्रा विसोई भाग गया और कहीं छिपे रहने के दौरान उसकी मौत हो गई।
नीलांबर और पीतांबरः मेरठ में शुरू हुए भारतीय विद्रोह में खारवाड़ जनजाति के भोगता समुदाय के नीलांबर और पीतांबर ने खुलकर भाग लिया और ब्रिटिश उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाने में अपने लोगों का नेतृत्व किया। दोनों को पकड़ लिया गया और फांसी दे दी गई।
रामजी गोंडः गोंड जनजाति के रामजी गोंड ने उस सामंती व्यवस्था का विरोध किया, जिसमें धनी जमींदार अंग्रेजों के साथ मिलकर गरीबों को सताते थे। इन्हें भी पकड़ कर फांसी पर चढ़ा दिया गया।
तेलंगा खरियाः खरिया जनजाति के तेलंगा खरिया ने अंग्रेजों की कर व्यवस्था और शासन को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और इस बात पर अड़े रहे कि उनकी जनजाति का स्वशासन का पारंपरिक तरीका जारी रखा जाए। उन्होंने अंग्रेजों के कोषागार पर संगठित हमले किए। उन्हें धोखे से पकड़ कर गोली मार दी गई।
तांतिया भीलः मध्य प्रांत के रोबिन हुड के नाम से मशहूर तांतिया भील ने अंग्रेजों की धन-संपत्ति ले जा रही ट्रेनों में डकैती डाली और उस संपत्ति को अपने समुदाय के लोगों के बीच बांट दिया। उन्हें भी जाल बिछाकर पकड़ा और फांसी पर चढ़ा दिया गया।
पाउना ब्रजवासीः मणिपुर के मेजर पाउना ब्रजवासी, अपनी मणिपुर की राजशाही को बचाने के लिए लड़े। वे अंग्रजों और मणिपुर के राजा के बीच हुए युद्ध के हीरो थे। वे एक सिंह की तरह लड़े लेकिन उन्हें पकड़ कर उनका सर धड़ से अलग कर दिया गया।
बिरसा मुंडाः मुंडा जनजाति के बिरसा मुंडा अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष के महानायक थे। उन्होंने अंग्रेजों के साथ कई संघर्षों में मुंडा लोगों का नेतृत्व किया। उन्हें पकड़ कर जेल में डाल दिया गया और ब्रिटिश रिकॉर्ड के अनुसार जेल में ही हैजा से उनकी मौत हो गई। जिस समय उनकी मौत हुई वह सिर्फ 25 साल के थे।
मटमूर जमोहः अरुणाचल प्रदेश की आदि जनजाति के मटमूर जमोह ब्रिटिश शासकों की अकड़ के खिलाफ लड़े। उनके गांव जला दिए गए जिसके बाद उन्होंने अपने साथियों के साथ अंग्रेजों के सामने हथियार डाल दिए। उन्हें सेलुलर जेल भेज दिया गया, जहां उनकी मौत हो गई।
ताना भगतः उरांव जनजाति के ताना भगत अपने लोगों को अंग्रेज सामंतों के अत्याचार के बारे में बताते थे और ऐसा माना जाता है कि उन्हें लोगों को उपदेश देने का संदेश उनके आराध्य से मिला था। उन्हें पकड़ कर भीषण यातनाएं दी गईं। यातनाओं से जर्जर ताना भगत को जेल से रिहा तो कर दिया गया, लेकिन बाद में उनकी मौत हो गई।
मालती मीमः चाय बागान में काम करने वाले समुदाय की मालती मीम महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन से प्रभावित होकर उसमें शामिल हो गईं। उन्होंने अफीम की खेती पर अंग्रेजों के आधिपत्य के खिलाफ संघर्ष किया और लोगों को अफीम के नशे के खतरों के बारे में जागरूक किया। पुलिस के साथ मुठभेड़ में गोली लगने से उनकी मौत हो गई।
लक्ष्मण नायकः भूयां जनजाति के लक्ष्मण नायक भी गांधी जी से प्रेरित थे और उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में शामिल होने के लिए अपनी जनजाति के लोगों को काफी प्रेरित किया। अंग्रेजों ने उन्हें अपने ही एक मित्र की हत्या के आरोप में पकड़ कर फांसी की सजा दे दी।
हेलन लेप्चाः लेप्चा जनजाति की हेलन लेप्चा, महात्मा गांधी की जबरदस्त अनुयायी थीं। अपने लोगों पर उनके प्रभाव से अंग्रेज बहुत असहज रहते थे। उन्हें गोली मार कर घायल किया गया, कैद किया गया और प्रताड़ित किया गया लेकिन उन्होंने कभी साहस नहीं छोड़ा। 1941 में उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की उस समय जर्मनी भागने में मदद की जब वह घर में नजरबंद थे। उन्हें स्वाधीनता संघर्ष में अतुलनीय योगदान के लिए ‘ताम्र पत्र’ से पुरस्कृत किया गया।
पुलिमाया देवी पोदारः पुलिमाया देवी पोदार ने गांधीजी का भाषण तब सुना जब वह स्कूल में थीं। वे तुरंत स्वाधीनता संघर्ष में शामिल होना चाहती थीं। अपने परिवार के कड़े विरोध के बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई समाप्त करने के बाद न सिर्फ खुद आंदोलन में हिस्सा लिया बल्कि अन्य महिलाओं को भी इसके लिए प्रोत्साहित किया। विरोध प्रदर्शनों में भाग लेने के कारण उन्हें कैद कर लिया गया। आजादी के बाद भी उन्होंने अपने लोगों की सेवा करना जारी रखा और उन्हें ‘स्वतंत्रता सेनानी’ की उपाधि दी गई।