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पीएम मोदी का कृषि कानून वापस लेने का ऐलान: लेकिन अन्नदाता की तकलीफों पर जश्न मनाने वाले मोदी विरोधियों की राजनीति जारी

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कृषि कानूनों के विरोध की आड़ में राजनीति साधने की कोशिश कर रही पार्टियों को, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इन कानूनों को निरस्त करने के ऐलान से बड़ा झटका लगा है। कांग्रेस सहित इन राजनीति दलों के पास अब पाकिस्तान और जिन्ना-जिन्ना चिल्लाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। अब इन राजनीकि पार्टियों की कोशिश किसान नेताओं के साथ सांठ-गांठ कर किसी तरह इस आंदोलन को जिंदा रखने की है, ताकि किसानों के आंदोलन की आड़ में जम तक राजनीति की रोटियां सेंकी जा सकें।

बड़े किसान नेताओं के कुतर्क के आगे, देश के 80 फीसदी किसानों को मोदी सरकार के कृषि कानूनों का फायदा नहीं मिल पाया। किसान नेताओं की जिद की वजह से कृषि कानूनों को वापस ले लिया गया। लेकिन देश हित और किसानों के हित में मोदी सरकार के इस बड़े फैसले से, इस मुद्दे पर राजनीति कर रही कांग्रेस जैसे मोदी विरोधी पार्टियों के हाथों से मुद्दा छिन गया है।

अब कोशिश बड़े किसान नेताओं के सहारे किसानों को बरगला कर इस मुद्दे को जिंदा रखने की है। ताकि राजनीतिक आकाओं को चुनाव में इसका फायदा मिल सके। 

अब MSP गारंटी की मांग पर आंदोलन 

संयुक्‍त किसान मोर्चा की कोर कमेटी की बैठक में कई अहम मुद्दों पर चर्चा हो रही है । किसान नेताओं का दावा है कि इस चर्चा के बाद आगे की रणनीति पर विचार होगा। साफ है कि मंशा किसानों के फायदे से ज्यादा किसान नेताओं की चिंता अपनी राजनीति को जिंदा रखने की है। आंदोलन के नाम पर नेतागीरी चमका रहे कुछ किसान नेताओं का दावा है कि अब न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य की गारंटी के कानून के लिेए आंदोलन होगा किसान नेता इसके साथ ही कानून वापसी को लेकर संसदीय प्रक्रिया पूरी होने की बात भी कर रहे हैं। आंदोलन के एक साल के दौरान किसानों की मौत के लिए केंद्र सरकार से मुआवजे की मांग हो रही है।

तैयार हो रही किसानों की आगे की रणनीति 

किसान नेताओं का कहना है कि कृषि वापस लेने का बाद भी उनका आंदोलन जारी रहेगा। 

  • संयुक्त किसान मोर्चा ने 22 नवंबर को लखनऊ में महापंचायत बुलाई 
  • इस महापंचायत में सभी किसान नेता पहुुंचेंगे।
  • पंजाब की 32 किसान यूनियनों ने फैसले का समर्थन किया है
  • 29 नवंबर को ट्रैक्टर से संसद मार्च का भी फैसला किया गया है

हलांकि अब किसान जिन मांगों को लेकर आगे भी राजनीति जारी रखने का प्लान बना रहे हैं , इन्हें पूरा करना आसान नहीं होगा, जाकारों की नजर में भी किसानों की मांग व्यहारिक नहीं है। 

एमएसपी की कानूनी गारंटी देने में क्‍या है अड़चन?

न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की कई कारणों से कानूनी गारंटी नहीं दी जा सकती। उसके रास्‍ते में ये अड़चनें हैं

1-एमएसपी को कानूनी जामा पहनाया गया तो सरकार के लिए, इतनी बड़ी मात्रा में अनाज को खरीदना और उसका भंडारण आसान नहीं होगा। ये सरकार के लिए विकराल समस्या बना जाएगा।

2- अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कृषि उत्पादों के मूल्यों में बदलाव होता रहता है, ऐसे में यह संभव नहीं कि सरकार महंगा खरीद कर सस्ते में निर्यात करे।

3-एमएसपी पर खरीद की कानूनी बाध्यता से सरकार को बड़े पैमानों पर अनाजों की खरीद करनी होगी। इससे सरकार के खजाने में बोझ बढेगा।

4- बड़े किसान छोटे किसानों से सस्ते दामों पर अनाज खरीद लेंगे और फिर सरकार को बढ़े एमएसपी पर बेचेंगे, जिससे मुट्ठीभर किसान पूंजीपति बन जाएंगे, जो टैक्स भी नहीं देंगे, क्योंकि कृषि आय पर टैक्स नहीं है। 

5- नए कानून किसानों को यह विकल्प देते थे कि वे अपना उत्पाद एमएसपी पर मंडी शुल्क देकर बेचें या बिना शुल्क दिए मंडी के बाहर देश में कहीं भी, लेकिन अब किसानों ने ये मौका खो दिया है।

6-यह व्यवस्था छोटे किसानों को मंडी शुल्क और मंडियों पर काबिज दबंग नेताओं/बिचौलियों से मुक्ति दिला सकती थीस लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। 

5- शांताकुमार समिति के अनुसार छह फीसद किसानों को ही एमएसपी का लाभ मिलता है। यदि 94 प्रतिशत किसान एमएसपी से बाहर हैं तो क्या किसान नेता केवल छह फीसद किसानों के हितों को लेकर आंदोलनरत हैं?

पिछले 1 साल से दिल्ली के बॉर्डर पर जमे हैं किसान

कृषि कानूनों को खत्म किए जाने के बाद भी किसान दिल्ली के बॉर्डर पर जमे हैं। आंदोलन जारी रखने का फैसला किया गया है। साफ है कि कृषि कानूनों को खत्म करने की सबसे बड़ी मांग पूरी होने के बाद भी आंदोलन की जिद देश के आम लोगों से छिपी नही हैं । किसानों के इस आंदोलन से देश और आम लोगों का पहले ही बड़ा नुकसान हो चुका है, ऐसे में अब राजनीतिक दलों के इशारे पर आंदोलन ना तो आम लोगों के हित में है, ना तो किसानों के हित में और ना हि देश की जनता के हित में। 

चुनाव में उल्टा पड़ेगा कांग्रेस का दांव 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तीनों कृषि कानून वापस लेकर सबसे ज्यादा कांग्रेस को झटका दिया है। पंजाब में अब कांग्रेस के लिए ऐसी हालत हो गई है कि दुविधा में दोनों गए माया मिली न राम। पंजाब में जहां कांग्रेस के सबसे कद्दावर नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह कांग्रेस से अलग होकर उसी के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं, वहीं तीन कृषि कानूनों के विरोध का मुद्दा भी उसके हाथ से छिन गया है। प्रधानमंत्री मोदी के फैसले के बाद पंजाब में सियासी समीकरण बदलते दिखाई दे रहे हैं, जिससे कांग्रेस की सत्ता में वापसी मुश्किल हो सकती है। यहां तक कि मौजूदा चन्नी सरकार को बचाना भी मुश्किल हो गया है। कांग्रेस को अब बीजेपी और कैप्टन अमरिंदर सिंह से मिलने वाली संभावित चुनौती का डर सताने लगा है। 

कांग्रेस में टूट और सरकार गिरने की संभावना 

कैप्टन अमरिंदर सिंह के पार्टी छोड़ने के बाद से कांग्रेस नवजोत सिंह सिद्धू और सीएम चरणजीत सिंह चन्नी के झगड़े में उलझकर रह गई है। इससे पार्टी खेमों में बंटी नजर आ रही है। इस बीच कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी नई पार्टी का ऐलान कर दिया है और उनका इरादा साफ है कि किसी भी कीमत पर अब राज्य में कांग्रेस की सरकार न बनने पाए। कृषि कानून वापस कराने में उनकी भूमिका को लेकर भी चर्चा हो रही है। वहीं अमरिंदर सिंह ने बीजेपी से गठबंधन करने का संकेत भी दिया है। ऐसी स्थिति में अमरिंदर सिंह की स्थिति मजबूत होने से कांग्रेस में टूट और सरकार गिरने की संभावना भी बढ़ गई है। इससे आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है।

कांग्रेस के लिए चुनौती बने अमरिंदर सिंह 

हाल ही में कांग्रेस एक दलित समुदाय के चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना कर मास्टर स्ट्रोक चलने की बात कर रही थी, लेकिन अब वहीं मास्टर स्ट्रोक उसके लिए मुसीबत बनने जा रहा है। चन्नी को मुख्यमंत्री बनाये जाने से राज्य में कैप्टन अमरिंदर सिंह के पक्ष में जट सिखों का ध्रुवीकरण हो सकता है। इससे अमरिंदर सिंह की स्थिति मजबूत हो सकती है और कांग्रेस के नेता अमरिंदर सिंह के पाले में जा सकते हैं। इसके अलावा कांग्रेस को ये भी चिंता सता रही है कि शहरी सीटों पर कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ सकता है, क्योंकि व्यापारी किसानों के आंदोलन से नाराज है। 

अकाली दल और बीजेपी के साथ आने से कांग्रेस को खतरा

कांग्रेस के भीतर चर्चा चल रही है कि हालांकि बीजेपी ने उत्तर प्रदेश चुनावों को नजर में रखते हुए यह फैसला लिया हो लेकिन गुरु पर्व पर कानून वापसी की घोषणा कर पंजाब के किसानों और मतदाताओं को बड़ा संदेश दिया है और उनकी नाराजगी दूर करने की कोशिश की है। अगर बीजेपी किसानों की नाराजगी दूर करने में सफल हो जाती है और अकाली दल फिर से साथ आ जाता है, तो यह कांग्रेस के लिए अच्छे संकेत नहीं होंगे। 

अपने ही बनाये चक्रव्यूह में फंसी कांग्रेस

हालांकि शिरोमणि अकाली दल के चीफ सुखबीर सिंह बादल ने शुक्रवार को यह साफ कहा कि वह बीजेपी से किसी भी कीमत पर गठबंधन नहीं करेंगे, लेकिन कांग्रेस ऐसा मानने को तैयार नहीं है। कांग्रेस का मानना है कि दोनों दल कृषि कानून के मुद्दे पर ही अलग हुए थे और अब यह मसला सुलझ गया है। इसलिए बीजेपी और अकाली दल कभी भी साथ आ सकते हैं। यह भी अटकलें है कि अकाली दल को बीजेपी अंडरग्राउंड सपोर्ट करे या कुछ सीटों पर वॉकओवर देने जैसे समझौते भी हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में कांग्रेस अपने ही बनाये चक्रव्यूह में फंस गई है और उसके हालात धीरे-धीरे मुश्किल होते जा रहे हैं। 

कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का संघर्ष 14 माह से चल रहा है। किसान 1 साल से दिल्ली के बॉर्डर पर बैठे हुए हैं। अब जब उत्तर प्रदेश और पंजाब में विधानसभा चुनाव हैं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से बड़ा फैसला लिया गया है। मगर इसके बावजूद किसान यहां से हटने को तैयार नहीं हैं। यही कारण है कि प्रधानमंत्री के फैसले के बाद भी हालात बदले नहीं है और भाजपा नेताओं को चिंता सताए जा रही है।

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