Home विचार क्या मोदी विरोध में सब जायज है ?

क्या मोदी विरोध में सब जायज है ?

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हिंदुस्तान के रोम-रोम में बसने वाले राम के ही रूप गिरधर गोपाल के चरित्र पर प्रशांत भूषण ने सवाल उठाए। लेकिन सवाल ये है कि भारत के कण-कण में मौजूद कृष्ण को कितना समझ पाए हैं? सवाल ये कि बहुसंख्यक आबादी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का ये खुल्ला खेल कब तक चलेगा? वोटतंत्र के खेल में वामपंथी चरित्रों की असहिष्णुता पर सवाल नहीं उठाया जाना बड़ा सवाल नहीं है? कृष्ण के मनमोहक चरित्र को वीभत्स रूप देने की कुत्सित कोशिश पर चुप्पी क्यों है? सवाल ये कि क्या भारत की राजनीति एक नये मोड़ पर खड़ी है जहां मोदी विरोध ही विपक्ष का मूलमंत्र हो गया है? या फिर वोटतंत्र के खेल में विपक्ष अपनी भूमिका ही भूल बैठा है? क्या ये चुप्पी हमारे लोकतंत्र को खत्म नहीं कर देगा ? सवाल ये कि क्या इस देश में मोदी विरोध के नाम पर सबकुछ जायज है?

पत्रकार और बुद्धिजीवियों की जुबान पर ताला क्यों?
साल 2016 में जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाने वालों पर कार्रवाई पर बवाल मचाया गया। लोकतंत्र के खत्म होने की दलीलें दी गईं। रविवार को जाधवपुर यूनिवर्सिटी में देश को तोड़ने वाले नारे लगे हैं, लेकिन बीजेपी को छोड़ किसी पार्टी ने इसकी निंदा नहीं की है। पश्चिम बंगाल सरकार तो जैसे ऐसे खतरनाक तत्वों को सुरक्षा देने के लिए ही बनी है। पत्रकार और बुद्धिजीवी भी खामोश हैं। लेकिन ये खामोशी क्यों? जाहिर है देश को टुकड़े करने की मांग जैसे मोदी विरोध का सबसे बड़ा नारा बन गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक भारत श्रेष्ठ भारत अभियान शायद इन्हें पसंद नहीं।

क्या मां-बहनों से छेड़खानी जायज है?
प्रशांत भूषण ने यूपी सरकार के उस एंटी रोमियो दल पर सवाल उठाए हैं जो बीजेपी के संकल्प पत्र में था। उस संकल्प पत्र पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी मेहनत थी। चुनाव जीतने के बाद बीजेपी ने जनता से किए अपने वादे ही तो पूरे करने की कोशिश की है। इस कदम से यूपी की मां-बहनें खुद को सुरक्षित महसूस कर रही हैं। लेकिन इसका विरोध किया जा रहा है। इतना ही नहीं विरोध के लिए जिस प्रतीक का इस्तेमाल किया उन्हें बहुसंख्यक आबादी अपना आदर्श मानती है। लेकिन जो पत्रकार, इंटेलेक्चुअल्स और विपक्षी नेता पीएम मोदी के नेतृत्व में किए जाने वाले हर काम का विरोध करना फर्ज समझते हैं उन्हें इसमें भी खोट नजर आ रही है। शायद वे ये कह रहे हैं कि मां-बहनों से छेड़खानी होने देना चाहिए।

कमलेश तिवारी को जेल तो प्रशांत भूषण बाहर क्यों?
हिंदु महासभा के कमलेश तिवारी ने जब मोहम्मद साहब पर टिप्पणी की थी तो पूरा विपक्ष विरोध में उतर आया था। संसद से लेकर सड़क पर बवाल मच गया था। पश्चिम बंगाल के मालदा में तो मुसलमानों ने थाने तक फूंक दिए थे। कमलेश तिवारी पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाया गया और उन्हें जेल में डाल दिया गया था। लेकिन आज प्रशांत भूषण की बेहयाई पर कोई सवाल नहीं, कोई निंदा नहीं। क्या इसका कारण भी मोदी विरोध ही है?


लालू-मुलायम की चुप्पी क्यों?
अपने आपको कृष्णवंशी ठहराने वाले लालू यादव कृष्ण के चरित्र में दोष दिखाने वालों पर सवाल नहीं उठा रहे। खुद को गोपालक बताने वाले लालू यादव को अब कृष्ण के इस रूप में भी दोष दिखाई देगा? मुलायम सिंह यादव भी खुद को कृष्ण भक्त मानते हैं लेकिन क्यों खामोश हैं। भगवान कृष्ण के नाम पर जिन यादवों को बरगला कर वोट बैंक बनाया क्या उन यादवों के स्वाभिमान को ठेस लगने पर ये चुप्पी जायज है? क्या महज मोदी विरोध के नाम पर अपने अराध्यदेव को भी भूल बैठे हैं लालू-मुलायम ?

ट्रिपल तलाक पर क्यों खामोश है विपक्ष?
मुस्लिम महिलाओं को न्याय मिले इसके लिए केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार लगातार काम कर रही है। ट्रिपल तलाक जैसी कुरीतियों को खत्म करने की दिशा में बढ़ भी रही है। लेकिन इसमें भी वामपंथ से प्रभावित पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की खामोशी खतरनाक संकेत दे रही है। कश्मीर में आजादी की मांग का समर्थन करने वाले ये लोग मुस्लिम महिलाओं को ट्रिपल तलाक की जंजीरों में जकड़े रखना चाहते हैं। तो क्या यहां भी मोदी विरोध के नाम पर जायज मांगों पर भी उनकी खामोशी पर सवाल खड़े नहीं हो रहे हैं?

इस्लामी कट्टरपंथ पर चुप्पी क्यों?
कर्नाटक के शिमोगा की रहने वाली एक मुस्लिम लड़की पर मुस्लिम कट्टरपंथी भद्दे कमेंट भी कर रहे थे। सुहाना सईद का बस इतना कसूर है कि उसने एक कन्नड़ रियलिटी शो में भजन गाया था। लेकिन मुस्लिम लड़की के भजन गाने पर बवाल मच गया था। लेकिन तब भी न तो कोई विपक्षी दल, न ही कोई पत्रकार और न ही कोई बुद्धिजीवी विरोध करने सामने आए थे। ये सिर्फ इसलिए कि ये एक खास तबके से जुड़ा हुआ मामला था। जाहिर है इसके मूल में भी मोदी विरोध की राजनीति ही थी क्योंकि बीजेपी ने सुहाना सईद का समर्थन किया था।

46 फतवों पर भी खामोशी क्यों ?
फरवरी, 2017 में असम की 16 साल के नाहिद आफरीन पर 46 मौलवियों के फतवे का सामना करना पड़ा। वह भी सिर्फ संगीत को इस्लाम विरोधी बताकर। लेकिन इस 16 साल की बच्ची पर जारी फतवे के खिलाफ न तो मीडिया में शोर हुआ और न ही किसी संगठन में असहिष्णुता की बात ही उठाई। जाहिर है विपक्ष और मीडिया का एक वर्ग किस मानसिकता से गुजर रहा है ये लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा बनता जा रहा है।

सीपीएम कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी पर भी चुप्पी क्यों?
साल की शुरुआत में सीपीएम के गुंडों ने केरल के मल्लपुरम जिले में तिरूर के नजदीक भाजपा कार्यकर्ता सुरेश की कार को घेर लिया गया। हथियार के बल पर जबरन कार का दरवाजा खुलवाया और उनके गोद से दस माह के बेटे को छीन लिया और सड़क फेंक दिया। सुरेश पर भी कातिलाना हमला किया। मासूम की गलती सिर्फ इतनी थी कि उसके पिता भाजपा कार्यकर्ता है। जाहिर है सीपीएम की ऐसी गुंडागर्दी पर भी न तो पत्रकार और न बुद्धिजीवी अपनी जुबान खोलते हैं।
पीएम नरेंद्र मोदी के किसी भी काम का विरोध करना फैशन बन गया है और देश विरोधी सोच वाले लोगों की नाजायज हरकत को भी जायज कहना शगल। चाहे देश के सैनिकों के शौर्य से किया गया सर्जिकल स्ट्राइक हो या भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की कवायद में नोटबंदी। सबके विरोध में विपक्ष लामबंद हुआ, पत्रकारों का एक वर्ग इकट्ठा हुआ और वामपंथी बुद्धिजीवियों ने तो जैसे मोदी विरोध को मूल मंत्र ही मान लिया। क्या मोदी विरोध के नाम पर आज जो देश में हो रहा है वो हमारे देश के लोकतंत्र के लिए क्या ठीक है।

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