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विदेशी मीडिया और एजेंडा पत्रकार पीएम मोदी को नाकाम साबित करने की मुहिम चला रहे हैं, देखिए उनको बेनकाब करने वाले आंकड़े

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कोरोना की दूसरी लहर का संकट देश के एजेंडा पत्रकारों और भारत विरोधी विदेशी मीडिया के लिए अवसर लेकर आया है। एजेंडा पत्रकारों का उद्देश है कि चाहे देश की दुनियाभर में बदनामी हो, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को नीचा दिखाने का यह अवसर हाथ से नहीं निकलना चाहिए। इसके लिए श्मशानों से लाइव रिपोर्टिंग के साथ जलती चिताओं की तस्वीरें छापकर यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि हालात काफी खराब है और सरकार इसकों नियंत्रित करने में नाकाम रही है। उधर देश के बाहर भी मोदी और भारत विरोधी काफी सक्रिय है। अमेरिकी मीडिया में भारत के श्मशान घाटों की फोटो पहले पन्ने पर छप रही हैं। हालात को ऐसे पेश किया जा रहा है मानो कोरोना से संक्रमित होने वाला हर मरीज मर रहा है। जबकि कोरोना से ठीक होकर घर जाने वालों के आंकड़े और सरकार के प्रयास नदारद है।

न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट, द गार्जियन, द ऑस्ट्रेलियन में कई लेख प्रकाशित हुए, जिनमें हालात को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया। इसमें विदेशी मीडिया के भारत में स्थित सहयोगी और एजेंडा पत्रकार उनकी भरपूर मदद कर रहे हैं। अपने मतलब के हिसाब से तस्वीरें ली जा रही है,उन्हें अपने तरीके से पेश किया जा रहा है। श्मशान के दृश्यों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने वालों में से एक हैं वॉशिंगटन पोस्ट की ऐनी गोवेन जिन्हें जलती हुई चिताओं का ड्रोन द्वारा लिया गया चित्र “स्टनिंग” लगा (जैसा कि उन्होंने ट्वीट में लिखा था जो अब डिलीट कर दिया गया है)। द गार्जियन  ने इसे “नर्क की ओर भारत का अवतरण” कहा।

अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी Reuters के भारत में चीफ फोटोग्राफर दानिश सिद्दीकी ने हिन्दू लाशों के जलने की तस्वीरें शेयर कर के पूरी दुनिया में भारत की ऐसी छवि बनाने की कोशिश की है, जैसे कोरोना वायरस संक्रमण के लिए हिन्दू ही जिम्मेदार हों और वही मर रहे हों। उसने नई दिल्ली के एक श्मशान में जलती चिताओं की तस्वीरें शेयर की, जो सोशल मीडिया पर खासा वायरल हो रहा है। Reuters ने भी अपनी वेबसाइट पर इसे जगह दी। कइयों ने इसे सनसनी फैलाने की कोशिश करार दिया है।

25 अप्रैल को ‘द ऑस्ट्रेलियन’ अखबार में एक आर्टिकल पब्लिश हुआ। जिसका टाइटल था, ‘Modi leads India into viral apocalypse.’ जिसका मतलब है कि ‘मोदी भारत को ‘वायरस जन्य’ प्रलय की तरफ लेकर जा रहे हैं।’ इस रिपोर्ट में भारत में हो रहे चुनावों और रैलियों में जुटी हज़ारों की भीड़ का जिक्र किया गया। कुंभ मेले में जुटे लाखों लोगों का जिक्र किया गया। ऑक्सीजन और वैक्सीन की कमी को लेकर भारत सरकार की आलोचना की गई। इसी मामले में भारतीय दूतावास ने ‘द ऑस्ट्रेलियन’ के एडिटर इन चीफ क्रिस्टोफर डोर को चिट्ठी लिखी। जिसमें बताया कि ये सारी जानकारी गलत और आधारहीन है। साथ ही जवाब मांगते हुए ये भी कहा कि अब अखबार इसका एक प्रत्युत्तर भी प्रकाशित करे। लोगों को बताए कि इंडिया में कोरोना को खत्म करने के लिए कैसे-कैसे कदम उठाये जा रहे हैं।

न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि कई राज्यों के श्मशान घाट चीख-चीखकर सच्चाई बता रहे हैं और सरकार के दावों की पोल खोल रहे हैं। लोगों को अंतिम संस्कार के लिए भी घंटों इंतजार करना पड़ रहा है। यहां पर परिजनों का अंतिम संस्कार कराने के लिए आ रहे लोगों का कहना है कि स्थिति बेहद खराब है। साथ ही श्मशान घाटों में लोगों ने बताया कि मौतों की सही संख्या सरकारी आंकड़ों से बहुत ज्यादा है। गौरतलब है कि विश्व के किसी भी लोकतंत्र के साथ इस तरह का व्यवहार नहीं होता जैसा भारत के साथ हो रहा है। उन हिंदुओं की संवेदनाओं का यह एक निर्दयी अनादर है जो नहीं चाहते होंगे कि उनके परिजनों की जलती चिताएं एक सार्वजनिक दृश्य बने। लेकिन भारत और हिन्दुओं की भावनाओं का अनादार करते हुए उनकी जलती चिताओं को सरकार पर हमले का हथियार बना दिया। 

वहीं भारत के एजेंडा पत्रकारों ने जलती चिताओं अपने निजी हितों की लकड़ी डालकर चिनगारी को और भड़काने का काम किया है। जलती चिताओं की तपिश को विदेशों तक फैलाकर मोदी सरकार की छवि झुलसाने की कोशिश की है। कुछ पत्रकारों ने ऐसी टिप्पणियां कीं, जो पूरी तरह से देश के हित के खिलाफ है। बरखा दत्त ने भारत को एक “टूटा हुआ राष्ट्र” कहा जहां “असंवेदनशीलता और अयोग्यता हमें मार रही” है। द प्रिंट के एक वरिष्ठ पत्रकार का कहना था कि ये सब इसलिए हो रहा है क्योंकि बीजेपी समझ गई है कि “वायरस मतदान नहीं करता”। कुछ ही दिनों पहले हमने बरखा दत्त को कैमरे और लैपटॉप सहित सभी साजोसामान के साथ ऐसे ही एक श्मशान में देखा था। सभी हिन्दुओं के ही अंतिम संस्कार के स्थल में घूम रहे हैं। एक-एक मौत दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन इसका इस्तेमाल भी ब्रांडिंग और प्रोपेगंडा के लिए हो रहा।

बरखा दत्त द्वारा एक श्मशान के बाहर अड्डा जमाकर पूछना “क्या कोई मुर्दों की गिनती कर रहा है?” से अधिक अनैतिक क्या होगा। उधर पश्चिमी मीडिया में इनके इस प्रयास की तारीफ की जाती है, क्योंकि भारत को अभी भी सपेरों का देश करार देने का मौका मिलता है। उसकी कमियां दिखाकर उसके आत्मविश्वास को रौंदने की कोशिश की जाती है। भारतीयों को अहसास कराया जाता है कि अभी तुम पिछड़े हुए हो। महाशक्ति के रूप में उभरता हुआ भारत पश्चिमी देशों को खटकता है। इसलिए शक्तिशाली भारत की पहचान को फेक बताने की कोशिश की जाती है। इसमें अपने ही देश के नेता और कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भी उनकी मदद करते हैं। राहुल ने लिखा कि भारत सरकार की नकली इमेज को बचाने के लिए कहा जा रहा है सरकार सब कुछ कर रही है, लेकिन सच्चाई दुनिया के सामने आ गयी है।

राहुल गांधी ने न्यूयॉर्क टाइम्स की इस रिपोर्ट का हवाला देकर देश की बेहतर होती वैश्विक छवि को फेक करारा दिया। लेकिन राहुल गांधी उसी न्यूयॉर्क टाइम्स से सबक नहीं लिया, जिसके लिए देशहित और देश का आत्मसम्मान सर्वोपरि है। उसके लिए दो देश और दोनों के लिए अलग-अलग मापदंड है। न्यू यॉर्क टाइम्स का ये पन्ना बताने के लिए काफी है कि वह अपने लोगों के अंतिम संस्कार की फोटो पेपर में ना छाप कर उनकी गरिमा का ख्याल रखता है। लेकिन जब बात भारत की आती है तो वह पूरी तरह भूल जाता है। हमारे देश के लोगों की जलती चिताएं इस पत्र के लिए ख़बरों का मेकअप बन जाती हैं। और यही अमेरिका का वास्तविक चरित्र है। लेकिन कोरोना के खिलाफ जंग में अमेरिका और भारत के संघर्ष को इन आंकड़ों के जरिए समझ सकते हैं कि किसने बेहतर तरीके से कोरोना का मुकाबला किया है… 

कोरोना के खिलाफ जंग में अमेरिका बनाम भारत

       अमेरिका            भारत
आबादी 33 करोड़ के करीब आबादी 135 करोड़ से ज्यादा
विकसित और सबसे अमीर देश है भारत विकासशील देश है
कोरोना से 5.86 लाख लोगों की मौत कोरोना से 2.04 लोगों की मौत
प्रति दस लाख आबादी पर मृत्यु दर 1754 प्रति दस लाख आबादी पर मृत्यु दर 133
वैक्सीन की रोजाना औसतन 30 लाख डोज दी जा रही है भारत में प्रतिदिन औसतन 38,93,288 टीके लगाए जा रहे हैं
अमेरिका को टीके की 10 करोड़ खुराक देने में 89 दिन लगे  भारत ने 85 दिन में 10 करोड़ टीके लगाए
अमेरिका ने वैक्सीन भेजकर किसी भी देश की मदद नहीं की भारत अब तक कुल 80 देशों को वैक्सीन देकर मदद की है

ये आंकड़े बताने के लिए काफ़ी हैं कि भारत ने कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ जंग में अमेरिका से अच्छा काम किया। भारत अपने कई लोगों की जानें बचाने में कामयबा रहा, जबकि ख़ुद को सुपर पावर बताने वाले और संसाधनों से परिपूर्ण अमेरिका कम आबादी के बावजूद अपने लाखों लोगों की जान नहीं बचा पाया। अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप में जब कोरोनावायरस की दूसरी लहर आई थी और वहां हर दिन हज़ारों लोग मर रहे थे तो भारत ने भी कभी इन देशों के हालात का मज़ाक़ नहीं बनाया। हमारे देश ने हमेशा मदद की पहल की और दूसरी लहर के दौरान यूरोप सहित कई देशों को पीसीबीई किट, एफएक्यू और वैक्सीन भेजीं। भारत अब तक कुल 80 देशों को वैक्सीन भेज चुका है। लेकिन इन देशों ने कभी ऐसा नहीं किया।

पहली लहर के समय केंद्र सरकार की इसे लेकर आलोचना हुई कि उसने सब कुछ केंद्रीकृत कर दिया है। राज्यों के हाथ बांध दिए हैं। केंद्र ने जनवरी के बाद मुख्यमंत्रियों को राज्य की जरूरत और स्थिति के अनुसार फैसले लेने की छूट दे दी। केंद्र ने 162 ऑक्सीजन प्लांट लगाने के लिए राज्यों को पैसा दे दिया, पर राज्यों ने ध्यान नहीं दिया और न ही बड़े निजी अस्पतालों ने। जिन अस्पतालों ने पहली लहर में खूब कमाया था, उन्होंने भी समय रहते ऑक्सीजन प्लांट लगवाने की आवश्यकता नहीं समझी। इस वक्त ऑक्सीजन के लिए सबसे ज्यादा हाहाकार निजी अस्पतालों में ही है।

भारत ने कम समय में दो-दो वैक्सीन बना लीं। एक अपनी और एक अंतरराष्ट्रीय मदद से। वैक्सीन आई तो देश में राजनीति शुरू हो गई। कहा जाने लगा कि यह भाजपाई वैक्सीन है। लोगों के मन में संदेह पैदा कर दिया। नतीजतन टीकाकरण का अभियान धीमा हो गया। इसके लिए भी सरकार को जिम्मेदार ठहरा दिया गया। सबको मालूम है कि वैक्सीन उत्पादन में समय लगेगा। ये लोग चाहते थे कि सरकार पर दबाव बनाओ कि सबके लिए एक साथ टीकाकरण हो। टीकाकरण केंद्रों पर अफरातफरी मचे। अब जब सरकार 18 साल से ऊपर वालों के लिए एक मई से टीकाकरण शुरू कर रही है तो कांग्रेस शासित और कुछ अन्य राज्य कह रहे हैं कि हम तो नहीं शुरू कर पाएंगे। क्यों? क्योंकि वैक्सीन कंपनी कह रही है कि 15 मई से पहले टीका नहीं दे पाएंगे। 

सच्चाई यह है कि अचानक आई किसी भी आपदा से कोई भी देश थोड़े समय के लिए लड़खड़ा सकता है, इसका मतलब यह नहीं है कि वो पूरी तरह फेल हो चुका है। किसी चीज की व्यवस्था करने में थोड़ा वक्त लगता है इसके लिए आलोचना में हर्ज नहीं है, पर क्या इसकी आड़ में देश को बदनाम भी करेंगे? दरअसल, मोदी विरोधी इस महामारी को एक अवसर के रूप में देख रहे हैं जहां वे सरकार को इतना नीचा दिखा सकें कि पूर्ववर्ती व्यवस्था फिर से उठ खड़ी हो जहां वे अब की तुलना में अपने आप को काफी सहज महसूस करते थे। सत्ता की मलाइ खा चुके पत्रकारों को आज मोदी राज में वो भाव नहीं मिल रहा है, जैसा पहले मिल रहा था। इस लिए वो अपनी कुंठा को महामारी के आवरण में ढककर पेश कर रहे हैं। लेकिन ये पत्रकार भूल रहे हैं कि उनकी इस पत्रकारिका का उल्ट असर भी हो रहा है। लोगों में कोरोना को लेकर खौंफ पैदा हो रहा है, जो लोगों की मौत का कारण बन रहा है। 

मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित चिकित्सकों के एक समूह ने न्यूज मीडिया आउटलेट्स को ओपन लेटर लिखा है। इस ओपन लेटर में कहा गया है कि मीडिया एक समय में कई करोड़ों लोगों के साथ संपर्क स्थापित करने की क्षमता रखता है। मीडिया के द्वारा पेश की गई रिपोर्ट टेलीविजन, मोबाइल और समाचारपत्रों के माध्यम से लगातार लोगों तक पहुंचती रहती है। ऐसे में श्मशानों में जलती हुई लाशों को दिखाकर, रोते-बिलखते लोगों की तस्वीरों और वीडियो दिखाकर, संवेदनशील क्षणों को कैमरा में कैद करके कुछ समय के लिए सनसनी पैदा की जा सकती है और इससे लोगों का ध्यान भी खींचा जा सकता है लेकिन ऐसी रिपोर्टिंग की कीमत भारी हो सकती है। लोग इस समय पहले से ही अवसाद और महामारी की कठिनाईयों से जूझ रहे हैं लेकिन संवेदनशील मुद्दों पर सनसनीखेज रिपोर्टिंग और निराशा एवं भय के विजुअल देखने से लोग और भी अवसाद में जा सकते हैं।

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