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सेना को सियासत का मोहरा बनाना चाहते हैं वामपंथी!

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आर्मी और पुलिस भर्ती के लिए होने वाली परीक्षाओं में कश्मीर के नौजवाानों की बढ़ती भागीदारी से ये बात साफ हो रही है कि कश्मीर में शांति स्थापना की कोशिशों ने रंग लाना शुरू कर दिया है। कश्मीर की आजादी की मांग करने वाले 14 कश्मीरियों ने भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा पास कर तो ऐसे दोशद्रोहियों को करारा तमाचा ही जड़ दिया है।

दूसरी तरफ आर्मी की सख्ती ने देशद्रोहियों को भी कड़ा संदेश दिया है। एक के बाद टेरर मॉड्यूल का खुलासा और आतंकियों का खात्मा कर सेना ने स्पष्ट संदेश भी दिया है कि देश की सुरक्षा से खिलवाड़ अब बर्दाश्त नहीं। लेकिन सेनाध्यक्ष ने जब से ये रुख अपनाया है कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों को ये बात पच नहीं रही है। सबसे ज्यादा दर्द वामपंथियों को हो रहा है। माकपा के मोहम्मद सलीम के बाद अब प्रकाश करात ने भी सेना की सख्ती पर सवाल उठाए हैं। लेकिन प्रकाश करात के एक सवाल के जवाब में कई सवाल उनकी तरफ उठ गए हैं। सवाल यह भी कि क्या सेना को वामपंथी सियासत का मोहरा बनाना चाहते हैं?


‘बुद्धिहीन बुद्धिजीवियों’ को मानवाधिकार के अलग-अलग पैमाने क्यों?
माकपा के प्रकाश करात की उस टिप्पणी का है जिसमें उन्होंने कश्मीर में भारतीय सेना की सख्ती पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने आरोप लगाया है कि केंद्र की मोदी सरकार और सेना प्रमुख मिलकर कश्मीरियों की आवाज दबा रही है। जाहिर है प्रकाश करात के इस बयान से ज्यादातर लोग गुस्से में हैं और सवाल उठा रहे हैं कि क्या राजनैतिक विरोध की आड़ में देश की अस्मिता के साथ खिलवाड़ को अब और बर्दाश्त किया जाय या नहीं? सवाल ये भी उठ रहे हैं कि क्या ऐसे ‘बुद्धिहीन बुद्धिजीवियों’ को सिर्फ ऐसे मामले में ही मानवाधिकार का उल्लंघन दिखता है जो राष्ट्र की सुरक्षा के लिए होते हैं?

पाकिस्तान की भाषा बोल रहे हैं वामपंथी!
देश को तोड़ने पर आमादा वामपंथियों के भीतर कितना जहर भरा है इस बात का सबूत कुछ दिन पहले माकपा के ही मोहम्मद सलीम की बातों में दिखी थी। सलीम और करात ने कहा है कि आर्मी चीफ बिपिन रावत मोदी सरकार की भाषा बोल रहे हैं। अरे करात साहब मुस्कुराइये कि आप भारत में हैं। हमारी सेना पाकिस्तानी सेना की तरह ‘अपनी भाषा’ नहीं बोलती, वरना आप की सारी हेकड़ी धरी की धरी रह जाती और …. । 


कुछ भी बोलने की आजादी तो नहीं मिली!
दरअसल किसी मुद्दे पर विरोध लोकतंत्र की मर्यादा है, लेकिन ये विरोध जब राष्ट्र विरोध में तब्दील हो जाए तो ये किस लेवल तक बर्दाश्त किया जाए ये बड़ा सवाल है। अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों को भी ये सोचना पड़ेगा कि वे अपनी सुविधानुसार मुद्दों का चयन कर नहीं बोलेंगे। लाखों कश्मीरी पंडितों को उनके पूर्वजों की धरती से खंदेड़ने पर मौन रहने वाले वामपंथी मानवाधिकारवादियों को आतंकियों का मानवधिकार ही क्यों दिखता है? चीन के तियानयान स्क्वायर पर जब सैकड़ों युवाओं को कुचल डाला था तो यही वामपंथी चुप क्यों थे? चीन के ही शिनचियांग प्रांत में जब मुसलमानों को धार्मिक आजादी तक नहीं तो इन वामपंथियों के लेख क्यों नहीं आते। जाहिर है ये वामपंथियों की संकीर्ण सोच ही है जो देश को कमजोर करने वाली बातें करते हैं।


राजनीति से दूर रखो सेना को
दरअसल वामपंथियों के बौखलाने के पीछे एक कारण ये है कि पीएम मोदी की सरकार ने सेना को सख्ती के आदेश दिए हैं और सेना ने देशद्रोहियों को उसकी असल औकात बता दी है। सेना पर देश के लोगों ने सदैव गर्व किया है। हर कदम पर जनता ने सेना का साथ दिया है। लेकिन सेना पर तब सवाल उठाए जा रहे हैं जब पत्थरबाजों से सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की जान बचाने के लिए सेना के एक मेजर ने एहतियाती कदम उठाए थे। निष्पक्ष लोगों का मानना है कि कि अगर उस दिन मेजर गोगोई विवेक से काम न लेते तो हमारे अनेक सैनिकों की जान चली जाती। करात साहब उस देश का नाम बताने की कृपा करेंगे जहां सुरक्षाबल स्वयं पर हमला किए जाने पर भी शांत बने रहते हैं? करात साहब बताएंगे कि सुरक्षा बलों का कोई मानवाधिकार होता है या नहीं?

सियासी जमीन की तलाश में वामपंथी
भारतीय लोकतंत्र में वामपंथ के दिन लद गए हैं। ऐसा अक्सर राजनीतिक गलियारों में सुनने को मिलता है। पश्चिम बंगाल से उखड़ चुका वामपंथ अब केरल और त्रिपुरा में सिमट चुका है। कभी देश के 18 राज्यों में अपनी पैठ बना चुका वामपंथ अब खत्म होने की कगार पर है। हाल यह है कि उत्तर प्रदेश की एक सौ से ज्यादा सीटों पर संघर्ष को उतरे वामपंथी दलों को कुल मिलाकर एक लाख वोट भी नहीं आए। ऐसे में संवेदनशील मुद्दों को सियासी रंग देकर अपनी राजनीतिक जमीन बनाने की कवायद में लगा वामपंथ शायद अपनी बौखलाहट ही बयां कर रहा है। 

पार्थ चटर्जी को क्यों नहीं दिखती ‘सहिष्णुता’?
साहित्यकार पार्थ चटर्जी ने पत्थरबाज को जीप की बोनट से बांधने पर सेना की आलोचना तो की और सेना प्रमुख को जनरल डायर बता डाला। लेकिन पार्थ चटर्जी को शायद यह नहीं पता कि जनरल डायर के काल में होते तो अब तक उनकी क्या दशा होती वो स्वयं समझ सकते हैं। पार्थ ये जान लें कि जनरल डायर ने निहत्थे भारतीयों पर गोलियां बरसाईं थीं, जबकि यहां सेना ने कश्मीरियों पर गोलियां नहीं चलाईं। बल्कि सूझबूझ से सेना की भी जान बचा ली और पत्थरबाजों को भी नुकसान नहीं होने दिया। वे ये क्यों भूल जाते हैं कि वहां सेना की जान जोखिम में थी और वे चाहते तो चंद पत्थरबाजों को एक मिनट में समाप्त कर सकते थे। बहरहाल आंखों पर पट्टी बांध कर विश्लेषण कर रहे पार्थ को ये नहीं दिख रहा है।

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