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डीएसपी अयूब पंडित ही हैं अपनी हत्या के दोषी- इस जेहादी दलील से लड़ने का है वक्त

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डीएसपी मोहम्मद अयूब पंडित को भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला। ये भीड़ वो भीड़ थी, जो मस्जिद से बाहर निकल रही थी। डीएसपी अयूब पंडित को नंगा कर उन्हें पत्थरों से मार-मार कर उनकी जान लेने वाली भीड़ नमाजी थी। नमाज पढ़कर निकली थी। जो जिन्दा तस्वीर सामने आयी है वह चुगली कर रही है कि घटना के वक्त मस्जिद के भीतर से माइक पर पाक रमजान महीने में खुदा की खिदमत वाली पंक्तियां भी कही जा रही थीं। इस घटना ने नमाजियों को बदनाम किया है, मस्जिद पर कलंक लगाया है और खुदा की खिदमत में पढ़ी जा रही पंक्तियों की पवित्रता नष्ट कर दी है।

कोई भी मजहबी इतना क्रूर कैसे हो सकता है कि अपनी ही जमात के इंसान को सरकारी वर्दी पहनने की इतनी क्रूर सज़ा दे। इस घटना पर प्रतिक्रियाओं का चरित्र भी फिजां में फैले वैचारिक,सामाजिक और मानसिक प्रदूषण से युक्त है। बावजूद इसके हवा सांस लेने वाली इसलिए है क्योंकि ज्यादातर लोग इस घटना को बदनुमा दाग के रूप में ले रहे हैं। कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने तो अपने गुस्से का इजहार इस रूप में किया है कि अगर वर्दीधारी पुलिस अपना सब्र तोड़ दें तो वो दिन लौट सकते हैं जब पुलिस की जिप्सी देखकर रियाया दुम दबाकर भाग खड़ी होती थी, घरों में छिप जाया करती थी।

स्थानीय पत्रकार मीर हिलाल की पत्रकारिता तो देखिए, जो भीड़ के हाथों मारे गये डीएसपी मोहम्मद अयूब पंडित को ही दोषी ठहरा रहे हैं। पुलिस चौकी घटनास्थल से 200-300 मीटर की दूरी पर है इसलिए दोष पुलिस को ही दे रहे हैं। वो ये भी कहते हैं कि पवित्र रमजान के महीने में रात के वक्त ऐसी सुरक्षा की जरूरत ही नहीं थी। इससे शर्मनाक दलील और क्या हो सकती है। डीएसपी को भीड़ नंगा कर रही है, पत्थर से मार-मार कर जान ले रही है और उसके लिए दिवंगत डीएसपी को ही दोषी ठहराया जा रहा है ये कहकर कि उनका फोटो लेने का काम संदिग्ध था! तारिक फतेह ने ऐसे पत्रकार पर बहुत सही सवाल जड़ा है और उन्हें जेहादी पत्रकार बताया है।

राजदीप सरदेसाईयों की तटस्थता कम घृणित नहीं है जो इस घटना की निन्दा नहीं करते, उन्मादी नमाजियों पर कार्रवाई की मांग नहीं करते बल्कि सवाल करते हैं कि कश्मीर में खूनी संघर्ष को कबूल कर लेने तक हमें कितने और डीएसपी की जान गंवानी पड़ेगी? राजदीप सरदेसाईजी क्या एक डीएसपी की कुर्बानी का ये वक्त यह कबूल करवाने के लिए होना चाहिए कि सरकार कश्मीर में खूनी संघर्ष की बात कबूल करे? शर्मनाक है आपकी पत्रकारिता!

सवाल उठ रहे हैं कि सरकार कब तक नरम रुख अपनाती रहेगी? अगर कोई भी हमारे डीएसपी को क्रूर मौत देने में भी खौफ नहीं रखता है, तो कानून का शासन कायम कैसे रह सकेगा? मेजर गौरव आर्या ने ट्वीट कर यही सवाल उठाया है।

मधु पूर्णिमा किश्वर ने बहुत सही आशंका जताई है कि मीरवाइज मस्जिद के सामने घटी यह क्रूर घटना जम्मू-कश्मीर के लिए टर्निंग प्वाइन्ट साबित होने वाला है। महबूबा मुफ्ती को इसकी आशंका है- ये बताते हुए वह ट्वीट करती हैं कि पीडीपी के लोगों के साथ भी यही सलूक किया जा सकता है।

डीएसपी पंडित की हत्या एक खतरनाक स्थिति को बयां कर रही है। एक धार्मिक स्थल से निकली धार्मिक भीड़ अपने ही धर्म के एक अफसर की इसलिए जान ले लेती है क्योंकि वह सरकार के लिए ड्यूटी कर रहा है। सरकार के खिलाफ नफ़रत को इस हद तक पहुंचाने वाले लोगों को बख्शा नहीं जाना चाहिए। ये सरकार की नरमी है कि ऐसी घटनाएं घट जाती हैं वरना ऐसी घटनाओं के बाद सलूक ऐसा होना चाहिए कि दोबारा कोई ऐसी वारदात अंजाम देने के बारे में सोचे तक नहीं। जो लोग खुद डीएसपी अयूब पंडित को अपनी मौत का जिम्मेदार बता रहे हैं ऐसे जेहादी दलील रखने वालों को भी बख्शा नहीं जाना चाहिए। उन्हें भी कानून के कठघरे में खड़ा करने की जरूरत है।

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