Home समाचार जजों की नियुक्ति का कॉलेजियम सिस्टम विवादों के घेरे में क्यों? ‘कंसल्टेशन’...

जजों की नियुक्ति का कॉलेजियम सिस्टम विवादों के घेरे में क्यों? ‘कंसल्टेशन’ की व्याख्या ‘सहमति’ के रूप में करने से उलझा मामला! अब आगे की राह क्या

SHARE

भारत में उच्च न्यायपालिका यानी सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति का मामला हाल के समय में गंभीर विवादों के घेरे में है। भारत में जजों की नियुक्ति के लिए जो कॉलेजियम सिस्टम फिलहाल काम कर रहा है वह परिपाटी विश्व के किसी भी प्रतिष्ठित देश में नहीं है। यह कुछ हद तक राजशाही की याद दिलाता है कि राजा का पुत्र ही राजा होगा। इस सिस्टम के तहत जज ही जजों को नियुक्त करता है। उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान व्यवस्था न तो संविधानसम्मत है और न ही लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल। महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने देश में भी 1993 से पहले कॉलेजियम व्यवस्था नहीं थी। 1993 से पहले कानून मंत्रालय ही नाम भेजता था।

लेकिन कोर्ट ने संविधान में लिखे शब्द ‘कंसल्टेशन’ की व्याख्या ‘सहमति’ के रूप में की यानी विचार-विमर्श को मुख्य न्यायाधीश की ‘सहमति’ माना गया। इसके बाद कॉलेजियम व्यवस्था अस्तित्व में आई। उस समय देश की जनता ने इसका विरोध नहीं किया क्योंकि इंदिरा गांधी के समय से ही न्यायपालिका में राजनीति का हस्तक्षेप बढ़ने लगा था और लोग चाहते थे कि न्यायपालिका में राजनीति का हस्तक्षेप न हो। लेकिन अब जबकि कॉलेजियम सिस्टम की बुराइयां उभरकर सामने आ गई हैं- परिवारवाद, आपसी खींचतान, जजों नियुक्ति में देरी, न्यायपालिका में फैसले देने की रफ्तार बेहद सुस्त पड़ने से न्यायपालिका की काफी बदनामी हुई है। ताजा उदाहरण कॉलेजियम के आपसी विवाद के कारण चार जजों की नियुक्ति न हो पाना है।

चीफ जस्टिस यूयू ललित जिन चार जजों को नियुक्त करना चाहते थे, उसके लिए उन्होंने कॉलेजियम की बैठक बुलाई। पर जस्टिस डी.वाई चंद्रचूड़ उस रोज रात 9 बजे तक मुकदमों की सुनवाई करते रहे। इस वजह से बैठक हो ही नहीं पाई। जस्टिस ललित ने चारों कॉलेजियम जजों से सहमति लेने के लिए पत्र भेजा, जिसका दो जजों ने विरोध कर दिया। इस बीच कानून मंत्रालय ने जस्टिस ललित से कहा कि वे अगले चीफ जस्टिस के लिए नाम भेजें। इसके बाद कॉलेजियम की बैठक करना मुमकिन नहीं था। इसलिए चार जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को खत्म कर दिया गया। ये बेहद अशोभनीय था और इससे कॉलेजियम के बीच जजों की नियुक्ति को लेकर चलने वाले दांव-पेच उजागर हो गए।

परिवारवाद से देश को हुए नुकसान से भलीभांति परिचित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल की शुरुआत में ही कॉलेजियम सिस्टम को खत्म कर नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार, विपक्ष और जानकारों को शामिल करके आयोग बनाने की व्यवस्था लाने की कोशिश की थी, इसके लिए संविधान संशोधन भी किया गया और नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन कानून, 2014 भी पारित किया गया। लेकिन तब सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया था।

कॉलेजियम सिस्टम आज पूरी तरह फेल हो गई

सुप्रीम कोर्ट ने अपने कंधों पर बड़ी ज़िम्मेदारी ली थी लेकिन जजों की चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता न लाकर वह उन ज़िम्मेदारियों पर खरा नहीं उतर पा रहे हैं। कॉलेजियम एक सही तरीका था लेकिन वक्त के साथ वह अपना वो काम नहीं कर सका, जिस उम्मीद से उसका गठन किया गया था, वैसा नहीं हुआ। जब से कॉलेजियम बना है तब से उसने योग्यता के आधार पर नियुक्ति और इस सिस्टम में पारदर्शिता लाने के लिए कुछ नहीं किया है। कॉलेजियम सिस्टम आज पूरी तरह फेल हो गई है। किसी भी हालत में जजों को सियासत से दूर रखा जाना ज़रूरी है, लेकिन जज ही जजों की नियुक्ति करें, ये भी ग़लत है। जजों की निष्ठा संविधान के लिए होनी चाहिए, न कि किसी व्यक्ति के लिए। साल 2015 में जब एनजेएसी को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया तो उस वक्त की जजों की पीठ ने माना कि कॉलेजियम की मौजूदा प्रणाली में दिक़्कतें हैं और उसे सुधारे जाने की ज़रूरत है।

कानून मंत्री रिजिजू ने चीफ जस्टिस को लिखा पत्र, कहा- कॉलेजियम में अपना प्रतिनिधि चाहती है सरकार

केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ को पत्र लिखकर सुझाव दिया है कि सरकार के प्रतिनिधियों को भी सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम में शामिल किया जाना चाहिए। रिजिजू ने यह भी कहा है कि राज्य के प्रतिनिधियों को भी उच्च न्यायालय के कॉलेजियम का हिस्सा होना चाहिए। कानून मंत्री के मुताबिक, इससे 25 साल पुराने कॉलेजियम सिस्टम में पारदर्शिता और सार्वजनिक जवाबदेही आएगी। एक महीने पहले रिजिजू ने पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी के लिए वर्तमान प्रक्रिया की आलोचना की थी। उन्होंने हाल ही में यह भी कहा कि कॉलेजियम प्रणाली, जो कि एक प्रशासनिक कार्य है, न्यायाधीशों को अत्यधिक व्यस्त रख रही है और न्यायाधीशों के रूप में उनके कर्तव्यों को प्रभावित कर रही है।

विश्व के किसी प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक देश में यह व्यवस्था नहीं

कॉलेजियम व्यवस्था का निर्माण संविधान ने नहीं किया। इसका निर्माण स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने किया और ऐसा करके न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण का अधिकार पूरी तौर पर अपने हाथ में ले लिया। ऐसा विश्व के किसी प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक देश-और यहां तक कि ब्रिटेन और अमेरिका में भी नहीं होता। आखिर जब किसी देश में न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं करते तो भारत में ऐसा क्यों होना चाहिए? यह वह प्रश्न है, जिसका कोई स्पष्ट उत्तर देने के स्थान पर इस तरह के खोखले तर्क दिए जाते हैं कि यह धारणा गलत है कि भारत में न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं। ऐसे तर्क देकर सच से मुंह मोड़ने की कोशिश ही की जाती है। न्यायाधीशों की नियुक्ति की व्यवस्था में इसलिए संशोधन-परिवर्तन किया जाना चाहिए, क्योंकि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को खारिज करते समय स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने इस व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता रेखांकित की थी। देश नहीं जानता कि इस दिशा में कोई प्रगति क्यों नहीं हुई?

कॉलेजियम व्यवस्था अपारदर्शी, जवाबदेही का भी अभाव

समस्या केवल यह नहीं है कि कोलेजियम व्यवस्था संविधान की भावना के प्रतिकूल है। समस्या यह भी है कि यह अपारदर्शी है। इसमें जवाबदेही का भी अभाव है। कोलेजियम में शामिल न्यायाधीशों के अलावा अन्य किसी को नहीं पता चलता कि किसी न्यायाधीश की नियुक्ति या प्रोन्नति क्यों की गई? इससे भी विचित्र यह है कि कोलेजियम के निर्णयों की प्रक्रिया का विवरण देने से भी मना कर दिया जाता है। वास्तव में इसी कारण कॉलेजियम व्यवस्था का विरोध होता आ रहा है। यह आगे भी होता रहेगा, क्योंकि यह व्यवस्था लोकतांत्रिक मर्यादाओं का उल्लंघन करती है।

न्यायाधीशों की नियुक्तियों में कार्यपालिका की भूमिका पोस्टमास्टर जैसी

इसका कोई औचित्य नहीं कि न्यायाधीशों की नियुक्तियों में कार्यपालिका की कहीं कोई भूमिका ही न हो। यह समझ आता है कि सुप्रीम कोर्ट यह अपेक्षा रखे कि न्यायाधीशों की नियुक्तियों में कार्यपालिका ही पूरी तौर पर प्रभावी न हो, लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं कि उसकी कहीं कोई भूमिका न हो। फिलहाल न्यायाधीशों की नियुक्तियों में कार्यपालिका की भूमिका पोस्टमास्टर जैसी है। स्पष्ट है कि यह स्थिति ठीक नहीं और इसमें परिवर्तन होना ही चाहिए।

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा- प्रजातंत्र के लिए ठीक नहीं

राजस्थान विधानसभा में अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम निरस्त करने को लेकर न्यायपालिका की आलोचना करते हुए उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने खुलकर अपनी बात कही। उन्होंने कहा कि संसद के बनाए कानून को किसी और संस्था की ओर से अमान्य ठहराना प्रजातंत्र के लिए ठीक नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में NJAC अधिनियम को निरस्त कर दिया था। धनखड़ ने कहा कि दुनिया में ऐसा कहीं नहीं हुआ है। लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए संसदीय संप्रभुता और स्वायत्तता सबसे ऊपर है। उपराष्ट्रपति ने जोर देकर कहा कि लोकतंत्र तभी कायम रहता है जब विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका लोगों की आकांक्षाओं को साकार करने के लिए मिलकर काम करती हैं। उनका इशारा संसद के कामकाज में न्यायिक हस्तक्षेप की तरफ था। धनखड़ ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा, ‘…न्यायपालिका-विधायिका संबंधों पर हम ‘शुतुरमुर्ग’ जैसा रवैया नहीं अपना सकते। संसदीय संप्रभुता को कार्यपालिका या न्यायपालिका द्वारा कमजोर करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।’

न्यायपालिका संवैधानिक मर्यादा के भीतर रहेः लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला

लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने कहा कि न्यायपालिका से संविधान में परिभाषित शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Powers) के सिद्धांत का पालन करने की उम्मीद की जाती है। स्पीकर ने कहा कि संवैधानिक संस्थाओं को एक्टिविज्म से बचना चाहिए। विधायिका और न्यायपालिका के संबंधों पर बिरला ने कहा कि विधानमंडलों ने न्यायपालिका की शक्तियों और अधिकारों का हमेशा सम्मान किया है। न्यायपालिका से भी अपेक्षा की जाती है कि वह संविधान से मिली शक्तियों का उपयोग करते समय सभी संस्थाओं के बीच शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का पालन करे। उन्होंने कहा कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों ही अपने अधिकार संविधान से प्राप्त करते हैं और तीनों के क्षेत्राधिकार का ध्यान रखते हुए आपसी सामंजस्य, विश्वास और सौहार्द के साथ कार्य करना चाहिए। उन्होंने न्यायपालिका को संवैधानिक मर्यादा के भीतर रहने की सलाह दी।

अभी कॉलेजियम सिस्टम ही जजों की नियुक्त और तबादले करती है

अभी कॉलेजियम सिस्टम में चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों का एक समूह जजों की नियुक्ति और तबादले का फैसला करता है। उसकी सिफारिश पर सरकार मुहर लगाती है। यहां यह समझना महत्वपूर्ण है कि संविधान में कलीजियम व्यवस्था की चर्चा नहीं है। 1998 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ही यह अस्तित्व में आ गया। NJAC पर सुप्रीम कोर्ट राजी नहीं हुआ और उसने संसद के फैसले को ही रद्द कर दिया।

कॉलेजियम प्रणाली संविधान के प्रावधान द्वारा स्थापित नहीं

भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 सर्वोच्च और उच्च न्यायालय में क्रमशः न्यायाधीशों की नियुक्ति से सम्बद्ध हैं। परंतु कॉलेजियम प्रणाली संसद के किसी अधिनियम या संविधान के प्रावधान द्वारा स्थापित नहीं है।

कॉलेजियम जजों की नियुक्ति के लिए नाम तय करती है

सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए नाम खुद सुप्रीम कोर्ट की कलीजियम तय करती है। इन नामों को सरकार के पास भेजा जाता है और फिर सरकार के संबंधित विभाग आईबी आदि से क्लियरेंस के बाद इन नामों को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजा जाता है।

कॉलेजियम सिस्टम से पहले कानून मंत्रालय ही नाम भेजता था

कॉलेजियम सिस्टम से पहले जो नियुक्ति की प्रक्रिया थी, उसके तहत लॉ मिनिस्ट्री नामों को रेफर करती थी और फिर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया उस बारे में अपना विचार देते थे और तब उन्हें राष्ट्रपति के पास रेफर कर दिया जाता था। इस प्रक्रिया से हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति होती थी।

कॉलेजियम सिस्टम 1993 में अस्तित्व में आया

1993 में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच ने आदेश पारित किया और कॉलेजियम सिस्टम की शुरुआत की। हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए नाम भेजा जाता है। सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया और 4 सीनियर जस्टिस होते हैं। उन नामों पर विचार के बाद सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम नाम तय करती है और फिर उसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है।

कॉलेजियम सिस्टम को खत्म करने के लिए 2014 में कानून बना, सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया

कलीजियम सिस्टम को खत्म करने के लिए केंद्र सरकार ने 2014 में संसद में कानून पास किया था, और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) लेकर आई थी। इसके तहत तय किया गया था कि छह लोगों का कमिशन होगा, जो जजों के नाम का चयन करेगा और फिर राष्ट्रपति की मंजूरी से उन्हें जज बनाया जाएगा। इसमें भारत के चीफ जस्टिस, दो सुप्रीम कोर्ट के जज, कानून मंत्री और दो जानी मानी शख्सियत शामिल होंगी। इन दो नामों का चयन हाई पावर कमिटी करेगी, जिसमें प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस और विपक्षी दल के नेता होंगे। लेकिन एनजेएसी को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी गई और सुप्रीम कोर्ट ने 16 अक्टूबर 2015 को इसे खारिज करते हुए कलीजियम सिस्टम को रिवाइव कर दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा- संविधान के मूल ढांचे में जुडिशरी की सर्वोच्चता बहाल

एनजेएसी को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संविधान के मूल ढांचे में जुडिशरी की सर्वोच्चता को बहाल रखा गया है। जजों की नियुक्ति में एग्जिक्यूटिव का रोल लिमिटेड है। जजों की नियुक्ति का अधिकार जुडिशरी का है और यह बेसिक स्ट्रक्चर का पार्ट है। सरकार की नई योजना एनजेएसी इसे डैमेज कर रही है, ऐसे में इसके लिए किया गया संविधान संशोधन और एनजेएसी एक्ट गैर संवैधानिक है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एनजेएसी के कारण जुडिशरी की स्वतंत्रता प्रभावित होती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी भी सिस्टम की आलोचना हो सकती है, लेकिन अगर उसे चेंज करना है तो उसे संविधान के दायरे में भी बदला जा सकता है। एनजेएसी के लिए जो संविधान में संशोधन किया गया, वह संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर को प्रभावित करता है। जजों की नियुक्ति के लिए किए संविधान संशोधन को गो-बाय करना होगा। यह भी समझना होगा कि तब के जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि जुडिशरी की स्वतंत्रता संविधान के अनुच्छेद-14, 19 और 21 का पार्ट है। अगर यह प्रभावित होती है तो इससे लोगों के मूल अधिकार प्रभावित होंगे, ऐसे में एनजेएसी को खारिज किया जाना जरूरी है।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में विचार-विमर्श को सहमति में बदल दिया

बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली हाई कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस आरएस सोधी कहते हैं, “संविधान में जो लिखा है उसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति चीफ़ जस्टिस से ‘कंस्लटेशन’ करेंगे, न कि सहमति लेंगे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में विचार-विमर्श को सहमति में बदल दिया। मैं मानता हूँ कि संसद सुप्रीम है और अगर आप किसी प्रोविजन से सहमत नहीं हैं तो आप उसे संसद में दोबारा विचार के लिए भेजिए या उसे रद्द कर दीजिए।”

सुप्रीम कोर्ट खुद के लिए कानून नहीं बना सकता, इसे ‘हाइजैकिंग ऑफ़ पावर’

जस्टिस सोधी कहते हैं, “सुप्रीम कोर्ट खुद के लिए कानून नहीं बना सकता, इसे ‘हाइजैकिंग ऑफ़ पावर’ कहते हैं जो सुप्रीम कोर्ट को नहीं करना चाहिए था लेकिन उन्होंने किया। आपने फ़ैसले सुनाए और वो अधिकार अपने पास रख लिए जो आपके पास नहीं, संसद के पास होने चाहिए. मेरा मानना है कि संविधान में कहा गया है कि राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति करेगा और सीजेआई से हर पहलू पर चर्चा होगी. लेकिन राष्ट्रपति संसद का मुखिया होता है और वह मंत्रिमंडल की सलाह पर ही काम करता है, ऐसे में सीजेआई को सुपीरियर कैसे बनाया जा सकता है?”

संविधान में जजों की नियुक्ति को लेकर क्या कहा गया?

संविधान में इसका कुछ विवरण दिया गया है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति कैसे हो। इसके अनुसार, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के वरिष्ठ जजों से विचार-विमर्श करके ही राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति करेंगे। संविधान का अनुच्छेद 217 कहता है कि राष्ट्रपति हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया, राज्य के राज्यपाल और हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस से विचार-विमर्श करके निर्णय करेंगे।

कैसी पड़ी कॉलेजियम की बुनियाद

पहला केस 1981 का है जिसे एसपी गुप्ता केस नाम से भी जाना जाता है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जजों की नियुक्ति के लिए चीफ़ जस्टिस के पास एकाधिकार नहीं होना चाहिए और इस बात की ओर इशारा किया गया कि इसमें सरकार की भी भूमिका होनी चाहिए।

1993 में दूसरे केस में नौ जजों की एक बेंच ने कहा कि जजों की नियुक्तियों में चीफ़ जस्टिस की राय को बाकी लोगों की राय के ऊपर तरजीह दी जाए।

और फिर 1998 में तीसरे केस में सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम का आकार बड़ा करते हुए इसे पांच जजों का एक समूह बना दिया।

कॉलेजियम सिस्टम से परिवारवाद और ‘अंकल कल्चर’ पनपा

बीते लंबे वक़्त से यह बहस समय-समय पर उठती रहती है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जज चुने जाने की प्रक्रिया में भयंकर भाई-भतीजावाद है जिसे न्यायपालिका में ‘अंकल कल्चर’ कहते है, यानी ऐसे लोगों को जज चुने जाने की संभावना ज़्यादा होती है जिनकी जान-पहचान के लोग पहले से ही न्यायपालिका में ऊंचे पदों पर हैं।

कॉलेजियम भारत के चीफ़ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों का एक समूह है। ये पांच लोग मिलकर तय करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट में कौन जज होगा। ये नियुक्तियां हाई कोर्ट से की जाती हैं और सीधे तौर पर भी किसी अनुभवी वकील को भी हाई कोर्ट का जज नियुक्त किया जा सकता है।

हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति भी कॉलेजियम की सलाह से होती है जिसमें सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस, हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस और राज्य के राज्यपाल शामिल होते हैं।

कॉलेजियम बहुत पुराना सिस्टम नहीं है और इसके अस्तित्व में आने के लिए सुप्रीम कोर्ट के तीन फ़ैसले ज़िम्मेदार हैं जिन्हें ‘जजेस केस’ के नाम से जाना जाता है।

कॉलेजियम सिस्टम में खामियों के प्रमुख बिंदू-

1. कॉलेजियम सिस्टम संविधान की व्यवस्थाओं के खिलाफ है क्योंकि जजों की नियुक्ति जजों का नहीं, सरकार का काम है. जजों द्वारा जजों की नियुक्ति का सिस्टम दुनिया में कहीं और नहीं है।

2. कॉलेजियम सिस्टम के कारण जजों के बीच आपसी पॉलिटिक्स होती है और जज फैसला लिखने से ज्यादा ध्यान इस बात पर लगाते हैं कि कौन जज बने. इस वजह से जजों के बीच गुटबाजी होती है और नियुक्तियों में देरी होती है।

3. इस सिस्टम में भाई-भतीजावाद है क्योंकि ज्यादातर जज अपने रिश्तेदारों और जान-पहचान वालों की ही सिफारिश जज बनाने के लिए करते हैं।

4. कॉलेजियम सिस्टम आने से पहले यानी 1993 से पहले जो व्यवस्था थी, उससे बेहतर जज बन रहे थे और विवाद भी कम होता था।

सर्वोच्च न्यायालय में परिवारवाद 

देश की न्यायपालिका में एक तिहाई से अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय उनके पिता, चाचा या अन्य कोई रिश्तेदार न्यायापालिका के उच्च पदों पर रहा या राजनीति में रहा। ऐसा कहने का मतलब यह है कि न्यायपालिका में भी अधिकांश उन्हीं लोगों को प्रवेश मिलता है जिनके परिवार का कोई न कोई व्यक्ति न्यायपलिका या राजनीति में रहा हो। आइए सबसे पहले देश की सर्वोच्च न्यायालय के कुल उन 12 न्यायाधीशों के उन रिश्तेदारों की लिस्ट बताते हैं जो इनकी नियुक्ति के समय न्यायपालिका या राजनीति के शिखर पर थे-

न्यायाधीश का नाम रिश्तेदार का नाम
न्यायमूर्ति रंजन गोगोई असम के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता केशब चंद्र गोगोई के पुत्र
न्यायमूर्ति मदन लोकुर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश बी एन लोकुर के पुत्र
न्यायमूर्ति अर्जन कुमार सीकरी भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश सर्व मित्र सीकरी के पुत्र
न्यायमूर्ति शरद अरविंद बोडे महाराष्ट्र के पूर्व एडवोकेट जनरल अरविंद बोडे के पुत्र
न्यायमूर्ति अरुण कुमार मिश्रा मध्यप्रदेश के पूर्व न्यायाधीश हरगोविंद मिश्रा के पुत्र
न्यायमूर्ति रोहिंटन फाली नरीमन सर्वोच्च न्यायालय के जाने माने वकील फाली नरीमन के पुत्र
न्यायमूर्ति उदय ललित दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश यू ललित के पुत्र
न्यायमूर्ति धनंनजय चंद्रचूर्ण भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश वाई वी चंद्रचूड़ के पुत्र
न्यायमूर्ति संजय किशन कौल जम्मू कश्मीर के पूर्व मंत्री राजा सूरज किशन कौल के पोते
न्यायमूर्ति इंदू मल्होत्रा सर्वोच्च न्यायालय के वकील ओ पी मल्होत्रा के पुत्री
न्यायमूर्ति के एम जोसेफ सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश के के मैथ्यू के पुत्र

उच्च न्यायालयों में परिवारवाद

उच्च न्यायालयों में न्यायधीशों की नियुक्ति के लिए विभिन्न उच्च न्यायालयों के कॉलेजियम किस तरह से नियुक्ति करते हैं, इसका एक नमूना देखिए। वर्ष 2018 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने जिन वकीलों के नाम भेजे उनमें से आधे से अधिक व्यक्तियों के रिश्तेदार राजनीति या न्यायपालिका के ऊंचे पदों पर थे। यही हाल देश के अन्य उच्च न्यायालयों का भी है।

अपनों को ही आगे बढ़ने का मौका
सर्वोच्च न्यायालय से लेकर उच्च न्यायालयों तक रिश्तेदारों के नामों को न्यायाधीश पद पर नियुक्त करने के लिए चयन तो किया जाता ही है बल्कि न्यायाधीश अपने रिश्तेदार वकीलों को अपनी ही कोर्ट में मुकद्दमा करने का मौका देते हैं। आपको साल 2014 की पंजाब हरियाणा की वह लिस्ट दिखाते हैं जब कांग्रेस का राज देश में होता था।

न्यायपालिका को अपने मुताबिक चलाया कांग्रेस ने

कांग्रेस पार्टी ने अपने फायदे के लिए न्यायपालिका की स्वतंत्रता से भी खिलवाड़ किया है। अतीत पर नजर डालें तो कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकारों ने हर मौके पर सर्वोच्च न्यायालय के इस अधिकार को कमजोर करने का प्रयास किया है। नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी तक सभी ने जब मौका मिला सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा को ठेस पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का प्रयास-
• पहली बार प्रयास उस समय किया जब सर्वोच्च न्यायलय के प्रमुख न्यायधीश हरीलाल कानिया की मृत्यु 6 नवंबर 1951 को पद पर रहते ही हो गई, और उस समय सर्वोच्च न्यायलय के सबसे वरिष्ठ न्यायधीश पंतजलि शास्त्री को प्रधानमंत्री नेहरू मुख्य न्यायधीश नहीं बनाना चहते थे। इस बात का पता चलते ही, सर्वोच्च न्यायलय के सभी वरिष्ठ न्यायधीशों ने ऐसा किए जाने पर प्रधानमंत्री नेहरू को इस्तीफा देने की धमकी दी तब पंतजलि शास्त्री को मुख्य न्यायधीश बनाया गया।
• दूसरी बार प्रयास नेहरू ने उस समय किया जब मुख्य न्यायाधीश पंतजलि शास्त्री 3 जनवरी 1954 को रिटायर होने वाले थे । न्यायाधीश शास्त्री के बाद न्यायाधीश मेहर चंद महाजन सर्वोच्च न्यायलय में वरिष्ठ न्यायाधीश थे, लेकिन प्रधामंत्री नेहरू चाहते थे कि महाजन के बाद के वरिष्ठ न्यायाधीश बिजन कुमार मुखर्जी मुख्य न्यायाधीश बनें। प्रधानमंत्री नेहरु ने मुखर्जी से मुख्य न्यायाधीश बनने का कई बार आग्रह किया लेकिन आखिर में न्यायाधीश मुखर्जी को प्रधानमंत्री नेहरू को जवाब देना पड़ा कि अगर वह अधिक दबाब डालेंगे तो उन्हें इस्तीफा देना पड़ेगा। आखिर में मेहर चंद महाजन को मुख्य न्यायाधीश बनाना पड़ा।

इंदिरा गांधी का प्रयास प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, कई बार अपने मनमाफिक सर्वोच्च न्यायलय के न्यायाधीश की नियुक्ति करने में असमर्थ रहे थे, लेकिन उनकी बेटी और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ऐसा करने में सफल रहीं। उन्होंने अपने मनमाफिक सर्वोच्च न्यायलय के न्यायाधीशों और मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्तियां कीं। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कई बार सर्वोच्च न्यायलय की स्वतंत्रता का हनन किया-
• पहली बार प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी मनपसंद के न्यायाधीश ए एन रे को सर्वोच्च न्यायलय का मुख्य न्यायाधीश बनाया। ए एन रे उन 13 न्यायाधीशों की संविधानपीठ के सदस्य थे, जिसने केशवानंद भारती मामले में 24 अप्रैल 1973 को संसद को संविधान संशोधन करने की शक्ति वापस की थी। इस मामले में निर्णय आने के ठीक एक दिन बाद ए एन रे को तीन वरिष्ठ न्यायधीशों को नजरदांज करते हुए मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया।
• दूसरी बार प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान 29 जनवरी 1977 को न्यायाधीश एम.एच.बेग को वरिष्ठ न्यायाधीश एच आर खन्ना को नजरदांज करके मुख्य न्यायाधीश बनाया। प्रधामंत्री इंदिरा गांधी के इस कदम के बाद न्यायाधीश खन्ना ने इस्तीफा दे दिया।
• इंदिरा गांधी ने न्यायाधीश एच आर खन्ना को इसलिए यह सजा दी कि उन्होंने जबलपुर एडीएम के मामले में 28 अप्रैल 1976 को यह फैसला दिया था कि आपातकाल के दौरान भी नागरिकों के मौलिक अधिकार खत्म नहीं किए जा सकते हैं। मुख्य न्यायाधीश ए एन रे, एम एच बेग, वाई वी चंद्रचूड़ और पी एन भगवती ने कहा कि आपातकाल के दौरान नागरिकों के अधिकार भी समाप्त हो जाते हैं। सर्वोच्च न्यायलय के इस निर्णय के बल पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान जबरदस्त मनमानी की

राजीव गांधी का प्रयास– प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने ने भी अपने प्रचंड बहुमत का उपयोग करते हुए, सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय को पलट दिया।
• अप्रैल 1985 में सर्वोच्च न्यायलय ने शाहबानो मामले में निर्णय दिया कि तलाक के बाद मुस्लिम महिला को अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता मिलना, महिला का अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय को मुस्लिम वोट बैंक के दबाब में आकर 1986 में कानून बनाकर पलट दिया गया।
• राजीव गांधी की सरकार के दौरान एडीएम जबलपुर मामले में इंदिरा गांधी सरकार के हक में फैसला देने वाले तीनों न्यायाधीश एम एच बेग, वाई वी चंद्रचूड और पी एन भगवती ही मुख्य न्यायाधीश बने।
6 अक्टूबर 1993 में Second Judges मामले में आए फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायाधीशों के नियुक्ति और स्थानांतरण की सभी शक्तियां एक कॉलेजियम के हाथों में दे दी।इस देश में, सर्वोच्च न्यायालय के अधिकारों के साथ खिलवाड़ करने का काम सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस की सरकारों ने किया है, जिसका बुरा प्रभाव आज तक देश भुगत रहा है।

Leave a Reply