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मोदी विरोध का गंदा खेल: लाशों में से भी जाति-धर्म ढूंढ निकालते हैं ‘सेक्युलर’

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जब से देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार बनी है, कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी दिनरात स्वयं को सेक्युलर साबित करने के तिकड़म में लगे रहते हैं। इसके लिए उन्होंने पीड़ितों की लाश से उनकी जाति या धर्म को ढूंढ निकालने को अपना पेशा बना लिया है। जैसे ही उन्हें पता चलता है कि हिंसा में मारा गया व्यक्ति मुस्लिम है, वो दोनों हाथों से छाती पीटना शुरू कर देते हैं। कई बार दलितों के मामले में भी यही खेल खेला जाता है। लेकिन जैसे ही कोई पीड़ित हिंदू निकल जाता है या फिर हत्यारे मुस्लिम निकल आते हैं तब उनकी सारी ‘सेक्युलराई’ (Secularism) धरी की धरी रह जाती है। इन्होंने तो ऐसे मौकों पर अपने नाम को सुर्खियों में लाने का धंधा बना लिया है। ऐसे दोहरे चरित्र वाले कथित Secularist किसी आतंकवादी से कम खतरनाक नहीं हैं। आतंकी तो एक बार नरसंहार करके चले जाते हैं, लेकिन ये सेक्युलर जो मानसिक नरसंहार करते हैं, उससे आने वाली पीढ़ियों तक की सोच क्षतिग्रस्त हो जाती है।

दोमुंहा Secularism
पिछले हफ्ते देश के दो हिस्सों में हुई दो जघन्य वारदातों से हर व्यक्ति के रोंगटे खड़े हो गए थे। पहली घटना 22 जून को दिल्ली से सटे हरियाणा के बल्लभगढ़ में ट्रेन में घटी। इसमें चार भाइयों के साथ कुछ बदमाश सीट को लेकर भिड़ गए। आखिरकार हमलावरों ने जुनैद खान नाम के लड़के पर चाकुओं से हमला कर दिया जिसमें उसकी मौत हो गई। उसके ठीक अगले ही दिन रात में श्रीनगर के जामा मस्जिद में ड्यूटी पर तैनात डीएसपी मोहम्मद अयूब पंडित को नमाज पढ़कर उठे लोगों ने पत्थरों और रॉड से पीट-पीट कर मार डाला। मस्जिद की सुरक्षा में तैनात उस पुलिस अफसर को नमाजियों ने इसीलिए निशाना बनाया क्योंकि उनकी वर्दी पर उनका टाइटल पंडित लिखा हुआ था।

जुनैद खान की निर्मम हत्या को बीफ से जोड़ दिया
अब तक की पड़ताल से साफ है कि बल्लभगढ़ की वारदात में कुछ गिने-चुने अपराधियों का हाथ था। ये इलाका वैसे भी कुख्यात अपराधियों का गढ़ माना जाता रहा है। छोटी-छोटी बात पर किसी को ट्रेन से फेंक देने की घटनाएं अक्सर समाचार पत्रों में देखी जा सकती हैं। लेकिन पीड़ित युवक जुनैद खान एक मुसलमान था और उसकी हत्या ईद से पहले हुई इसीलिए ‘सेक्युलरों’ ने उसे धार्मिक रंग देकर माहौल बिगाड़ने का खेल शुरू कर दिया। कुछ आततायी बुद्धिजीवियों ने इसमें ‘बीफ’ की छौंक लगाकर उसी तरह छाती पीटना शुरू कर दिया, जैसे दादरी की घटना को बहुत ही साजिशपूर्ण तरीके से सांप्रदायिक रंग दिया गया था।

नमाजियों ने डीएसपी पंडित को मारा तो चुप्पी क्यों ?
श्रीनगर में पवित्र रमजान के दौरान जामा मस्जिद के बाहर सुरक्षा में लगे डीएसपी मोहम्मद अयूब पंडित को इसीलिए बेरहमी से मार डाला गया, क्योंकि वहां मौजूद हिंसक भीड़ ने उनकी टाइटल की वजह से उन्हें हिंदू समझ लिया था। कोई भी समझ सकता है कि बल्लभगढ़ और श्रीनगर की दोनों वारदातों में से धर्म के नाम पर भीड़ द्वारा कत्ल कर दिए जाने का मामला कौन सा है ? कोई सोच सकता है कि अपनी ड्यूटी निभा रहे एक पुलिस अधिकारी की निर्मम हत्या पर तथाकथित सेक्युलर मौन क्यों हैं ? क्योंकि इसमें देश के दुश्मनों को फायदा नहीं है। वो तभी आवाज उठाते हैं, जब दुनिया में देश की बदनामी होती है। अगर ऐसी वारदात किसी मंदिर के बाहर हो गई होती तो सेक्युलर इसी तरह चुप्पी साध लेते?

डॉक्टर पंकज नारंग केस में ही खुल चुकी थी पोल
पिछले साल की ही बात है। राजधानी के विकासपुरी में एक डेंटिस्ट डॉक्टर पंकज नारंग को एक उग्र भीड़ ने उनके 8 साल के बेटे और पत्नी के सामने पीट-पीट कर मार डाला था। डॉक्टर साहब की गलती ये थी कि उन्होंने स्कूटी सवार दो युवकों को ठीक से ड्राइविंग करने की नसीहत दी थी। दरअसल नारंग का बेटा उस स्कूटी से तब बाल-बाल बच गया था जब वो क्रिकेट का बॉल पकड़ने के लिए सर्विस रोड पर निकला था। डॉक्टर नारंग परिवार वालों के साथ बांग्लादेश से भारत की क्रिकेट में जीत और होली से पहले की रात की जश्न मना रहे थे। उन्हें क्या पता था कि मामूली सी बात पर स्कूटी सवार इतने भड़क जाएंगे कि उनकी हत्या ही कर दी जाएगी। थोड़ी ही देर बाद वो लोग भारी संख्या में रॉड और हथियारों के साथ जुटे और डॉक्टर नारंग का बेरहमी से कत्ल कर दिया। मुख्य आरोपी समेत हमलावरों में अधिकतर लोग मुस्लिम थे, इसीलिए न तो किसी बुद्धिजीवी ने मुंह खोला और न ही किसी सेक्युलर मीडिया ने छाती पीटना शुरू किया। चंद महीने पहले ही दादरी कांड पर मातम मनाने वाले अवॉर्ड वापसी गैंग ने भी आपराधिक चुप्पी साधे रखने में ही भलाई समझी। सवाल फिर से वही उठता है कि ये सेक्युलर हिंसा की हर वारदात को सांप्रदायिक नफा-नुकसान के आधार पर ही क्यों तौलते हैं ?

घटनाओं को चुनकर ही हाय-तौबा मचाते हैं
उत्तरप्रदेश में पिछली सरकार के दौरान आपराधिक पशु तस्करों के द्वारा जघन्य वारदातों की कई घटनाओं को अंजाम दिया गया था। जैसे जौनपुर में पशु तस्करों ने एक दारोगा को इसीलिए अपने वाहन से कुचलकर मार डाला था, क्योंकि उन्होंने उन्हें रोकने की हिम्मत दिखाई थी। इसी तरह रामपुर में एक पुलिस चौकी से गाय ले जा रहे एक चौकीदार दाताराम यादव का पशु तस्कर जाकिर और इफ्तखार ने ईंटों-पत्थरों से मार-मार कर कत्ल कर दिया था। लेकिन न तो तब राज्य की तत्कालीन ‘सेक्युलर’ सरकार ने उसकी सुध ली और न ही दिल्ली में बैठे कथित बुद्धिजीवियों ने। वजह सिर्फ एक ही थी कि इन सारे मामलों में पीड़ित हिंदू और हत्यारे मुस्लिम थे। यही नहीं, तब वहां पर सरकार भी बीजेपी की नहीं थी और न ही रामपुर और जौनपुर दिल्ली से सटा हुआ है, जिससे कि उसे मोदी सरकार से जोड़ने का कोई बहाना मिलता।

केरल में अन्याय पर कुछ नहीं बोलते सेक्युलर
हाल के कुछ वर्षों में केरल में अनगिनत हिंदू एक्टिविस्ट की निर्मम हत्याएं की गई हैं। अधिकतर केस में हत्यारे जघन्यता की सारी सीमाएं लांघते रहे हैं। लेकिन आज तक किसी ‘सेक्युलर’ ने एक शब्द नहीं कहा। क्योंकि, वहां मारे जाने वाले सारे लोग हिंदू हैं। जबकि हत्यारे या तो गैर-हिंदू हैं या फिर वो सत्ताधारी पार्टियों के पोषित गुंडे हैं। केरल में सरकार भी बीजेपी विरोधी वामपंथियों की है। इसीलिए न तो किसी बुद्धिजीवी को परेशानी है और न ही मीडिया के दोहरे चरित्र वाले पत्रकारों को। वो कभी इन मामलों को नहीं उठाते। उन्हें तो सामान्य से सामान्य आपराधिक वारदातों को भी सांप्रदायिकता से जोड़ना है, जिसमें पीड़ित मुस्लिम और हमलावर हिंदू हों। अगर सीन इसके विपरीत है, तो ‘सेक्युलरों’ की अंतरात्मा नहीं कराहती। उनकी रोजी-रोटी तो तभी चलेगी जब वो ये दिखा सकेंगे कि भारत में हिंदू अत्याचारी हैं और मुस्लिमों पर अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं।

Secular चश्मे को जनता भी जानती है
जब कोई मीडिया देश की जमीनी हालात पर वस्तुस्थिति दिखाने की कोशिश भी करता है, तो इन सेक्युलरों का अंदाज फिर से बदल जाता है। जैसे लव जिहाद या ट्रिपल तलाक और हलाला का मुद्दा उठता है तो तथाकथित हिंदू विरोधी बुद्धिजीवी इसे सिरे से खारिज करने में जुट जाते हैं। यही नहीं अगर कभी किसी मीडिया हाऊस ने हिंदुओं का नाम लेकर सच्चाई बताई तो उसे तत्काल मुस्लिम विरोधी ठहराने में भी देर नहीं की जाती ।

सेक्युलरों की इस दोहरी मानसिकता का सिर्फ एक ही मकसद है, कैसे मोदी सरकार को बदनाम करें ताकि दुनिया में भारत की छवि पर बट्टा लग जाए। अगर उन्होंने ऐसा करना बंद कर दिया तो शायद उनकी दुकान भी बंद हो जाएगी, जिसके माध्यम से अधिकांश राष्ट्रविरोधी अबतक फलते-फूलते आए हैं।

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