Home विचार वंशवाद की ‘पौध’ को बचाने की कवायद है कर्नाटक का ‘नाटक’!

वंशवाद की ‘पौध’ को बचाने की कवायद है कर्नाटक का ‘नाटक’!

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कर्नाटक की जनता द्वारा रिजेक्ट किए जाने के बाद भी कांग्रेस हर कीमत पर सत्ता चाहती है। पहले तो अपने विधायकों को कैद कर लिया, फिर जेडीएस के विधायकों को खरीद लिया। अंत में साजिश रचकर येदियुरप्पा की सरकार को गिरा भी दिया। बहरहाल अब सवाल उठ रहा है कि सत्ता गंवाने के बाद भी कांग्रेस आखिर इतना दम क्यों भरती रही? दरअसल इसके पीछे कांग्रेस कुछ छिपाने की कवायद करती रही। कांग्रेस यह बताने से भाग रही है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी को एक और पराजय का सामना करना पड़ा।

लगातार हार से ध्यान भटकाने की एक और कोशिश
जिस राहुल गांधी के भरोसे पार्टी देश की सत्ता में वापसी की उम्मीद कर रही है, वह बेहद कमजोर है। राहुल गांधी का रिकॉर्ड तो ये है कि अब तक उनके नेतृत्व में जितने भी चुनाव लड़े गए उनमें कांग्रेस हारती ही चली आ रही है। कर्नाटक में भाजपा बहुमत साबित करने में भले ही कामयाब नहीं हो पाई, लेकिन कांग्रेस के हाथ से भी सत्ता जाती रही है। जाहिर है हार की फजीहत से निकलने के लिए आतुर कांग्रेस ने तमाम तिकड़म किए और जनता के सामने यह साबित करने की कोशिश की कि वे हार से हताश नहीं  हैं।

राहुल के विरुद्ध बढ़ते असंतोष को दबाने का प्रयास
कांग्रेस के भीतर भी राहुल गांधी के नेतृत्व पर विवाद है। चीफ जस्टिस के विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव के समय जब पूर्व पीएम मनमोहन सिंह, सलमान खुर्शीद, अश्वनी कुमार, वीरप्पा मोइली और पी चिदंबरम जैसे दिग्गज कांग्रेसियों ने साथ नहीं दिया। दिग्गज नेताओं में राहुल गांधी के प्रति नाराजगी बढ़ती जा रही है। दरअसल राहुल गांधी कई ऐसी रणनीतिक चूक करते जा रहे हैं जिससे पार्टी और कमजोर होती चली जा रही है। पार्टी के 133वें अधिवेशन में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने राहुल से नाराजगी के कारण ही पार्टी कार्यकर्ताओं के संबोधित करने से इनकार कर दिया था।

राहुल के नेतृत्व के लिए विपक्ष को संदेश देने की कवायद
राहुल गांधी के नेतृत्व को कांग्रेस के सहयोगी दल भी मानने से इनकार कर रहे हैं। शायद एक वजह यह भी है कि खुद को सक्रिय दिखाकर यह साबित करने में लगे हैं कि वे नेतृत्व की क्षमता रखते हैं। दरअसल तीसरे मोर्चे के गठन की संभावनाओं के बीच वे संदेश देना चाह रहे हैं कि वे कम नहीं हैं। हालांकि राहुल की स्वीकार्यता तो उनकी पार्टी में ही नहीं है। गौरतलब है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया नहीं चाहते थे कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कर्नाटक में गुजरात की तरह प्रचार करें। हालांकि हाईकमान ने उनकी बात नहीं मानी, जिसका परिणाम यह रहा कि राहुल की कमान संभालने के कारण पार्टी ने कर्नाटक की सत्ता भी गंवा दी।

परिवारवाद के ‘दंभ’ को पुनर्स्थापित करने का तिकड़म
08 मई को कर्नाटक में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पहली बार खुद को पीएम पद का दावेदार बताया। उन्होंने कहा कि अगर हम 2019 का चुनाव जीते तो मैं पीएम बन सकता हूं। जाहिर है राहुल गांधी के मन में प्रधानमंत्री बनने के सपने पल रहे हैं। दरअसल यह लोकतंत्र को ठेंगा दिखाने वाला बयान है। इसी बयान की परिणति आप कर्नाटक की राजनीति में देख सकते हैं। जहां जनता के चुने हुए नेता येदियुरप्पा को सत्ता से बेदखल कर दिया गया और वंशवाद के पोषक राहुल गांधी ने परिवारवाद की पूंछ पकड़े कुमारस्वामी को सीएम बनाने की राह आसान कर दी। दरअसल यह वह अहंकार है जो लोकतंत्र को धता बताते हुए वंशवाद की अमरबेल के सहारे सत्ता के शीर्ष को पाना चाहता है। यह वह घमंड है जो लोकतकांत्रिक मर्यादाओं को कलंकित कर उस पर कालिख भी पोतने का काम करता है। यह वह गुमान है जो योग्यता को दरकिनार कर उच्च कुल में जन्म होने के आसरे उच्च आसन पाने की ही आकांक्षा पाले रहता है।

राहुल गांधी ने जहां-जहां किया प्रचार, वहां मिली हार
एक के बाद एक चुनावों में लगातार हार राहुल गांधी के नेतृत्व क्षमता और राजनीतिक समझ पर सवालिया निशान खड़े कर रही है। 2012 में यूपी और पंजाब में हार मिली तो 2014 लोकसभा चुनाव में सिर्फ 44 सीटों सिमट गई। इसी साल महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर में भी करारी हार मिली। 2015 में दिल्ली में एक भी सीट नहीं मिली, जबकि 2016 में असम के साथ केरल और पश्चिम बंगाल में हार का मुंह देखना पड़ा। 2017 में गुजरात, हिमाचल प्रदेश के साथ उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में कांग्रेस को भारी हार मिली। पंजाब में जीत कैप्टन अमरिंदर सिंह की विश्वसनीयता और मेहनत की हुई। गोवा और मणिपुर में कांग्रेस सरकार बनाने में नाकाम रही। दिसंबर, 2017 कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद 2018 में त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय में हुए चुनावों में भी कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा, और अब कर्नाटक में भी दूसरे नंबर की पार्टी बन गई।

जय-पराजय से परे लगातार हार पर चिंतन आवश्यक
दरअसल राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की एक और हार है कर्नाटक, जिसे छिपाने के लिए कांग्रेस तरह-तरह के हथकंडे अपना रही है। गौरतलब है कि एक कुशल और परिपक्व राजनीतिक दल का यह कर्तव्य है कि वह अपनी हर जय-पराजय का मूल्यांकन करें, अपनी खामियों को समझे और खासियत को संवारे, लेकिन अपरिपक्व अध्यक्ष के रहते कांग्रेस से परिपक्वता की उम्मीद करना बेमानी होगी।

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