वामपंथ के कुशासन से मुक्ति के लिए पश्चिम बंगाल की जनता ने ममता बनर्जी को चुना था। मां, माटी और मानुष के नारे के बीच उम्मीद थी कि प्रदेश में लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी, लेकिन प्रदेश के लोग आज ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। राजनीतिक हिंसा के क्षेत्र में ममता बनर्जी के शासन ने कम्युनिस्ट शासन की हिंसक विरासत को भी पीछे छोड़ दिया है। सबसे खाय यह कि जिस ‘लोकतंत्र खतरे में है’ गैंग को केंद्र सरकार और बीजेपी की राज्य सरकारों में हर रोज लोकतंत्र खतरे में दिखाई देता है, वो गैंग पश्चिम बंगाल पर एक भी शब्द बोलने को तैयार नहीं है।
शुक्रवार, एक जून को पश्चिम बंगाल के बलरामपुर में 32 साल के दुलाल कुमार को सिर्फ इसलिए मार दिया गया कि वह भारतीय जनता पार्टी से जुड़े हुए थे। इस कार्यकर्ता की हत्या की आशंका पश्चिम बंगाल बीजेपी के प्रभारी कैलाश विजय वर्गीय ने खुद एडीजी लॉ एंड ऑर्डर अनुज शर्मा से व्यक्त की थी। बावजूद इसके दुलाल की हत्या न सिर्फ पुलिस प्रशासन की नीयत पर सवाल खड़े कर रहा है बल्कि ममता राज में हर रोज हो रही लोकतंत्र की हत्या पर सत्ताधारी दल की सहमति की गवाही दे रहा है।
दरअसल पंचायत चुनाव के बाद पश्चिम बंगाल में भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्याओं का सिलसिला चल पड़ा है। बीते एक महीने में ही 19 कार्यकर्ताओं की सरेआम हत्या कर दी गई है। न सिर्फ सरेआम मारा जा रहा है बल्कि मार कर लटका भी दिया जा रहा है। तालिबानी शासन शैली में किए जा रहे इस कृत्य के पीछे का उद्देश्य सिर्फ और सिर्प यही है कि पूरे प्रदेश में यह संदेश जाए कि बीजेपी को समर्थन किया तो यही हश्र होगा।
दो दिन पहले भी ममता राज में पेड़ पर लटकाया गया था लोकतंत्र
29 मई को पुरुलिया के ही जंगल में 18 साल के त्रिलोचन महतो की हत्या कर शव को एक पेड़ से लटका दिया गया था। गौरतलब है कि दलित बिरादरी से आने वाले त्रिलोचन के पिता हरिराम महतो उर्फ पानो महतो भी भाजपा से जुड़े हैं, इसलिए उसने पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव में जी-तोड़ मेहनत की थी। उसकी मेहनत के कारण बलरामपुर ब्लॉक की सभी सातों सीटों पर भाजपा को जीत मिली थी। जाहिर है यही सक्रियता उनके लिए जानलेवा साबित हुई और उन्हें सरेआम फांसी पर लटका दिया गया। त्रिलोचन ने जो टी-शर्ट पहनी थी, उसपर एक पोस्टर चिपका मिला जिसपर लिखा था कि बीजेपी के लिए काम करने वालों का यही अंजाम होगा।
भाजपा समर्थक महिला को निर्वस्त्र करने की कोशिश
बीते अप्रैल महीने में 24 परगना जिले में तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने भाजपा की महिला कार्यकर्ता की सरेआम पिटाई की। महिला प्रत्याशी पर उस समय हमला हुआ जब वह बारुईपुर एसडीओ ऑफिस में नामांकन दाखिल करने पहुंची। टीएमसी कार्यकर्ताओं ने महिला को सड़क पर पटक कर मारा और उसके साथ बदसलूकी की। उसे निर्वस्त्र तक करने की कोशिश की गई। हैरानी की बात है कि महिला कार्यकर्ता की मदद के लिए कोई आगे नहीं आया लोग वहां खड़े तमाशा देखते रहे।
लेफ्ट के दो पार्टी कार्यकर्ताओं को टीएमसी सपोर्टर्स ने जिंदा जलाया
पंचायत चुनाव के दौरान बंगाल के रायगंज में तैनात चुनाव अधिकारी राजकुमार रॉय की हत्या इसलिए कर दी गई कि उसने निष्पक्ष चुनाव करवाने की कोशिश की। इसी तरह उत्तर 24 परगना में पंचायत चुनाव के दौरान ही सीपीएम के एक कार्यकर्ता के घर में आग लगी दी गई। इसमें कार्यकर्ता और उसकी पत्नी इसमें जिंदा जल गई। सीपीएम ने आरोप लगया कि इसमें टीएमसी का हाथ है।
पंचायत चुनाव में ममता की पार्टी ने लोकतंत्र का किया था अपहरण
पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव में टीएमसी ने बिना एक वोट डाले ही 34.2 प्रतिशत सीटें जीत लीं। ऐसा इसलिए हुआ कि इन सभी ग्रामीण सीटों पर टीएमसी यानि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की दहशत के सामने कोई दूसरी पार्टी उम्मीदवार ही नहीं खड़ा कर पाई। जाहिर है राजनीतिक प्रतिशोध में मारपीट, हत्या, बलात्कार का दूसरा नाम बन चुके बंगाल में दूसरी पार्टी का कोई उम्मीदवार चुनाव लड़ने का साहस ही नहीं जुटा सका। बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि पश्चिम बंगाल में जो रहा है वह लोकतांत्रिक मर्यादाओं के अनुकूल नहीं है।
Hv u wondrd why parties n leaders like @INCIndia n @RahulGandhi @MamataOfficial alwys complain abt EVMs ?
Ans: Because EVMs dont allow u to do this kind of large scale vote rigging thts the “normal” in #WestBengal ??? pic.twitter.com/8PLHy03DoV
— Rajeev Chandrasekhar (@rajeev_mp) 16 May 2018
मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवियों के ‘दोगलेपन’ वाली खामोशी को समझना जरूरी है!
ममता राज में भाजपा समर्थकों की सरेआम हत्या की जा रही है, लेकिन देश की मीडिया खामोश है। खुलेआम आतंक फैलाया जा रहा है, लेकिन तथाकथित बुद्धिजीवियों के लिए बंगाल में लोकतंत्र अभी तक ख़तरे में नहीं आया है। बीते चार साल से पूरे देश को असहिष्णु बताने वाली मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवियों के नक़्शे में शायद बंगाल नहीं है। हालांकि यह भी एक तथ्य है कि राज्य और पार्टी का नाम कुछ और होता तो दिन रात आंदोलन चलते। सवाल इन बुद्धिजीवियों और मीडिया के मठाधीशों से पूछा जाना चाहिए कि एक अखलाक की हत्या पर देश सिर पर उठाने वाले आज ज़मीन में सिर दबा कर क्यों बैठे हैं? कैसे लोग हैं ये? अख़लाक और दुलाल कुमार में क्यों फर्क करते हैं? आखिर यह खामोशी इनका यह दोगलापन नहीं तो और क्या है?