भारत में लेफ्ट अब इतिहास बनने की ओर है, त्रिपुरा में करारी हार के बाद सिर्फ केरल ही में वामदलों की सरकार बची है। आखिर क्या वजह है कि कभी देश के कई राज्यों में सरकार चलाने वाले और केंद्रीय स्तर पर राजनीति में दखल रखने वाले वामदलों की धीरे-धीरे विदाई हो रही है। इस लेख में हम इसका विश्लेषण करेंगे और बताएंगे कि लेफ्ट पार्टियों की राष्ट्र विरोधी और विकास विरोधी राजनीति की अब कोई जगह नहीं हैं।
प्रासंगिकता खोते वाम दल
लेफ्ट पार्टियां कभी देश की राजनीति के केंद्र में हुआ करती थीं, लेकिन आज इनकी प्रासंगिकता खत्म होती जा रही है। त्रिपुरा में करारी शिकस्त के बाद वामदलों के नेताओं को मुंह छिपाने की जगह नहीं मिल रही है। त्रिपुरा को लेफ्ट का सबसे बड़ा गढ़ माना जाता था और वहां 25 वर्षों से वामदलों की सरकार थी। आखिर क्या वजह है कि पहले पश्चिम बंगाल, फिर त्रिपुरा से लेफ्ट की विदाई हो गई है। पिछले 14 सालों के संसदीय चुनावों पर गौर करें तो लेफ्ट का न सिर्फ वोट शेयर लगातार गिरता जा रहा है बल्कि उसकी सीटों में भी जबरदस्त गिरावट आई है।
लेफ्ट का घटता जनाधार
लोकसभा चुनाव में मिले वोटों पर नजर डालें तो लेफ्ट का जनाधार वर्ष 2004 से 2014 तक आते आते खत्म होने के कगार पर पहुंच चुका है। जहां 2004 में लेफ्ट पार्टियों का वोट शेयर 7 प्रतिशत हुआ करता था, वो 2014 तक दस सालों में केवल 2.5 प्रतिशत पर आकर सिमट गया। इस औसत के अनुसार 2019 के लोकसभा चुनाव में लेफ्ट का वोटर शेयर 1 प्रतिशत से भी कम होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। त्रिपुरा में बीजेपी की जीत के बाद अब सिर्फ केरल में ही लेफ्ट पार्टी की सरकार बची है।
वर्ष | 2004 | 2009 | 2014 |
CPI | 10 | 04 | 01 |
CPM | 43 | 16 | 09 |
वोट शेयर (प्रतिशत में) | 7 | 4 | 2.5 |
विकास विरोधी मानसिकता !
वामदलों की हार का कारण क्या है? इनकी हार का सबसे बड़ा कारण है, इनकी राष्ट्र और विकास विरोधी मानसिकता। वामदलों की सबसे बड़ी दिक्कत है कि यह लोग समय के साथ खुद को बदलना नहीं चाहते हैं। वामदलों के नेता खुद भी कूप मंडूप बने रहना चाहते हैं और अपने समर्थकों को भी उसी दुनिया में रखना चाहते हैं। पिछले दो-तीन दशकों में दुनिया बहुत बदल गई है, जिस चीन का ये पार्टियां अनुसरण करती हैं, उसने भी अपनी नीतियों को लेकर उदारवादी रवैया अपनाया है और आर्थिक व विकास की नीतियों में दुनिया के साथ कदम मिला कर चल रहा है। भारत में वामदल यह सब करने में असफल रहे। यही वजह है कि पहले वामदलों का पश्चिम बंगाल से सफाया हुआ और अब त्रिपुरा में भी इनका बोरिया-बिस्तर बंध गया है।
जेएनयू और लेफ्ट की छात्र इकाई हार की बड़ी वजह
किसी भी पार्टी को जमीनी स्तर पर मजबूत करने में उसकी छात्र इकाई की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। त्रिपुरा और केरल के बाद अगर कहीं लेफ्ट पार्टियों का गढ़ है, तो वो है दिल्ली का जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय। जेएनयू में लेफ्ट विचारधारा को सबसे अधिक खुराक मिलती है। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से जेएनयू में लेफ्ट की छात्र इकाई के नेताओं ने राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को अंजाम दिया, भारत विरोधी नारे लगाए, और पाकिस्तान में बैठे देश के दुश्मनों का समर्थन किया, उसने पूरे देश के अलावा त्रिपुरा में बैठे भारतीयों के स्वाभिमान को चोट पहुंचाई। जेएनयू में लगाए गए भारत तेरे टुकड़े….जैसे नारों की गूंज अभी तक लोग भूले नहीं हैं। वामदलों के बड़े नेता इसे समझ नहीं पाए और मीडिया में इन बातों को लेकर मिले कवरेज को अपनी जीत समझने लगे। चुनाव के समय जब जनता की जवाब देने की बारी आई तो त्रिपुरा से वामदलों का सफाया हो गया। वामदलों की छात्र इकाई अपनी पार्टी का प्रचार करने बजाए त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और केरल में हिंसात्मक गतिविधियों में लिप्त रही है।
नक्सलियों का समर्थन
लेफ्ट पार्टियां देश के लिए नासूर बनते जा रहे नक्सवाद की सबसे बड़ी हिमायती हैं। इतना ही नहीं माओवाद इन्हीं की एक शाखा है। देश के कई राज्यों में नक्सली गतिविधियां बढ़ती जा रही हैं। जहां-जहां नक्सलियों का आतंक है, वहां न तो विकास हो पा रहा है और न ही नागरिकों को मूलभूत अधिकार मिल पा रहे हैं। इसे लेकर भी देश में भारी असंतोष है। अब अपने कुतर्कों के माध्यम से वामपंथी, नक्सली गतिविधियों को जायज नहीं ठहरा सकते हैं, क्योंकि देश की जनता इसे भलीभांति समझ चुकी है। यह भी एक वजह है कि वामदलों को अब पहले जैसा समर्थन नहीं मिल पा रहा है।
इन सबसे अलावा एक सच्चाई यह भी है कि मोदी सरकार के शासन में सबका साथ-सबका विकास के नारे के साथ देशभर में बगैर किसी भेदभाव के जो काम हो रहा है उसे भी जनता समझ रही है। वामदलों के शासन वाले राज्यों, खासकर त्रिपुरा की बात करें तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने वहां विकास की तमाम योजनाएं चलाई हैं। त्रिपुरा समेत पूरे पूर्वोत्तर को रेल, सड़क और हवाई मार्ग से जोड़ा है, साथ ही वहां के निवासियों को यह विश्वास दिलाया है कि दिल्ली मैं बैठी सरकार उन्हीं की और उनके लिए ही काम कर रही है। इस संदेश ने त्रिपुरा के लोगों को साहस दिया और आखिर में उन लोगों ने 25 साल से सरकार में बैठे वामदलों को उखाड़ फेंका।