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परिवारवादी और वंशवादी राजनीति से देश का विकास नहीं हो सकता, देश की राजनीति बदलने आए केजरीवाल ने संयोजक बने रहने के लिए पार्टी का संविधान ही बदल दिया, पार्टी को निजी कंपनी बनाने वालों से रहना होगा सावधान!

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परिवारवाद और वंशवादी राजनीति कभी देश का विकास नहीं करती बल्कि वह परिवार के विकास के साथ ही अपने निजी एजेंडे में लग जाती है। आज देश में परिवारवाद की राजनीति नेहरू-गांधी परिवार से होते हुए कई राज्यों में फैल चुकी है और यह भारतीय नागरिकों के लिए चिंता का सबब होना चाहिए। देश पर 70 सालों तक शासन करने वाले नेहरू-गांधी परिवार ने खुद को एक तरह से ‘प्रथम परिवार’ के रूप में स्थापित कर देश की राजनीति को परिवारवाद की राजनीति करने की एक गलत दिशा दी है। और अब तो यह कई राज्यों में फैल चुकी है। बिहार में लालू प्रसाद यादव से लेकर उत्तर प्रदेश में दिवंगत मुलायम सिंह यादव से होते हुए अखिलेश यादव तक और मायावती, झारखंड में शिबू सोरेन, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, जम्मू-कश्मीर में फारुक अब्दुला और महबूबा मुफ्ती, आंध्र प्रदेश में वाईएसआर रेड्डी, तेलंगाना में केसीआर, महाराष्ट्र में शरद पवार और उद्धव ठाकरे, तमिलनाडु में दिवंगत एम.करुणानिधि से होते हुए एम.के. स्टालिन तक और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल तक फैल चुकी है। केजरीवाल ने बेशक अभी अपने परिवार के किसी सदस्य को पार्टी में शामिल नहीं किया लेकिन जिस तरह 2013 से अब तक वह पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक बने हुए हैं यह इसी बात का संकेत है कि वे आम आदमी पार्टी को जेबी पार्टी बनाकर रखना चाहते हैं। केजरीवाल 2013 और 2016 में पार्टी के संयोजक बने। इसके बाद 2019 में उनका कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ा दिया गया है। पार्टी के संविधान के मुताबिक कोई भी व्यक्ति तीन-तीन साल के कार्यकाल के लिए दो बार ही पार्टी का संयोजक बन सकता है। लेकिन इसके बावजूद वह 2021 में फिर संयोजक पद पर काबिज हो गए। इसके लिए बाकयदा पार्टी के संविधान में संशोधन कर दिया गया। यह अलग बात है कि पार्टी में अंदरखाने इस बात का विरोध भी हुआ लेकिन केजरीवाल समर्थक नेताओं ने यह कुतर्क दिया कि पार्टी में अभी केजरीवाल जैसी छवि के नेता नहीं है इसीलिए उन्हें ही संयोजक बने रहना चाहिए। इन सभी नेताओं ने अपनी पार्टी को कंपनी में बदल दिया और लगातार उनका इस पर कब्जा बना रहा। देश में इस तरह बढ़ते परिवारवाद की राजनीति से आम नागरिकों को सचेत रहने की आवश्यकता है जो देश के विकास की जगह अपना विकास, अपने परिवार का विकास और अपने एजेंडे को बढ़ाने में तमाम उपक्रम करती रहती है।

केजरीवाल के अलावा कोई और AAP का संयोजक बन पाएगा?

आम आदमी पार्टी के गठन के समय जो संविधान पार्टी ने बनाया था, उसके मुताबिक़ दो बार से ज़्यादा एक व्यक्ति पार्टी का संयोजक नहीं बन सकता था। लेकिन पार्टी का संयोजक तो तीसरी बार भी केजरीवाल को ही बनना था इसीलिए पिछले साल हुए पार्टी के संविधान को बदल दिया गया। और फिर केजरीवाल को तीसरी बार संयोजक चुन लिया गया। यही नहीं पहले संयोजक का कार्यकाल तीन साल के लिए होता था अब इसे पांच साल के लिए कर दिया गया। आम आदमी पार्टी का गठन 2012 में हुआ था और तब से अब तक अरविंद केजरीवाल ही पार्टी के संयोजक बने हुए हैं। आम आदमी पार्टी के अंदर इस बात को लेकर बग़ावती सुर दिख नहीं रहा है, लेकिन ऐसा भी नहीं कि सब इस फ़ैसले से ख़ुश हों। आम आदमी पार्टी में संयोजक का पद वैसे ही है जैसा दूसरी पार्टियों में राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद। पार्टी के संयोजक पर ही पार्टी को चलाने की ज़िम्मेदारी होती है। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि केजरीवाल ही तीसरी बार पार्टी के संयोजक क्यों चुने गए। अगर उनके अलावा कोई और भी पार्टी का संयोजक बनता तो क्या अरविंद केजरीवाल की छवि या ताक़त पार्टी में कम हो जाती? केजरीवाल क्या कह कर राजनीति में आए थे और आज कर क्या रहे हैं।

आम आदमी पार्टी अपने सिद्धांतों से पूरी तरह पलट चुकी है- आशुतोष

केजरीवाल को जब तीसरी बार संयोजक चुना गया तब पार्टी के साथ पूर्व में जुड़े पत्रकार से नेता और नेता से पत्रकार बने आशुतोष ने ट्वीट कर कुछ सवाल उठाए थे। उन्होंने पूछा कि क्या अरविंद केजरीवाल की जगह नया नेशनल कन्वीनर बनता, तो उनकी ताक़त कम हो जाएगी या फिर दूसरा पार्टी क़ब्ज़ा कर लेगा? आशुतोष ने उस वक्त कहा था, “जब आंदोलन से पार्टी का जन्म हुआ, उस वक़्त इनका तीन चीज़ों पर फ़ोकस था। पार्टी के भीतर आंतरिक लोकतंत्र, हाईकमान कल्चर का विरोध और पारदर्शिता।” उन्होंने कहा, “इन तीनों बातों पर हमेशा क़ायम रहने के लिए पार्टी के संविधान में दो बातें जोड़ी थी। कोई भी व्यक्ति एक पद पर दो बार से ज़्यादा नहीं रहेगा। एक ही परिवार के लोग अलग-अलग पदों पर नहीं रहेंगे। अब पार्टी संविधान में संशोधन करके तीन साल के कार्यकाल को पांच साल के लिए बढ़ा दिया गया है। और एक पद पर दो कार्यकाल तक रहने के प्रावधान को ख़त्म कर दिया गया है। यानी पार्टी अपने शुरुआती सिद्धांतों से पूरी तरह पलट चुकी है।”

क्या आम आदमी पार्टी एक व्यक्ति पर केंद्रित नहीं हो गई?

आम आदमी पार्टी के साथ आंदोलन के समय से रहने वाले विधायक सोमनाथ भारती ने कहा कि अरविंद केजरीवाल इस पद के लिए सबसे ज़्यादा योग्य व्यक्ति हैं। वो पार्टी के भीतर सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार, समय देने वाले और पार्टी के लिए सोचने वाले नेता है। संयोजक पद पर नियुक्ति पार्टी के संविधान और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत हुई है। लेकिन ऐसा करने के पहले पार्टी के संविधान को बदलने की ज़रूरत क्यों पड़ी? इस पर सोमनाथ भारती ने कहा कि जब आप किसी नए रास्ते पर चलते हैं, तो उसके लिए कुछ नियम बनाते हैं। रास्ते में कई नई परिस्थितियां उत्पन्न होती है, उसके परिप्रेक्ष्य में पुराने नियमों में बदलाव भी लाने होते हैं. जो वक़्त की माँग है, उस हिसाब से पार्टी ने फ़ैसला किया है। लेकिन क्या इस तरह पार्टी एक व्यक्ति पर केंद्रित नहीं हो गई। इसके जवाब में सोमनाथ भारती कहते हैं- पार्टी एक आदमी पर केंद्रित होती जा रही है- ऐसा नहीं लगता है। पार्टी के साथ जुड़े सभी लोगों को अपना-अपना दायित्व मिला हुआ है। हमारे पास दायित्व ज़्यादा है और लोग कम हैं।

क्षेत्रीय राजनीतिक दलों में एक ही परिवार का वर्चस्व 

ऐसा भी नहीं है कि आम आदमी पार्टी अकेली राजनीतिक पार्टी है, जिसमें एक नेता पिछले 8 साल से सर्वोच्च पद पर बैठा हो। कांग्रेस पार्टी में भी सर्वोच्च पद गांधी परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा। समाजवादी पार्टी में भी यादव परिवार का ही वर्चस्व है, बहुजन समाज पार्टी में भी मायावती ही सत्ता के केंद्र में रहती है, इसी तरह राष्ट्रीय जनता दल में लालू यादव, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी शरद पवार और तेलंगाना राष्ट्र समिति (भारतीय राष्ट्र समिति) में केसीआर का वर्चस्व रहता आया है।

क्षेत्रीय दलों में परिवारवाद से राज्य और देश का विकास प्रभावित

जम्मू-कश्मीर में मुफ्ती और अब्दुल्ला परिवार राज्य के प्रथम-परिवार बन गए। उत्तर प्रदेश में मुलायम और मायावती परिवार, बिहार में लालू यादव परिवार। इसी तरह कर्नाटक में देवगौड़ा परिवार, महाराष्ट्र में ठाकरे एवं पवार परिवार, तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी परिवार, तेलंगाना में केसीआर परिवार, आंध्र में नायडू एवं वाइएसआर परिवार ने अपनी-अपनी पार्टियों को पारिवारिक कंपनियों में बदल दिया। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में पार्टियों में ख़त्म होता लोकतंत्र आज देश के लिए सबसे बड़ी चिंताजनक बात है। पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र न होने और परिवारवाद की वजह से भ्रष्टाचार इन पार्टियों की सरकार में चरम पर है। पश्चिम बंगाल में ममता सरकार पर नियुक्तियों के मामले में एक के बाद भ्रष्टाचार के आरोप लगते जा रहे हैं। इसी तरह बिहार में लालू यादव के शासनकाल में चारा घोटाला से लेकर तमाम घोटाले सामने आए थे। उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार के दौरान उनके छोटे भाई आनंद कुमार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। इसी तरह अब तेलंगाना में केसीआर परिवार पर तमाम तरह के आरोप लग रहे हैं।

उत्तर प्रदेश ने वंशवादी राजनीति को नकार दिया

क्षेत्रीय दलों में परिवारवाद की बात करें तो देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश ने वंशवादी राजनीति को पिछले विधानसभा चुनाव में नकार दिया था और समूचे देश के लिए एक बड़ा संकेत है। अब इसके बाद पश्चिम बंगाल की बारी है जहां भ्रष्टाचार की वजह से ममता का किला दिनों दिन ढहता जा रहा है। इससे लगता है कि अगले विधानसभा चुनाव में जनता ममता सरकार को उखाड़ फेंकेगी। वहीं बिहार में भी लोग जंगलराज और परिवारवाद त्रस्त आ चुके हैं और अगले विधानसभा चुनाव में राजद का वोट शेयर एवं सीटों की संख्या कम होने की बात कही जा रही है। पिछले विधानसभा चुनाव में राजद को 23 फीसदी जबकि भाजपा को 19.5 पर्सेंट वोट मिले हैं। इसी तरह तेलंगाना में केसीआर ने अपनी सरकार में अपने बेटे और बेटी को मंत्रालय सौंप रखा है जिसके खिलाफ भी जनता में काफी गुस्सा है।

गांधी परिवार: 2014 से लगातार पार्टी कर पराजय का सामना

देश के मौजूदा राजनीतिक हालात में कांग्रेस की स्थिति दिन प्रतिदिन खराब होती जा रही है। साल 2014 से लेकर अब तक देखें तो कांग्रेस और गांधी परिवार ने कई सियासी झटकों का सामना किया है। हालांकि, पार्टी को साल 2018 में तीन राज्यों में जीत मिल गई थी। हाल ही में 5 राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की स्थिति बदतर हुई है। यूपी चुनाव में प्रियंका गांधी वाड्रा के दम भरने के बावजूद पार्टी एक सीट पर सिमट गई। पंजाब की बात करें तो यहां भी पार्टी को आम आदमी पार्टी के हाथों बुरी तरह हार का समाना करना पड़ा। कांग्रेस की स्थिति का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि इस बार यूपी उपचुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया। दिल्ली विधानसभा उपचुनाव राजेंद्र नगर और पंजाब के संगरूर में तो पार्टी की जमानत जब्त हो गई। ये ऐसे दो राज्य हैं, जहां कभी कांग्रेस ने शासन किया है।

मुलायम परिवार: फूट से पार्टी हुई कमजोर, पार्टी को मिली लगातार हार

उत्तर प्रदेश की सियासत के दिग्गज खिलाड़ी माने जाने वाले दिवंगत मुलायम सिंह यादव का परिवार इन दिनों सियासी संकट से जूझ रहा है। यूपी के दिग्गज नेता और पिता मुलायम सिंह यादव से कमान हासिल करने के बाद अखिलेश यादव की पार्टी लगातार हार का सामना कर रही है। साल 2014, 2017, 2019 और 2022 में पार्टी लगातार पराजित हुई है। यूपी उपचुनाव में पार्टी ने आजमगढ़ और रामपुर जैसी सीटें गंवा दी। कहा गया कि अखिलेश यहां एक बार भी प्रचार के लिए नहीं पहुंचे। इसके पीछे कहीं न कहीं परिवारवाद का मुद्दा सामने आ रहा है।

मायावती परिवार: बसपा शासन में चलता था आनंद कुमार का सिक्का

बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती के भाई आनंद कुमार नोएडा में क्लर्क की नौकरी में थे। इसी बीच मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं तो आनंद कुमार पार्टी में पर्दे के पीछे सक्रिय हो गए। इसी तरह से आनंद कुमार के बेटे आकाश आनंद का नाम भी बसपा में सभी की जुबान पर आ गए। आनंद कुमार की चर्चा मायावती की राजनीति चमकने के साथ चौतरफा फैली। प्रदेश में 2007-12 के बसपा शासनकाल में आनंद का दबदबा सर्वाधिक रहा। हालांकि राजनीति से उनका सीधा सरोकार नहीं रहता था परंतु बेहिसाब धन कमाने को लेकर तमाम आरोप लगते रहते थे। दर्जनों कंपनियों में भागेदारी के साथ आनंद कुमार को बड़ी बहन मायावती का दाहिना हाथ माना जाता था। राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाए गए आनंद कुमार मायावती के छोटे भाई हैं और मायावती अपने इस भाई पर सबसे ज्यादा भरोसा करती हैं। कई मामलों में आरोपित आनंद एक समय में नोएडा प्राधिकरण में सामान्य क्लर्क हुआ करते थे। उन पर फर्जी कंपनी बनाकर करोड़ों रुपये लोन लेने और पैसे को रियल एस्टेट में निवेश कर मुनाफा कमाने का भी आरोप है। इससे पहले भी वर्ष 2017 में पहली बार बसपा उपाध्यक्ष बनने से पहले आनंद कुमार पार्टी के सार्वजनिक कार्यक्रमों से हमेशा दूर ही रहते थे। उनको न कभी पार्टी मंच पर बुलाया जाता था और न ही वह राजनीति को लेकर कोई बयान देते थे। उपाध्यक्ष पद पर नियुक्ति के बाद उन्हें मायावती के उत्तराधिकारी के तौर पर माना जाने लगा था।

बादल परिवार: सत्ता से जमानत जब्त तक

कभी एनडीए के साथ मिलकर पंजाब में शासन करने वाले बादल परिवार के नेतृत्व में शिरोमणि अकाली दल अब संकट से जूझ रहा है। परिवार और पार्टी के मुखिया प्रकाश सिंह बादल ने यहां एक दशक तक मुख्यमंत्री के तौर पर शासन किया। अब हाल ऐसे हुए कि संगरूर उपचुनाव में पार्टी अपनी जमानत भी नहीं बचा पाई। वहीं, विधानसभा चुनाव में विक्रम सिंह मजीठिया समेत कई बड़े नेताओं को हार का सामना करना पड़ा।

ठाकरे परिवार: शिवसेना में बगावत का एक कारण परिवारवाद भी बना

महाराष्ट्र के राजनीतिक संकट का एक सबक यह भी है कि आने वाले समय में परिवारवादी राजनीतिक दलों के लिए कठिनाई बढ़ने वाली है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि शिवसेना में बगावत का एक कारण उद्धव ठाकरे की ओर से बेटे आदित्य ठाकरे को अपने वरिष्ठ नेताओं से कहीं अधिक प्राथमिकता देना भी रहा। परिवारवादी पार्टियों के नेताओं का सामंतवादी रवैया और रहन-सहन दूसरी पीढ़ी आते-आते आम लोगों को खटकने लगता है। बात इतनी ही होती तो शायद गनीमत होती, लेकिन मामला उससे आगे चला गया है।

केसीआर परिवारः परिवार के पांच लोग सरकार में

तेलंगाना में केसीआर की सरकार में परिवारवाद पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टिप्पणी की थी। उसके बाद बीजेपी नेता सुशील मोदी ने कहा कि, ‘पीएम मोदी ने ‘परिवारवाद’ के बारे में बात की और केसीआर के परिवार के 4 लोग अभी सरकार में हैं। ऐसी पारिवारिक पार्टियां अपने परिवार से बाहर नहीं सोच सकतीं। उन्हें डर है कि वे सत्ता खो देंगे। 2024 के चुनाव में पीएम मोदी को कोई नहीं हटा सकता। सुशील मोदी ने कहा तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव (केसीआर) भी लालू यादव की तरह परिवारवाद और भ्रष्टाचार में डूबे हैं। उनका जनाधार खिसक रहा है। उन्होंने कहा कि तेलंगाना में हाल के विधानसभा उपचुनाव में सत्तारूढ़ टीआरएस दुब्बक और हुजूराबाद, दोनों जगह पराजित हुई। हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में जहां भाजपा 4 से 48 सीट पर पहुंच गई। वहीं, टीआरएस 99 से घट कर 56 सीटों पर रह गई। सुशील मोदी ने कहा कि केसीआर परिवार के पांच लोग मंत्री-विधायक हैं। वे अंधविश्वासी ऐसे हैं कि मुख्यमंत्री के रूप में कभी सचिवालय नहीं गए। केसीआर की सरकार में उनके बेटे केटी रामाराव, बेटी के. कविता और भतीजे शामिल हैं।

ममता परिवारः तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद से बनर्जी परिवार की संपत्ति बेहिसाब बढ़ी

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के 5 भाइयों और एक भाभी पर आय से ज्यादा संपत्ति जमा करने के आरोप हैं। कोलकाता हाईकोर्ट में लगी पिटीशन के मुताबिक 2011 में तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद से बनर्जी परिवार की संपत्ति बेहिसाब बढ़ी। हाईकोर्ट ने सभी आरोपियों को 11 नवंबर तक एफिडेविट जमा करने के आदेश दिए थे। पिटीशन में कहा गया है कि कोलकाता की हरीश चटर्जी स्ट्रीट पर ज्यादातर प्रॉपर्टी बनर्जी परिवार की हैं। ममता की भाभी कजरी बनर्जी पर कई प्रॉपर्टी मार्केट रेट से कम कीमत में खरीदने का आरोप है। भतीजे अभिषेक बनर्जी कई कंपनियों में डायरेक्टर हैं। हालांकि, ममता का कहना है कि नातेदारों से मेरा कोई मतलब नहीं है। कोई भी मेरे साथ नहीं रहता। जबकि उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी को अब पार्टी में नंबर दो माना जाने लगा है।

नेहरू-गांधी परिवार ने देश पर थोपा था परिवारवाद

भारतीय राजनीति पर परिवारवाद थोपने का श्रेय नेहरू-गांधी परिवार को जाता है। कांग्रेस में जिस परिवारवाद का बीज गांधी परिवार ने बोया था, वह बीज कांग्रेस का जगह लेनी वाली तमाम क्षेत्रीय पार्टियों में वटवृक्ष बन गया। इस प्रकार परिवारवाद ने योग्‍यता और आंतरिक लोकतंत्र का अपहरण कर लिया। कांग्रेस के नेताओं ने सत्‍ता में बने रहने के लिए एक ही परिवार का गीत गाने में समय बिताया जिसका नतीजा यह हुआ कि देश का विकास प्रभावित हुआ। आजादी के 70 साल बाद देश में साक्षरता कार्यक्रम चल रहा है तो इसका श्रेय इसी चाटुकारी राजनीति को है। इसी तरह शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, पेयजल, सड़क, बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएं आम आदमी की पहुंच से दूर बनी रहीं। पार्टियों को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनाने की जो शुरूआत नेहरू-गांधी परिवार ने की, वह आज भी जारी है, लेकिन जनता ने अब इन्हें नकारने का मन बना लिया है।

परिवारवाद को बढ़ावा देने के लिए कांग्रेस के दिग्गज नेताओं की हुई उपेक्षा

देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में अर्से से एक ही परिवार का कब्जा है। नेहरू से लेकर उनकी पुत्री इंदिरा गांधी, फिर उनके पुत्र राजीव गांधी, फिर उनकी पत्नी सोनिया गांधी और पुत्र राहुल गांधी का परिवार ही कांग्रेस का नीति-नियंता है। सोनिया गांधी लंबे समय से पार्टी की मुखिया हैं। कांग्रेस ने वंशवाद की वजह से कई प्रतिभाशाली दिग्गज नेताओं की उपेक्षा की। सरदार पटेल से लेकर बाल गंगाधर तिलक, मदन मोहन मालवीय, सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी सरीखे दिग्गजों ने कांग्रेस को एक आंदोलन के रूप में चलाया, लेकिन स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस ने उन्हें भुला दिया। इसी तरह स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस की सरकारों में जिस किसी नेता का कद ऊंचा होने लगता उसे बाहर का रास्ता दिखा जाता था।

डॉ. राजेंद्र प्रसाद को मरणोपरांत भी नहीं दिया सम्मान

राष्ट्रपति पद से मुक्त होने के बाद डॉ राजेंद्र प्रसाद को पटना में कांग्रेस कार्यालय सदाकत आश्रम में रहना पड़ा था। हालात इतने बुरे थे कि उनके लिए टॉयलेट तक की व्यवस्था नहीं दी गई थी। जब सीलन भरे कमरे में रह रहे राजेंद्र बाबू को जय प्रकाश नारायण ने देखा तो उन्होंने कमरे की मरम्मत करवाई थी। सवाल उठता है कि क्या देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री संविधान सभा के पहले अध्यक्ष और पूर्व राष्ट्रपति के लिए एक रहने लायक मकान की व्यवस्था नहीं करवा सकते थे? इसके बाद 1963 में राजेंद्र बाबू का देहांत हो गया। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उनके निधन को प्राथमिकता नहीं दी और जयपुर जाने का कार्यक्रम बना लिया। इतना ही नहीं नेहरू ने राजस्थान के राज्यपाल संपूर्णानंद को भी राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि में शामिल होने से रोका। दरअसल संपूर्णानंद राजेंद्र बाबू की अंतिम क्रिया में शामिल होने के लिए पटना जाना चाहते थे, लेकिन संपूर्णानंद ने नेहरू से कहा कि ये कैसे मुमकिन है कि देश का प्रधानमंत्री किसी राज्य में आए और उसका राज्यपाल वहां से गायब हो। आखिरकार डॉ संपूर्णालनंद को अपना पटना जाने का कार्यक्रम रद्द करना पड़ा। पंडित नेहरू ने तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन को भी पटना नहीं जाने की सलाह दी थी। हालांकि डॉ राधाकृष्णन ने नेहरू की बात नहीं मानी और वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम संस्कार में भाग लेने पटना पहुंचे। यह प्रकरण साफ करता है कि कांग्रेस पार्टी में बुजुर्गों को सम्मान देने का कैसा गौरवशाली इतिहास रहा है।

नरसिम्हा राव के शव को भी नहीं दे पाए सम्मान

बुजुर्गों के अपमान करने के काले अध्याय में एक अध्याय भूतपूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव का भी है। 2004 में उनका देहांत दिल्ली में हुआ था, लेकिन उनके शव को कांग्रेस मुख्यालय में सिर्फ इसलिए नहीं रखने दिया गया क्योंकि उन्हें सोनिया गांधी नापसंद करती थीं। दरअसल दिल्ली हाई कोर्ट की ओर से बोफोर्स मामले को खारिज किए जाने के खिलाफ राव सरकार ने अपील कर दी थी। इससे सोनिया गांधी भड़क गईं थीं। उन्हें लगा था कि नरसिम्हा राव उन्हें जेल भिजवाना चाहते हैं। सोनिया गांधी को इस बात की भी खीझ थी कि बगैर उन्हें जानकारी में लिए बोफोर्स मसले पर सीबीआई से सीधे कैसे डील कर ली गई थी।

सीताराम केसरी को बेइज्जत कर सोनिया गांधी को बनाया अध्यक्ष

कांग्रेस के दिवंगत अध्यक्ष सीताराम केसरी पूरी जिंदगी ईमानदार रहे, लेकिन परिवारवाद की पोषक कांग्रेस के कारण इस दलित नेता को अपमान झेलना पड़ा। दरअसल 1997 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन के दौरान ही सोनिया गांधी पहली बार कांग्रेस पार्टी की साधारण सदस्य बनी। उस समय सीताराम केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष थे। लेकिन सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनने की तीव्र इच्छा जाग गई। कांग्रेस पार्टी पर कब्जा करने की इतनी जल्दी थी कि सीताराम केसरी को बीच कार्यकाल से ही हटाना चाहती थीं, लेकिन सीताराम केसरी अपना पद नहीं छोड़ना चाहते थे। तब दिग्विजय सिंह, अहमद पटेल के साथ अन्य कई वरिष्ठ नेताओं ने उन्हें अध्यक्ष पद से हटाने की साजिश रची। अध्यक्ष का कार्यकाल पूरा करने से तीन साल पहले ही कांग्रेस ने 80 साल के इस बुजुर्ग दलित नेता का अपमान किया।

प्रणब मुखर्जी की जगह मनमोहन सिंह को बनाया गया था प्रधानमंत्री

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की पुस्तक ”द कोलिशन इयर्स” में कई ऐसी बातें सामने आई हैं जो कांग्रेस पार्टी पर गांधी फैमिली के कब्जे की कहानी कहती हैं। प्रणब मुखर्जी ने अपनी इस पुस्तक में 2 जून, 2012 की बैठक को याद करते हुए अपना संस्मरण लिखा है। उन्होंने लिखा, ”बैठक में सोनिया गांधी से हुई बातचीत से उन्हें ऐसा लगा कि वो मनमोहन सिंह को यूपीए का राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाना चाहती हैं। मैंने सोचा कि अगर वो मनमोहन सिंह को राष्ट्रपति उम्मीदवार चुनती हैं तो शायद मुझे प्रधानमंत्री के लिए चुनें। मैंने इस तरह की कुछ बातें सुनी थीं कि वो कुछ ऐसा सोच रही हैं। ”द कोलिशन इयर्स” की लॉन्चिंग के अवसर पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गांधी फैमिली की ‘दादागिरी’ की पोल खोलते हुए कहा, ”प्रणबजी मेरे बहुत ही प्रतिष्ठित सहयोगी थे। इनके (मुखर्जी के) पास यह शिकायत करने के सभी कारण थे कि मेरे प्रधानमंत्री बनने की तुलना में वह इस पद (प्रधानमंत्री) के लिए अधिक योग्य हैं। पर वह इस बात को भी अच्छी तरह से जानते थे कि मेरे पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था।” जाहिर है प्रणब मुखर्जी और मनमोहन सिंह जैसे कद्दावर नेताओं की ये बात साबित करती है कि पार्टी में एक मात्र सोनिया गांधी की ही चलती थी और वो जो तय करती थीं वही होता था।

देश में परिवारवाद ने संस्थाओं को काफी नुकसान पहुंचाया

देश में योग्यता पर प्रथम-परिवार को हावी रखने के लिए कांग्रेस को और कई चालें चलनी पड़ीं। पार्टी के प्रति प्रतिबद्ध नौकरशाही एवं न्यायपालिका, मैत्रीपूर्ण मीडिया, जातिगत राजनीति और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के माध्यम से चुनाव जीतने जैसे हथकंडे कांग्रेस के राजनीतिक व्याकरण का हिस्सा बन गए। इस तरह कांग्रेस ने संस्थाओं पर भी हमला किया और उसे भी परिवारवाद के दायरे में लिया। इससे इन संस्थाओं को काफी नुकसान पहुंचा और वे देश के लिए विकास का काम करने की जगह भ्रष्टाचार का अड्डा बन गए। यहां तक सीबीआई और ईडी भी अपने काम सही तरीके से नहीं कर पा रहे थे। निरंतर हार के बाद भी नेहरू-गांधी परिवार पार्टी के शीर्ष पर बना रहा। 2017 में राहुल गांधी ने वैश्विक स्तर पर वंशवाद की राजनीति का खुलकर बचाव किया। उन्होंने कहा कि पूरा भारत राजवंशों पर चलता है और इसमें कोई हर्ज नहीं है।

परिवारवादी राजनीति की प्राथमिकता परिवार हित

परिवारवादी राजनीति की प्राथमिकता परिवार हित है। यहां राष्ट्रहित उपेक्षित होते हैं। चुनाव मुद्दा आधारित न रहकर दोषपूर्ण हो जाते हैं। इसके दोषी परिवारवादी दल ही होते हैं। संविधान सभा में 15 जून, 1949 के दिन पंडित हृदयनाथ कुंजरू ने कहा था कि दोषपूर्ण चुनाव से लोकतंत्र विषाक्त होगा।’ आमजन चुनाव में परिवार आधारित दलों की बढ़ती संख्या से निराश हैं। देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है। सभी स्तरों के सैकड़ों चुनाव हो गए हैं, लेकिन भारतीय जनतंत्र विचारनिष्ठ नहीं हुआ। दलों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं बढ़ा। इससे लोकतंत्र की क्षति होती है।

राजनीतिक दलों के भीतर आंतरिक लोकतंत्र का विकास क्यों नहीं हुआ?

भारतीय राजनीति में व्यापक राजनीतिक सुधारों की आवश्यकता है। राजनीतिक दल हमारे लोकतंत्र का उपकरण हैं। मुख्य रूप से उनके दो कार्य क्षेत्र हैं। पहला विचारधारा के अनुसार आमजनों का राजनीतिक शिक्षण, विचारधारा का प्रचार, जनसंगठन और जन आंदोलन जैसे अभियानों का संचालन। दूसरा संसद और विधानमंडलों में मर्यादित बहसों के माध्यम से राष्ट्रहित का संवर्धन। हमारा दलतंत्र दोनों ही कर्तव्यों में असफल हुआ है। मूलभूत प्रश्न है कि दलों के भीतर आंतरिक लोकतंत्र का विकास क्यों नहीं हुआ? राजनीतिक दलों में आजीवन अध्यक्ष क्यों हैं। उनके निधन पर पुत्र और पुत्री ही राष्ट्रीय अध्यक्ष क्यों बनते हैं? पार्टियां प्राइवेट प्रापर्टी क्यों है? ऐसे प्रश्न राष्ट्रीय बेचैनी हैं।

पीएम मोदी के सत्ता में आने के बाद परिवारवाद का सूरज ढलने लगा

वर्ष 2014 में पीएम मोदी के सत्ता में आने के साथ देश से वंशवाद की राजनीति का सूरज अस्त होना प्रारंभ हो गया है। मोदी के कुशल नेतृत्व, भ्रष्टाचार रहित और जन-केंद्रित शासन ने जाति और तुष्टीकरण की राजनीति पर जीत हासिल करनी शुरू कर दी है। वंशवाद की राजनीति का मुकाबला करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने कई राजनीतिक और शासन संबंधी प्रयोग भी किए हैं। भ्रष्टाचार रोकने के लिए जनकल्याणकारी योजनाओं को जनधन-आधार-मोबाइल से जोड़ा। इंटरनेट मीडिया के जरिये सीधे मतदाताओं तक पहुंचना शुरू कर दिया। आज मोदी ने वंशवाद की राजनीति के पैरोकारों को राजनीति को पूर्णकालिक काम की तरह मानने पर बाध्य कर दिया है। कुल मिलाकर मोदी युग में वंशवाद की राजनीति का अंत भी शुरू हो गया है।

कांग्रेस और भाजपा के 19 वर्षों की तुलना

अगर देश की दो बड़ी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा के वर्ष 1998 से अध्यक्ष पद पर आसीन व्यक्ति पर गौर करें तो परिवारवादी राजनीति और बिना परिवारवादी राजनीति का अंतर साफ दिख जाता है। पिछले 24 वर्षों से सोनिया गांधी या राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बनी हुई थी और अब दिखावे के लिए मल्लिकार्जुन खड़के को अध्यक्ष बनाया गया है। वहीं भाजपा की बात करें तो कुशाभाउ ठाकरे से लेकर जेपी नड्डा तक 11 अध्यक्ष बन चुके हैं। अगर कांग्रेस अध्यक्ष और उसके प्रधानमंत्री पद की बात की जाए तो आजादी के 70 साल में 53 साल तक इस परिवार का किसी न किसी या फिर दोनों पदों पर कब्जा रहा है। 19 वर्षों में जहां कांग्रेस इंदिरा गांधी की विदेशी बहू सोनिया गांधी के अलावा किसी को नहीं ढूंढ पाई। 1998 के बाद से लगातार सोनिया गांधी निर्विरोध तरीके से कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष बनी रहीं। वहीं दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी की बात करें तो पिछले 19 वर्षों में भाजपा के 9 अध्यक्ष बन चुके हैं। कांग्रेस में जहां आंतरिक लोकतंत्र कहीं दिखाई नहीं देता वहीं भाजपा में हर दो तीन साल में लोकतांत्रिक तरीके से अध्यक्ष बदला जाता रहा है।

देश आजाद हुआ या नेहरू-गांधी परिवार का गुलाम बना

नेहरू-गांधी परिवार की स्थिति भारतीय लोकतंत्र का मजाक उड़ाने के लिए काफी है। आजादी के बाद से ही देश की सत्ता और कांग्रेस पार्टी पर इस परिवार का कब्जा रहा है। 69 साल में 48 साल तक इस परिवार ने राज किया, 38 साल सीधे-सीधे और 10 साल तक मनमोहन सरकार की डुगडुगी अपने पास रखी।

परिवार की लगातार तीन पीढ़ियां देश की सत्ता पर काबिज

जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री के पद पर काबिज रहे। जबकि यूपीए सरकार के समय भी सत्ता की कमान सीधे-सीधे राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी के पास रहीं। कांग्रेस की बुरी हार के बाद भी राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। इसके अलावा राजीव गांधी के भाई संजय गांधी हों या राहुल गांधी की बहन प्रियंका गांधी और उनके पति रॉबर्ट वाड्रा, कांग्रेस पार्टी के भीतर इनके कद का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। अगर वाड्रा पर आरोप भी लगते हैं तो पूरी कांग्रेस पार्टी विधवा विलाप करने लग जाती हैं।

गांधी-नेहरू परिवार के नाम पर चल रही है 600 से ज्यादा सरकारी योजनाएं

परिवारवादी राजनीति का दुरुपयोग इस रूप में भी होता है कि तमाम तरह की योजनाओं का नामकरण परिवार के लोगों के नाम पर कर दिया जाता है। एक आरटीआई के जवाब में मिली सूचना के मुताबिक देशभर में जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम पर 600 से ज्यादा योजना, संस्थान, स्थल, म्यूजियम, ट्रॉफी या स्कॉलरशिप हैं। इनके नाम से मोदी सरकार के साढ़े 4 साल और विभिन्न राज्यों की बीजेपी सरकारों के दौर में भी कोई छेड़छाड़ नहीं की गई हैं।

पीएम मोदी का परिवारवाद के खिलाफ ऐलान-ए-जंग

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 76वें स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए भ्रष्टाचार और परिवारवाद के खिलाफ पूरी ताकत से निर्णायक लड़ाई लड़ने का संकल्प व्यक्त किया। उन्होंने इसे अपनी सांविधानिक और लोकतांत्रिक जिम्मेदारी बताते हुए इस लड़ाई में देशवासियों से आगे आने और खुलकर साथ देने की अपील की। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि भारत जैसे लोकतंत्र में जहां लोग गरीबी से जूझ रहे हैं, तब यह दृश्य देखने को मिलते हैं कि एक तरफ वह लोग हैं, जिनके पास रहने के लिए जगह नहीं है। दूसरी तरफ वह लोग हैं, जिनके पास अपना चोरी किया हुआ माल रखने के लिए जगह नहीं है।

भ्रष्टाचार और परिवारवाद देश की दो सबसे बड़ी चुनौतियां

प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि देश के सामने दो बड़ी चुनौतियां हैं। पहली चुनौती- भ्रष्टाचार और दूसरी चुनौती भाई-भतीजावाद, परिवारवाद। भ्रष्टाचार से हर हाल में लड़ना होगा। बैंक लुटनेवालों की संपत्ति जब्त हो रही है। भ्रष्टाचार देश को दीमक की तरह खोखला कर रहा है। उससे देश को लड़ना ही होगा। हमारी कोशिश है कि जिन्होंने देश को लूटा है, उनको लौटाना भी पड़े, हम इसकी कोशिश कर रहे हैं।

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