उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने संसद के विधायी कार्यों और कानूनों में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप पर नाराजगी जताई है। उपराष्ट्रपति ने साफ शब्दों में कहा कि संसद की कानून बनाने की शक्ति को न्यायपालिका अमान्य नहीं कर सकती। ऐसा देखा जा रहा है कि संसद कानून बनाता है और सुप्रीम कोर्ट उसे रद्द कर देता है। उन्होंने देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बयानों का हवाला देते हुए सवाल किया कि क्या संसद द्वारा बनाया गया कानून, तभी कानून का रूप लेगा, जबकि उस पर कोर्ट की मुहर लगेगी। धनखड़ जब राज्यसभा के सभापति का चार्ज लिया था, तब भी उन्होंने कहा था कि न तो कार्यपालिका कानून को देख सकती है, न कोर्ट हस्तक्षेप कर सकती है। संसद के बनाए कानून को किसी आधार पर कोई संस्था अमान्य करती है तो प्रजातंत्र के लिए ठीक नहीं होगा। तब यह कहना मुश्किल होगा कि हम लोकतांत्रिक देश हैं। कोई भी संस्था जनादेश को बेअसर करने के लिए शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकती
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ जयपुर में देशभर के विधानसभा स्पीकर्स के राष्ट्रीय सम्मेलन में बोल रहे थे। उपराष्ट्रपति ने कहा कि 1973 में एक बहुत गलत परंपरा चालू हुई थी। केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने का अधिकार है, लेकिन इसकी मूल संरचना में नहीं। धनखड़ ने कहा कि कोर्ट को पूरे सम्मान के साथ कहना चाहता हूं कि इससे मैं बिल्कुल सहमत नहीं हूं। हाउस बदलाव कर सकता है। यह सदन बताए कि क्या इसे किया जा सकता है? क्या संसद यह अनुमति दे सकती है कि उसके फैसले को कोई और संस्था रिव्यू करे? उन्होंने कहा कि कोई भी संस्था जनादेश को बेअसर करने के लिए शक्ति या अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकती है।कानून बनाने या संविधान-संशोधन की शक्ति को न्यायपालिका अमान्य नहीं कर सकती
उप राष्ट्रपति धनखड़ ने कहा कि लोकतंत्र में संसदीय संप्रभुता व स्वायत्तता सर्वोपरि है। न्यायपालिका या कार्यपालिका संसद में कानून बनाने या संविधान में संशोधन करने की शक्ति को अमान्य नहीं कर सकती। न्यायिक नियुक्तियों पर केंद्र सरकार व कॉलेजियम में टकराव के बीच उपराष्ट्रपति ने वर्ष 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) कानून को सुप्रीम कोर्ट से रद्द किए जाने पर फिर नाखुशी जाहिर की। उन्होंने कहा कि दुनिया के लोकतांत्रिक इतिहास में ऐसा कहीं नहीं हुआ है। धनखड़ ने कहा कि संसद संप्रभु है, किसी भी लोकतांत्रिक समाज में जनमत की प्रधानता ही उसके मूल ढांचे का आधार है। संसद व विधानमंडलों की प्रधानता तथा संप्रभुता आवश्यक शर्त है, जिससे समझौता नहीं किया जा सकता। उन्होंने सभी संस्थाओं से मर्यादा में कार्य करने का आग्रह किया।लोकतंत्र तभी फलता-फूलता है, जबकि तीनों अंग सहयोग और सामंजस्य से चलें
उपराष्ट्रपति ने कहा कि संसद से पारित सांविधानिक कानून के अनुपालन के लिए कार्यपालिका जिम्मेदार होती है। यह कानून का पालन करने के लिए बाध्य है। न्यायिक फैसला इसे कम नहीं कर सकता। लोगों की संप्रभुता की रक्षा करना संसद व विधायिकाओं का दायित्व है। धनखड़ ने कहा, न्यायिक मंच से जनता के लिए दिखावा अच्छा नहीं है। धनखड़ ने कहा, जब उन्होंने राज्यसभा के सभापति का कार्यभार संभाला, तो कहा था-सदन के पास न्यायिक फैसले लिखने की शक्ति नहीं है, इसी तरह कार्यपालिका-न्यायपालिका के पास भी कानून बनाने का अधिकार नहीं है। लोकतंत्र तभी फलता फूलता है जब तीनों अंग परस्पर सहयोग और सामंजस्य के साथ, जन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए काम करते हैं
न्यायपालिका को प्रदत्त शक्तियों का संतुलन बनाए रखना चाहिए- लोकसभा अध्यक्ष
उपराष्ट्रपति के साथ लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी अदालती हस्तक्षेप पर नाराजगी जताई। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने इस मौके पर कहा कि न्यायपालिका को भी मर्यादा का पालन करना चाहिए। न्यायपालिका से उम्मीद की जाती है कि जो उनको संवैधानिक अधिकार दिया है, उसका उपयोग करें। साथ ही अपनी शक्तियों का संतुलन भी बनाएं। हमारे सदनों के अध्यक्ष यही चाहते हैं। बिरला ने कहा, विधायिका ने हमेशा न्यायपालिका की शक्तियों व अधिकारों का सम्मान किया है। उम्मीद की जाती है कि उसे जो सांविधानिक अधिकार हैं, उनका उपयोग करे, लेकिन अपनी शक्तियों का संतुलन भी बनाए रखे। लोकतंत्र के तीनों अंग कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के अपने अधिकार हैं। सभी को एक-दूसरे का ख्याल रखते हुए विश्वास व संतुलन से काम करना चाहिए।ऐसा साफ लग रहा है कि न्यायपालिका काम में हस्तक्षेप कर रही है : सीएम गहलोत
पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा कि कई बार न्यायपालिका से मतभेद होते हैं। ज्यूडिशियरी हमारे कामों में हस्तक्षेप कर रही है। इंदिरा गांधी ने प्रिवी पर्स खत्म किए थे। इसे ज्यूडिशियरी ने रद्द कर दिया था। बाद में बैंकों के राष्ट्रीयकरण से लेकर उनके सब फैसलों के पक्ष में जजमेंट आए। गहलोत ने कहा- 40 साल से मैंने भी देखा है। कई बार हाउस नहीं चलता। 10-10 दिन गतिरोध चलता है। फिर भी पक्ष और विपक्ष मिलकर भूमिका निभाते हैं। जब 75 साल निकल गए हैं तो देश का भविष्य बहुत उज्ज्वल है। हम संविधान की रक्षा करें।
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग पर सहमत नहीं हुआ था सुप्रीम कोर्ट
उप राष्ट्रपति धनखड़ ने जिस राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का जिक्र किया, मोदी सरकार ने उस NJAC के रूप में एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था का प्रस्ताव रखा था। यह कॉलेजियम सिस्टम की जगह लेने वाला था। फिलहाल कॉलेजियम के तहत ही जजों की नियुक्ति हो रही है। नए सिस्टम में 6 सदस्यों को रखने का प्रस्ताव था। चीफ जस्टिस इस आयोग के प्रमुख होते और सुप्रीम कोर्ट के 2 सीनियर जज, कानून मंत्री और 2 जानीमानी हस्तियां सदस्य के रूप में शामिल होतीं। अभी कॉलेजियम सिस्टम में चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों का एक समूह जजों की नियुक्ति और तबादले का फैसला करता है। उसकी सिफारिश पर सरकार मुहर लगाती है। कॉलेजियम व्यवस्था 1998 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से अस्तित्व में आई थी।
#WATCH | “If there is no way to bind the judiciary, words like ‘judicial activism’ are brought to use. Several judges pass observations which never become a part of judgement… As a judge you do not know practical difficulties, financial limitations,” says Law Min Kiren Rijiju pic.twitter.com/L12gCoU1L7
— ANI (@ANI) October 17, 2022
कानून मंत्री ने भी उठाए थे सवाल, जजों को अव्यवहारिक टिप्पणियां करने से बचना चाहिए
इससे पहले का देश के कानून मंत्री किरेन रिजिजू भी न्यायपालिका की कार्यप्रणाली पर सवाल उठा चुके हैं। अहमदाबाद में आयोजित एक कार्यक्रम में न्यायपालिका को लेकर रिजिजू ने कहा, ‘जब न्यायपालिका को नियंत्रित करने का कोई तरीका नहीं होता है, तो ‘ज्यूडिशियल एक्टिविज्म’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है। कई न्यायाधीश ऐसी टिप्पणियों को पारित करते हैं जो कभी भी उनके निर्णय का हिस्सा नहीं बनते हैं। एक न्यायाधीश के रूप में वो व्यावहारिक कठिनाइयों, वित्तीय सीमाओं को नहीं जानते हैं। रिजिजू ने कहा, जजों को जो भी कहना है उसे ऑर्डर के जरिए कहना चाहिए न की टिप्पणियों के जरिये। उन्होंने कहा, अगर एक जज कहता है कि कचरा को यहां से हटाकर वहां डालो। यहां इन लोगों का अपॉइंटमेंट आप दस दिन में पूरा करो। पीडब्ल्यूडी के इंजीनियर को कोर्ट में बुलाएंगे और कहेंगे कि ये करो। ये सारे काम एग्जिक्यूटिव के हैं। आप जज हैं, आपको नहीं पता कि वहां काम करने में क्या परेशानी आ रही है। उस संस्थान की वित्तीय स्थिति क्या है। इसी तरह कोर्ट ने कोरोना काल में भी कई ऐसी टिप्पणियां कीं जो व्यवहारिक नहीं थीं।
‘Power of people undone’: Vice-President Dhankhar slams SC for junking NJAC Act. https://t.co/JlsudyEJ27
— Kiren Rijiju (@KirenRijiju) December 3, 2022
क्या कहता है हमारा भारतीय संविधान?
हमारे संविधान में राज्य की शक्तियों को तीन अंगों में बांटा गया है- विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका इन शक्तियों के अनुसार विधायिका का काम विधि (कानून) निर्माण करना, कार्यपालिका का काम विधियों का कार्यान्वयन (कानून को लागू करना) तथा न्यायपालिका को प्रशासन की देख-रेख, विवादों का फैसला और विधियों की व्याख्या करने का काम सौंपा गया है। संविधान के मुताबिक न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के बीच की लाइन स्पष्ट तौर पर खींची गई है। विधायिका (संसद) का मूल कार्य कानून बनाना है। सभी विधायी प्रस्तावों को विधेयकों के रूप में संसद के समक्ष लाना होता है। एक विधेयक मसौदे में एक संविधि है और तब तक कानून नहीं बन सकता जब तक कि इसे संसद के दोनों सदनों की स्वीकृति और भारत के राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त न हो जाए। वहीं न्यायपालिका की प्रमुख भूमिका यह है कि वह ‘कानून के शासन’ की रक्षा और कानून की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करे। न्यायपालिका व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करती है, विवादों को कानून के अनुसार हल करती है और यह सुनिश्चित करती है कि लोकतंत्र की जगह किसी एक व्यक्ति या समूह की तानाशाही न ले ले।