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हनीट्रैप में फंसे नेहरू ने देश के साथ किया धोखा, वे एडविना को लव लेटर लिखते रहे…इधर देश बंट गया…ब्रिटेन को पहुंचाते रहे खुफिया जानकारी

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‘मैं चाहता हूं कि कोई मुझसे समझदारी से और भरोसे के साथ बात करे, जैसा कि तुम कर सकती हो… मैं खुद पर से भरोसा खो रहा हूं… जिन मूल्यों को हमने पाला उनका क्या हुआ, क्या हो रहा है? हमारे महान विचार कहां हैं?’ ये पंक्तियां उस लेटर का हिस्सा हैं जिसे जवाहरलाल नेहरू ने अप्रैल 1948 में एडविना माउंटबेटन को भेजा था। बंटवारे के बाद सांप्रदायिक हिंसा और फिर महात्मा गांधी की हत्या के बाद बने उथल-पुथल भरे माहौल में जब देश को मजबूत नेतृत्व देकर देश को संभालने की जरूरत थी, प्रधानमंत्री नेहरू एडविना को लव लेटर लिखने में व्यस्त थे। पंडित नेहरू पर आरोप लगता रहा है कि वे देश से जुड़ी खुफियां जानकारियों को 1962 तक अंग्रेजों तक पहुंचाते थे। जिससे हमारे लिए सामरिक मोर्चे पर चुनौतियां पैदा हुईं, लेकिन अफसोस गांधी परिवार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। यही नहीं नेहरू ने कई अवसरों पर सुरक्षा मुद्दे के साथ समझौता भी किया। नेहरू पर सुरक्षा संधियों के साथ खिलवाड़ करने का भी आरोप लगता रहा है। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि भारत के पास खुफिया जानकारी थी कि चीन 1959 से सीमा पर भारी सैन्य तैयारी कर रहा है। नेहरू के तत्कालीन खुफिया प्रमुख भोलानाथ मलिक ने सीमा पर चीन की हरकतों को लेकर सरकार को कई बार सतर्क किया था। लेकिन नेहरू ने इस पर विश्वास करने से मना कर दिया था और देश पर 1962 का युद्ध थोप दिया।

हम जिन्हें चाचा नेहरू कह रहे थे, वे एडविना को लव लेटर लिख रहे थे

वीर सावरकर के पोते रणजीत सावरकर ने कुछ दिनों पहले कहा था कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने हनी ट्रैप में फंसकर जल्दबाजी में भारत के विभाजन का फैसला किया था, जिससे 20 लाख से अधिक हिंदुओं और सिखों का कत्ल हुआ। मीडिया से वार्तालाप में रणजीत सावरकर ने कहा, “एक महिला के लिए पंडित नेहरू ने भारत का विभाजन किया था। नेहरू को हनीट्रैप में फंसाकर भारत का विभाजन किया गया। 12 वर्षों तक नेहरू भारत के बारे में गोपनीय जानकारियां ब्रिटिश सरकार को देते रहे। हम उन्हें चाचा नेहरू कह रहे थे, वे एडविना को लव लेटर लिख रहे थे।”

नेहरू और एडविना स्वीमिंग पूल में एक साथ देखे गए

भारत आने के बाद लॉर्ड माउंटबेटन ने जब गवर्नमेंट हाउस में पहली गार्डेन पार्टी दी तो लोग ये देख कर दंग रह गए कि जवाहरलाल नेहरू एडविना के कदमों पर ज़मीन पर बैठ कर डांस शो का आनंद उठा रहे हैं। हालांकि कुर्सियों की कमी पड़ जाने की वजह से भारत के भावी प्रधानमंत्री ने ऐसा किया था, लेकिन लोगों की नज़र से ये छिप नहीं सका कि आखिर नेहरू एडविना के ही पैरों के पास क्यों बैठे। पार्टी के तुरंत बाद एडविना अपनी बेटी पामेला के साथ नेहरू के घर गईं थीं। दिलचस्प बात ये थी कि इस बार लॉर्ड माउंटबेटन उनके साथ नहीं थे। लॉर्ड वेवेल के जमाने से ही नेहरू गवर्नमेंट हाउस के स्वीमिंग पूल में तैरने जाया करते थे, लेकिन तब कोई इस बारे में बात नहीं करता था। लेकिन जब एडविना माउंटबेटन भी इस स्वीमिंग पूल में नेहरू के साथ तैरती हुई देखी जाने लगीं तो लोगों ने इन दोनों के संबंधों के बारे में बातें करनी शुरू कर दी और असलियत सामने आ गई।

नेहरू लेडी माउंटबेटन से ज्यादा प्रभावित थेः अबुल कलाम आज़ाद

कांग्रेस नेता अबुल कलाम आज़ाद की आंखों से भी नेहरू-एडबिना के संबंध छिप नहीं सके थे और उन्होंने अपनी किताब ‘इंडिया विन्स फ़्रीडम’ में लिखा, “नेहरू माउंटबेटन से तो मुतासिर हैं ही, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा वो लेडी माउंटबेटन से मुतासिर हैं।” वहीं सलमान रुश्दी के चाचा शाहिद हमीद ने 31 मार्च, 1947 को अपनी डायरी में लिखा था कि माउंटबेटन दंपत्ति के भारत पहुंचने के 10 दिनों के भीतर ही एडविना और नेहरू की नज़दीकियों पर भौंहें उठना शुरू हो गई हैं। रेडक्रॉस के एक समारोह में खींची गई तस्वीरों से भी यह साफ हुआ कि किस तरह एडवीना नेहरू को प्यार से निहार रही हैं।

एडविना की बेटी पामेला ने भी कहा- मेरी मां और पंडितजी एक दूसरे को बहुत प्यार करते थे

नेहरू की आकर्षक शख़्सियत का असर न सिर्फ़ माउंटबेटन दंपत्ति पर पड़ा, बल्कि उनकी 17 साल की बेटी पामेला हिक्स भी उनसे बहुत प्रभावित हुई थीं। अपनी किताब ‘डॉटर ऑफ़ एम्पायर’ में पामेला लिखती हैं, “जब नेहरू ने पहली बार मुझसे हाथ मिलाया था मैं तभी से उनकी आवाज़, कपड़े पहनने के तरीके, सफ़ेद शेरवानी और उसके बटनहोल में लगे लाल गुलाब और उनकी गर्मजोशी की मुरीद हो गई थी।” पामेला ने कहा, “मेरी माँ और पंडितजी एक दूसरे को बहुत प्यार करते थे। पुराना मुहावरा ‘सोलमेट’ उन पर पूरी तरह लागू होता था। मेरे पिता बहुर्मुखी थे, जबकि मेरी मां अपने-आप में ही रहना पसंद करती थीं।””वो बहुत लंबे समय तक विवाहित रहे थे और एक दूसरे के बहुत नज़दीक साथी भी थे लेकिन इसके बावजूद मेरी मां अकेलेपन की शिकार थीं। तभी उनकी मुलाक़ात एक ऐसे शख़्स से हुई जो संवेदनशील, आकर्षक, सुसंस्कृत और बेहद मनमोहक था। शायद यही वजह थी कि वो उनके प्यार में डूब गई।”

नेहरू को एडविना का हाथ पकड़ने से परहेज़ नहीं

भारत में राजनीतिक उथल-पुथल के बावजूद लोगों की नज़र एडविना और नेहरू पर थी। नेहरू के जीवनीकार स्टेनली वॉलपर्ट अपनी किताब ‘नेहरू-अ ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ में लिखते हैं, “मैंने एक बार नेहरू और एडविना को ललित कला अकादमी के उद्घाटन समारोह में देखा था। मुझे ये देख कर आश्चर्य हुआ था कि नेहरू को सबके सामने एडविना को छूने, उनका हाथ पकड़ने और उनके कान में फुसफुसाने से कोई परहेज़ नहीं था।” “माउंटबेटन के नाती लॉर्ड रेम्सी ने एक बार मुझे बताया था कि उन दोनों के बीच महज़ अच्छी दोस्ती थी, इससे ज्यादा कुछ नहीं। लेकिन खुद लॉर्ड माउंटबेटन एडविना को लिखी नेहरू की चिट्ठियों को प्रेम पत्र कहा करते थे। उनसे ज़्यादा किसी को अंदाज़ा नहीं था कि एडविना किस हद तक अपने ‘जवाहार’ को चाहती थीं।”

रूसी मोदी ने देखा था नेहरू को एडविना को अपनी बाहों में भरते

नेहरू की एक और जीवनी लिखने वाले एमजे अकबर बताते हैं कि इस बारे में उन्हें सबसे सशक्त प्रमाण टाटा स्टील के मुख्य कार्यकारी अधिकारी रह चुके रूसी मोदी ने दिया था। अकबर अपनी किताब ‘नेहरू-द मेकिंग ऑफ़ इंडिया’ में लिखते हैं, “1949 से 1952 के बीच रूसी के पिता सर होमी मोदी उत्तर प्रदेश के राज्यपाल हुआ करते थे। नेहरू नैनीताल आए हुए थे और राज्यपाल मोदी के साथ ठहरे हुए थे। जब रात के 8 बजे तो सर मोदी ने अपने बेटे से कहा कि वो नेहरू के शयन कक्ष में जा कर उन्हें बताएं कि मेज़ पर खाना लग चुका है और सबको आपका इंतज़ार है।” जब रूसी मोदी ने नेहरू के शयनकक्ष का दरवाज़ा खोला तो उन्होंने देखा कि नेहरू ने एडविना को अपनी बाहों में भरा हुआ था। नेहरू की आंखें मोदी से मिलीं और उन्होंने अजीब सा मुंह बनाया। मोदी ने झटपट दरवाज़ा बंद किया और बाहर आ गए। थोड़ी देर बाद पहले नेहरू खाने की मेज़ पर पहुंचे और उनके पीछे-पीछे एडविना भी वहां पहुंच गईं।”

नेहरू लंदन में हवाईअड्डे से होटल जाने के बजाए एडविना के घर पहुंच गए

नेहरू और एडविना की मुलाकातों का सिलसिला भारत की आजादी के बाद भी जारी रहा। नेहरू जब भी राष्ट्रमंडल शिखर सम्मेलन में भाग लेने लंदन जाते, एडविना के साथ कुछ दिन ज़रूर बिताते। उन दिनों लंदन में भारतीय उच्चायोग में काम करने वाले खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा ‘ट्रूथ, लव एंड लिटिल मेलिस’ में लिखा है, “नेहरू के विमान ने जब हीथ्रो के रनवे को छुआ तो काफ़ी रात हो चुकी थी। अगली सुबह जब मैं दफ़्तर पहुंचा तो मेरी मेज़ पर कृष्ण मेनन का नोट रखा हुआ था कि मैं उनसे तुरंत मिलूं।” “मेरी मेज़ पर ही ‘द डेली हैरल्ड अख़बार’ पड़ा हुआ था जिसके पहले पन्ने पर ही नेहरू और लेडी माउंटबेटन की तस्वीर छपी थी, जिसमें वो अपना नाइट गाउन पहने हुए नेहरू के लिए अपने घर का दरवाज़ा खोल रही थीं। उसके नीचे कैप्शन था, ‘लेडी माउंटबेटन्स मिड नाइट विज़ीटर।” ख़बर में ये भी लिखा गया था कि लॉर्ड माउंटबेटन इस समय लंदन में नहीं हैं। जब मैं मेनन के पास पहुंचा तो वो मुझ पर दहाड़े, ‘तुमने आज का हैरल्ड देखा? प्रधानमंत्री तुमसे बहुत नाराज़ हैं।’ मैंने कहा, ‘मेरा इससे कोई लेना-देना नहीं। मुझे क्या पता था कि पंडितजी हवाईअड्डे से अपने होटल जाने के बजाए माउंटबेटन के घर जा पहुंचेंगे।”

एडविना के बिस्तर के आसपास मिले नेहरू के प्रेम पत्र

नेहरू और एडविना के बीच रिश्तों की गर्मजोशी ऐसी थी कि माउंटबेटन के भारत आने के 10 दिनों के भीतर ही वीपी मेनन ने कहा था कि एडविना के साथ नेहरू के रिश्ते कई लोगों की आंखों में चुभ सकते हैं। एडविना की छोटी बेटी ने बाद में बताया था कि भारत से लौटने के बाद मां डिप्रेशन में चली गई थीं। एडविना रोज नेहरू को खत लिखा करतीं। जवाब में नेहरू के खत राजनयिक लिफाफे में आते और जब जवाब नहीं आता तो वह भारत फोन लगा देतीं। 1960 में जब एडविना माउंटबेटन का बोर्नियो में निधन हुआ तो उनके बिस्तर के आसपास नेहरू के कई प्रेम पत्र पाए गए। बाद में ये सारे पत्र लॉर्ड माउंटबेटन के पास पहुंचाए गए। पामेला हिक्स बताती हैं, “अपनी वसीयत में भी मेरी माँ ने नेहरू के लिखे सारे ख़त मेरे पिता के लिए छोड़े थे। एक पूरा सूटकेस इन ख़तों से लबालब भरा हुआ था। मैं उन दिनों ‘ब्रॉडलैंड्स’ में अपने पिता के साथ रह रही थी।”

नेहरू-एडविना के पत्रों और माउंटबेटन की डायरी छिपाने पर ब्रिटिश सरकार करती है 6 लाख पाउंड से अधिक खर्च

एडविना माउंटबेटन और उनके पति लॉर्ड माउंटबेटन से जुड़े दस्तावेजों और पत्रों को गुप्त रखने के लिए ब्रिटेन सरकार काफी पैसा खर्च कर रही है। WION की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि माउंटबेटन और उनकी पत्नी एडविना के इन पत्रों और डायरियों को (खास कर भारत के विभाजन के आसपास) को यूके सरकार गुप्त रखना चाहती है। उसे डर है कि इसे सार्वजनिक करने से भारत विभाजन और एडविना के रिश्तों के राज सामने आ सकते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि एंड्रू लोनी नाम के एक लेखक ने उन दस्तावेजों को देखने की मांग की है, मगर ब्रिटिश सरकार लेखक को उन तक पहुंचने से रोकना चाहती है। यूके सरकार को डर है कि यदि वे दस्तावेज सार्वजनिक किए गए तो वे भारत, पाकिस्तान और ब्रिटेन के बीच के संबंधों को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

नेहरू की इन महिलाओं से भी थी नजदीकियां

श्रृद्धा माताः श्रृद्धा माता आकर्षक काया वाली सुंदर महिला थीं। वो संस्कृत में विद्वान थीं। युवा संन्यासिन श्रृद्धा माता बनारस रहा करती थीं। बाद में वो दिल्ली शिफ्ट हो गईं। एक बार उन्होंने नेहरू से मिलने का मन बनाया। लेकिन पूर्व पीएम ने उनमें दिलचस्पी नहीं दिखाते हुए मिलने से मना कर दिया। फिर जब एक बार उनकी मुलाकात नेहरू से हुई तो मिलने का ये सिलसिला जारी रहा। वह रात में सीधे प्रधानमंत्री हाउस आ जाया करती थीं जब, नेहरू अपना काम निपटा चुके होते थे। बाद में वह गायब हो गईं और बेंगलुरु से प्रधानमंत्री हाउस में उनके पत्रों का एक बंडल भेजा गया, जो नेहरू ने उन्हें लिखे थे, साथ में एक डॉक्टर का पत्र आया कि ये पत्र उन्हें उस महिला से मिले हैं, जो यहां चर्च अस्पताल में एक बच्चे को जन्म देने आई थी। कहा जाता है कि उनका नेहरू पर प्रभाव भी दिखने लगा था। बाद में कुछ समय गायब रहने के बाद श्रृद्धा माता उत्तर भारत लौटीं और जयपुर में रहने लगीं। वहां सवाई मानसिंह ने उन्हें आलीशान किला दिया। श्रृद्धा माता का जिक्र बाद में खुशवंत सिंह ने भी अपनी किताब में किया। वह उनसे जब मिले तो श्रृद्धा माता ने उनसे नेहरू के करीबी का दावा किया।

पद्मजा नायडूः पद्मजा सरोजिनी नायडू की बड़ी बेटी थीं। नेहरू के निजी सचिव रहे मथाई लिखते हैं, 1946 जब मैं उनसे इलाहाबाद में मिला, तब वह नेहरू के घर को संभालने में लगी हुईं थीं। फिर दिल्ली आकर पद्मजा यही काम करने लगीं। वह हमेशा नेहरू के बगल के कमरे में रहना चाहती थीं। इंदिरा को उनका आना अच्छा नहीं लगता था। न ही उनका वहां लंबा ठहरना। इसी दौरान नेहरू की लेडी माउंटबेटन से भी नजदीकियां रहीं। बात 1947 के जाड़ों की है जब नेहरू को लखनऊ आना था। तब सरोजिनी नायडू उत्तर प्रदेश की राज्यपाल थीं। अचानक ये खबर जंगल में आग की तरह फ़ैल गई कि नेहरूजी पद्मजा को शादी के लिए प्रोपोज करेंगे। नेहरू लखनऊ तो गए लेकिन साथ में लेडी माउंटबेटन थीं। ये बात पद्मजा को नागवार गुजरी। एक बार जब उन्होंने नेहरू के बेडरूम में एडविना के दो फोटोग्राफ देखे तो काफी उदास हो गईं और तुरंत वहां अपनी एक छोटी सी फोटो लगा दी। 1948 में पद्मजा हैदराबाद से सांसद चुनी गईं। दिल्ली आने पर प्रधानमंत्री हाउस में ठहरीं, नेहरू के बगल के कमरे में। मथाई ने लिखा है कि वह नेहरू से शादी करना चाहती थीं लेकिन जब उन्हें लगा कि नेहरू के जीवन में केवल वही नहीं बल्कि कई स्त्रियां हैं। तो वह टूट से गईं। कहा जाता है कि इंदिरा के विरोध के चलते नेहरू ने उनसे शादी नहीं की।

मृदुला साराभाईः मृदुला साराभाई नेहरू के बहुत करीब थीं। हालांकि 1946 तक नेहरू उनमें दिलचस्पी खो चुके थे। वह कांग्रेस की समर्पित कार्यकर्ता थीं। मृदुला गुजरात के प्रसिद्ध उद्योगपति और धनाढ्य साराभाई परिवार की बेटी थीं। एम ओ मथाई ने अपनी किताब रिमिनिसेंस ऑफ द नेहरू एज के हवाले से लिखा है कि मृदुला ने कश्मीर में शेख अब्दुल्ला के साथ काम किया। देशविरोधी गतिविधियों के लिए मृदुला को जेल में भी डाला गया।

UNSC पर नेहरू ने की इतिहास की सबसे बड़ी ग़लती, अमेरिका ने 1950 में दिया था ऑफर

1950 के दशक जैसा सुनहरा मौका भारत और हिंदी के लिए दोबारा शायद ही आए। सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट हिंदी को अपने आप संयुक्त राष्ट्र की भाषा बना देती और पूरी दुनिया हिंदी में भी रुचि लेने लगती। लेकिन प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की गलती की वजह से यह नहीं हो सका। कांग्रेस नेता और पूर्व संयुक्त राष्ट्र के अंडर-सेक्रेटरी जनरल शशि थरूर ने 2004 में एक इंटरव्यू में कहा था कि नेहरू ने 1953 में UNSC में स्थायी सीट का ‘अमेरिका का भारत को दिया ऑफर खारिज’ कर दिया था और कहा था कि इसकी बजाय चीन को ये सीट देनी चाहिए। अपनी किताब, ‘नेहरू – द इनवेंशन ऑफ इंडिया’ में भी थरूर ने लिखा है कि नेहरू ने सुझाव दिया था कि ये सीट, जो तब तक ताइवान के पास थी, बीजिंग को ऑफर की जानी चाहिए। नेहरू ने कथित तौर पर कहा था कि “सीट ताइवान द्वारा खराब विश्वसनीयता से ली गई थी।” इतिहासकार एंटन हार्डर की मार्च 2015 की ‘Not as the Cost of China’ नाम से रिपोर्ट से पता चलता है कि अमेरिका ने 1950 की शुरुआत में भारत पर स्थायी सीट के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया था, जिससे वो चीन की जगह ले ले।

नेहरू ने भारत के बजाए चीन को दिला दी थी UN की स्‍थायी सीट

इतिहासकार एजी नूरानी ने अमेरिका और रूस के UNSC ऑफर पर नेहरू के एक 1955 नोट का भी हवाला दिया था। इस नोट में, नेहरू ने स्वीकार किया था कि अमेरिका ने “अनौपचारिक रूप से” सुझाव दिए थे, लेकिन भारत उस समय “सुरक्षा परिषद में घुसने के लिए उत्सुक” नहीं था। नोट कुछ इस प्रकार है- “अनौपचारिक तौर पर, अमेरिका की तरफ से सुझाव दिए गए कि चीन को संयुक्त राष्ट्र में लिया जाना चाहिए, लेकिन सुरक्षा परिषद में नहीं, और भारत सुरक्षा परिषद में उसकी जगह ले ले। हम निश्चित रूप से इसे स्वीकार नहीं कर सकते, क्योंकि इसका मतलब है चीन से तनाव पैदा होना और ये चीन जैसे महान देश का सुरक्षा परिषद में नहीं होना गलत होगा। इसलिए, हमने ये सुझाव देने वालों को स्पष्ट कर दिया है कि हम इस सुझाव से सहमत नहीं हो सकते। हमने इससे भी आगे बढ़कर कहा है कि भारत इस स्टेज पर सुरक्षा परिषद में प्रवेश करने के लिए उत्सुक नहीं है, भले ही एक महान देश के रूप में वो वहां होना चाहिए। पहला कदम जो होना चाहिए वो ये कि चीन अपनी सही जगह ले और फिर भारत के सवाल पर अलग से विचार किया जा सकता है।”

चीन की युद्ध तैयारी पर थी खुफिया रिपोर्ट, पर नेहरू ने कर दिया था नजरअंदाज

तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1962 के युद्ध के लिए चीन की तैयारी संबंधी खुफिया रिपोर्ट को नजरअंदाज कर दिया था, जबकि चीन के नेता माओत्से तुंग ने देश में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए भारत से युद्ध की तैयारी काफी पहले कर ली थी। स्वीडन के सामरिक विशेषज्ञ बर्टिल लिंटनर ने अपनी किताब ‘चाइनाज इंडिया वार’ में यह उल्लेख किया है। लिंटनर ने किताब में भारत की तरफ से खुफिया विफलताओं की बात को खारिज किया है। उन्होंने कहा कि भारत के पास खुफिया जानकारी थी कि चीन 1959 से सीमा पर भारी सैन्य तैयारी कर रहा है। नेहरू के तत्कालीन खुफिया प्रमुख भोलानाथ मलिक ने सीमा पर चीन की हरकतों को लेकर सरकार को कई बार सतर्क किया था। लेकिन नेहरू ने इस पर विश्वास करने से मना कर दिया था।

1962 का युद्ध बीजिंग पर आंख बंदकर भरोसा कर लेने की गलती का नतीजा

‘चाइनाज इंडिया वार’ किताब में कहा गया है कि माओ ने 1958 में शुरू किए गए ग्रेट लीप फॉरवर्ड की विफलता के बाद युद्ध की तैयारी शुरू कर दी थी। उन्होंने युद्ध के जरिये देश, खास कर सेना को एकजुट कर सत्ता पर कब्जा बनाए रखने की सोची। इसके लिए उन्होंने भारत को आसान लक्ष्य पाया जिसने तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद 1959 में दलाई लामा को शरण दी थी। लिंटर ने इस आम धारणा को भी खारिज किया कि नेहरू की 1961 की ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ के कारण चीन के साथ युद्ध शुरू हुआ। किताब में कहा गया है कि माओ के लिए युद्ध का मकसद एशिया और अफ्रीका के नए स्वतंत्र देशों में चीन की भू-राजनीतिक स्थिति को मजबूत करना भी था। साथ ही विकासशील देशों के नेता के रूप में भारत के उभरने को रोकना भी मकसद था। लिंटनर ने कहा कि 1962 के युद्ध के बाद भारत की बजाय चीन तीसरी दुनिया का नेता बन गया। 1962 की लड़ाई में चीन के मुकाबले भारत को झटका लगा था और यह माना जाता रहा है कि यह युद्ध बीजिंग पर आंख बंदकर भरोसा कर लेने की गलती का नतीजा था। 

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