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SURVEY: गहलोत सरकार के मंत्री-विधायकों के काम से खुश नहीं राजस्थान की जनता, सर्वे ने उड़ाई कांग्रेस की नींद, आधे से ज्यादा मंत्री-विधायकों के खिलाफ Anti-Incumbency

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राजस्थान में कांग्रेस की गहलोत सरकार ने साढ़े चार साल की अवधि सिर्फ कुर्सी की लड़ाई में निकाल दी है। इस कार्यकाल में जहां सचिन पायलट किसी न किसी तरह सीएम की कुर्सी पाने के लिए टक्कर लेते रहे, वहीं सीएम गहलोत ने अपना सारा समय कुर्सी को बचाने में निकाला। यह सबसे बड़ी वजह है कि राजस्थान की जनता कांग्रेस सरकार के मंत्रियों और विधायकों से नाखुश है। यह ‘कड़वी सच्चाई’ किसी और के नहीं, बल्कि खुद कांग्रेस द्वारा राजस्थान के बाहर की एजेंसी के सर्वे में उजागर हुई है। दबी जुबान से कांग्रेस सरकार और संगठन भी इसे मान रहे हैं। उनको लग रहा है कि जनता की नाखुशी एंटी इनकंबेंसी फेक्टर को और बढ़ा सकती है। इसलिए प्रदेश की जनता कांग्रेस के जनप्रतिनिधियों को चुनाव में बदले, इससे पहले कांग्रेस को ही लग रहा है कि पचास प्रतिशत मंत्री और मौजूदा विधायकों की टिकट काटनी पड़ेगी। उसे यह भी लग रहा है कि जनता के काम न होने का खामियाजा सात माह बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी के उम्मीदवारों को भुगतना पड़ेगा। इसलिए उसकी मजबूरी है कि वो ऐसे मौजूदा विधायकों को टिकट ही न दे।आधे से ज्यादा मंत्री-विधायकों को लेकर जबरदस्त एंटी इंकंबेंसी सामने आई
सीएम गहलोत-सचिन के सियासी संग्राम में सरकार की क्या स्थिति है, यह किसी से छिपी हुई नहीं है। साढ़े चार साल के कार्यकाल के दौरान सीएम की कुर्सी की लड़ाई, मंत्रियों के मंत्रियों के खिलाफ बयान, विधायकों की बारंबार बाड़ेबंदी, मंत्रिमंडल और कांग्रेस संगठन में खींचतान की चर्चा जनता के कामों के ज्यादा रही। अब तक चल रहे सियासी टकराव के बीच चुनावी साल में कांग्रेस ने राजस्थान से बाहर की एक एजेंसी से सभी विधानसभा सीटों का सर्वे कराया। सर्वे के नतीजे कई मंत्रियों और विधायकों के साथ ही कांग्रेस संगठन और सरकार की नींद उड़ाने वाले साबित हुए हैं। सर्वे के मुताबिक 50 प्रतिशत से ज्यादा मंत्री-विधायकों को लेकर जबरदस्त एंटी इंकंबेंसी सामने आई है। खुद प्रदेश प्रभारी सुखजिंदर सिंह रंधावा ने वन-टू-वन में मंत्री-विधायकों से साफ शब्दों में कहा कि आप जीत नहीं पाएंगे।सीएम बोले- पहले प्रभारी देखे जो अपने विधायकों से कह रहे जीत नहीं पाओगे
प्रदेश प्रभारी सुखजिंदर रंधावा और सीएम गहलोत ने 17 अप्रैल से 20 अप्रैल तक विधायकों से वन-टू-वन बात की थी। बताते हैं कि अचानक तय हुए विधायकों के वन-टू-वन के पीछे भी यही सर्वे मुख्य कारण है। हालांकि इसमें सचिन पायलट की ताजा बगावत पर विधायकों की रायशुमारी की बात भी सामने आई। बताते हैं कि कई विधायकों और मंत्रियों तक को वन–टू–वन के दौरान प्रभारी रंधावा ने साफ कह दिया कि आपकी स्थिति खराब है, आप दोबारा नहीं जीतोगे। किसी प्रभारी का इस तरह मंत्री-विधायकों को बोल देना चौंकाने वाला रहा। खुद सीएम गहलोत ने 19 अप्रैल को बिड़ला ऑडिटोरियम की मीटिंग में कहा- मैंने कई प्रभारी देखे, लेकिन रंधावा पहले प्रभारी हैं, जो विधायकों को साफ कह रहे हैं कि आप जीत नहीं पाएंगे। जिनकी अपने विधानसभा क्षेत्र में बहुत ज्यादा स्थिति खराब है, उनको कहा जा रहा है कि आपको टिकट दिया जाता है तो आप जीत नहीं पाएंगे। अब जबकि साढ़े चार साल निकल चुके हैं, तब जाकर बॉर्डर लाइन पर खड़े विधायकों और मंत्रियों से सीएम की तरफ से पूछा जा रहा है कि सरकार के स्तर पर उनके क्षेत्र में और क्या करना चाहिए? ताकि चुनाव में कांग्रेस की स्थिति कुछ ठीक की जा सके।पांच विधानसभा चुनावों से चल रहा है मौजूदा सरकार को बदलने के रिवाज
पिछले पांच चुनावों में राजस्थान में यह ट्रेंड रहा है कि जो पार्टी सत्ता में रहती है, वह चुनाव के बाद सत्ता से बाहर हो जाती है। सर्वे के नतीजे बताते हैं कि हालात ऐसे हैं कि अगले विधानसभा चुनाव में भी यह रिवाज जारी रहने की पूरी संभावना है। यही वजह है कि इस बार कांग्रेस सर्वे पर फोकस कर रही है। असल में कांग्रेस अपनी पिछली सरकारों के हश्र को ध्यान में रखते हुए हर बार सत्ता बदल जाने के ट्रेंड से कोई सबक नहीं लिया। और साढ़े चार साल तक जनता के बीच जाकर उसकी समस्याओं का निदान करने के बजाए सरकार अपनी सियासत में ही लगी रही। पब्लिक देख रही है कि जिसके लिए कांग्रेस के जनप्रतिनिधियों को चुनकर विधानसभा में भेजा था, उसके बजाए वो सिर्फ अपने हित साधने में ही लगे रहे।यहां बीजेपी मजबूत, 93 कमजोर सीटों पर कांग्रेस को नए चेहरों की तलाश 
करीब डेढ़-दो माह चले सर्वे में सभी विधानसभा सीटों की स्थिति का पता चलने के बाद अब कांग्रेस की मजबूरी बन गई है कि वो कमजोर सीटों पर नए चेहरों को उतारेगी। सर्वे के नतीजे बताते हैं कि प्रदेश में कांग्रेस 93 सीटों पर खुद को कमजोर मान रही है। कांग्रेस के लिए सबसे ज्यादा चिंता सर्वे में मौजूदा मंत्रियों और विधायकों को लेकर सामने आई है। सूत्र और सर्वे बताते हैं कि कांग्रेस की सबसे कमजोर कड़ी ये सीटें हैं- गंगानगर, अनूपगढ़, भादरा, बीकानेर ईस्ट, रतनगढ़, उदयपुरवाटी, फुलेरा, विद्याधरनगर, मालवीयनगर, सांगानेर, बस्सी, किशनगढ़बास, बहरोड, थानागाजी, अलवर शहर, नगर। नदबई, धौलपुर, महुआ, गंगापुरसिटी, मालपुरा, अजमेर नोर्थ, अजमेर साउथ, ब्यावर, नागौर, खींवसर, मेड़ता, जैतारण, सोजत, पाली, मारवाड़ जंक्शन, बाली, भोपालगढ़, सूरसागर, सिवाना, भीनमाल, सिरोही, रेवदर, उदयपुर, घाटोल, कुशलगढ़, राजसमंद, आसींद, भीलवाड़ा। बूंदी, कोटा साउथ, लाडपुरा, रामगंजमंडी, झालरापाटन और खानपुर सीट शामिल है। कमजोर सीटों में दूसरे नंबर पर सूरतगढ़, रायसिंहनगर, सांगरिया, पीलीबंगा, लूणकरणसर, श्री डूंगरगढ़, चुरू, सूरजगढ़, मंडावा, चौमूं, दूदू, आमेर, तिजारा, मुंडावर, नसीराबाद, मकराना, सुमेरपुर, फलौदी, अहोर, जालोर, रानीवाड़ा। पिंडवाड़ा–आबू, गोगूंदा, उदयपुर ग्रामीण, मावली, सलूंबर, धरियावद, आसपुर, सागवाड़ा, चौरासी, गढ़ी, कपासन, चित्तौड़गढ़, बड़ी सादड़ी, कुंभलगढ़, शाहपुरा, मांडलगढ़, केशोरायपाटन, छबड़ा, डग और मनोहरथाना की सीटें आती हैं।2013 के चुनाव में कांग्रेस 21 सीटों पर सिमट गई, मंत्री रहे 31 नेता हारे
2013 के चुनाव में कांग्रेस सत्ता में रहते हुए मैदान में उतरी थी। सरकार में मंत्री रहे ज्यादातर नेताओं को फिर से टिकट दिया, लेकिन इनमें से ज्यादातर मंत्री चुनाव नहीं जीत पाए। गहलोत मंत्रिमंडल का हिस्सा रहे 31 नेता सीट नहीं बचा पाए। इनमें दुर्रु मियां, भरतसिंह, बीना काक, शांति धारीवाल, भंवरलाल मेघवाल, ब्रजकिशोर शर्मा, परसादीलाल, डॉ. जितेंद्र सिंह, राजेंद्र पारीक, हेमाराम और हरजीराम बुरड़क जैसे दिग्गज नेता शामिल थे। असल में सत्ता के खिलाफ एंटीइंकंबेंसी विधायकों के साथ ज्यादा खतरनाक मंत्रियों के लिए साबित हुई। इस चुनाव में सिर्फ तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, मंत्री महेंद्रजीत मालवीय, गोलमा देवी, बृजेंद्र ओला और राजकुमार शर्मा ही जीते। इनके अलावा पूरा मंत्रिमंडल हार गया। कांग्रेस ने 2013 में जिन 105 उम्मीदवारों को 2008 में चुनाव लड़ाया था, उनको फिर से टिकट दिए, इनमें से 91 हार गए। सिर्फ 14 उम्मीदवार ही चुनाव जीत सके थे। तब भी रिपीट किए गए प्रत्याशियों में 75 विधायक भी शामिल थे, इनमें से सिर्फ 5 ही जीते। बाकी 70 विधायकों को हार का सामना करना पड़ा था। इस बार एंटी इनकंबेंसी और खतरनाक हो सकती है।महंगाई राहत शिविर लगाने का पासा भी सरकार के लिए पड़ सकता है उल्टा
सरकार के साढ़े चार साल बाद अब सरकार को महंगाई की याद आई है। लेकिन महंगाई राहत शिविर लगाने का पासा भी सरकार के लिए उल्टा पड़ सकता है, क्योंकि जनता जानती है कि पेट्रोल-डीजल के दाम महंगाई पर सीधा असर डालते हैं। यदि आवागमन सस्ता होगा तो सभी खाद्य वस्तुओं की आपूर्ति सस्ते में सुनिश्चित हो सकेगी। लेकिन गहलोत सरकार ने अन्य राज्यों की तुलना में प्रदेश में पेट्रोल-डीजल की दरें काफी ज्यादा रखी हुईं हैं और सरकार इनसे राजस्व कमा रही है। यहां तक कि केंद्र सरकार द्वारा पेट्रोल-डीजल की दरों में कमी कर दी गई, लेकिन राज्य स्तर पर कीमतों में बढ़ोत्तरी बनी रही। अब सरकार ने 24 अप्रेल से महंगाई राहत शिविर लगाना शुरू किया है। आज के ऑनलाइन युग में भी जनता को व्यक्तिगत स्तर पर आकर रजिस्ट्रेशन के लिए मजबूर किया जा रहा है। वह शिविरों में धक्के खाकर रजिस्ट्रेशन कराए, तभी उसको लोकलुभावन योजनाओं का लाभ मिल सकता है। जो रजिस्ट्रेशन नहीं कराएंगे, वो योजना से स्वत: ही बाहर हो जाएंगे। ऐसे लोग विरोध स्वरूप सरकार को भी अगले चुनाव में बाहर का रास्ता दिखा सकते हैं।

 

 

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