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वाह मीलार्ड! जिसने अडानी के खिलाफ साजिश रची, अब वही लोग जांच करेंगे! चुनाव आयुक्त नियुक्ति के लिए पैनल तो जजों की नियुक्ति के लिए क्यों नहीं?

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अगर आप ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म देखें तो इसमें बहुत बड़ा संदेश छिपा है। इस संदेश को समझने की जरूरत है। इसमें जो डायलाग हैं, ये डायलाग भर नहीं हैं। ये भावनाओं का सैलाब हैं जो कड़वी सच्चाई बयान करते हैं। उसके डायलाग पर नजर डालिए- ”सरकार उनकी है तो क्या हुआ सिस्टम तो हमारा है। तुम्हें सॉल्यूशन देना ही नहीं है, केवल होप देनी है कि देअर इज अ सॉल्यूशन। जब तक सच जूते पहनता है, झूठ पूरी दुनिया का चक्कर लगा के आ जाता है।” इन डायलाग को गहराई से समझें तो इसमें गहरे अर्थ छिपे हैं, जो देश और समाज को आगे नहीं, पीछे ले जाने वाले हैं। जैसे कांग्रेस पिछले 60 सालों तक सत्ता में रहते हुए होप (आशा) देती आ रही थी कि गरीबी दूर करेंगे। लेकिन 60 सालों में भी गरीबी दूर नहीं हुई। चूंकि सिस्टम 60 सालों में कांग्रेस का बनाया हुआ है, शायद यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट एक बाद एक फैसलों में कांग्रेस से जुड़े वकीलों और लोगों तरजीह दे रही है। वह चाहे अडानी मामले में कमेटी गठन की बात हो या फिर चुनाव आयुक्त नियुक्ति का मामला हो।

सरकार उनकी है तो क्या हुआ सिस्टम तो हमारा है

सुप्रीम कोर्ट के फैसले- चुनाव आयुक्त नियुक्ति और अडानी मामले में कमेटी के फैसले अनायास नहीं हैं, इसके पीछे गहरे अर्थ छिपे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबका साथ सबका विकास की जिस भावना के साथ दिन-रात मेहनत कर देश को आत्मनिर्भर बनाने और वंचितों को वरीयता देने के अभियान में जुटे हैं ये फैसले उनके पैर खींचने के समान है। इन फैसलों को देखने के बाद इस बात की आशंका भी बलबती होती है कि सत्ता परिवर्तन के खिलाड़ी डीप स्टेट एजेंट जार्ज सोरोस का प्रभाव क्या भारत के सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया?

…तो ये है जार्ज सोरोस के तुरुप का इक्का

अब यह स्पष्ट हो गया है कि अमेरिकी डीप स्टेट एजेंट जार्ज सोरोस ने जब शासन परिवर्तन का आह्वान किया, तो देश में यह देखा गया कि विपक्षी नेता उनके लिए काम कर रहे हैं। लेकिन अब दुर्भाग्य से यह भी देखने को मिल रहा है कि सुप्रीम कोर्ट उसका तुरुप का इक्का है। यह पूरा इकोसिस्टम है जिसमें विपक्षी दल, न्यायपालिका, मीडिया, एनजीओ, विश्वविद्यालय और एक्टिविस्ट शामिल हैं।

न्यायपालिका सर्वोच्च या संसद? लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर अब बहस हो

1993: सुप्रीम कोर्ट ने खुद को कॉलेजियम द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार दिया
2023: सुप्रीम कोर्ट ने खुद को चुनाव आयुक्त नियुक्त करने के लिए पैनल में बैठने का अधिकार दिया
सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में सीजेआई को शामिल कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हवाला दिया है। लेकिन यही सुप्रीम कोर्ट सीजेआई की नियुक्ति में सरकार को शामिल करने के मसले पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से कन्नी काट लेता है। सुप्रीम कोर्ट का यह दोहरा मानदंड है। सरकार को इन कार्यों को रोकने के लिए एक स्पष्ट कानून बनाना होगा। न्यायाधीशों को अपने पेशे पर ध्यान देना चाहिए, वे केस और मुकदमा संभालें! यही उनका मुख्य काम है। सरकारी कामकाज में दखलअंदाजी शोभा नहीं देता।

सुप्रीम कोर्ट के इन फैसलों को देखने से पता चलता है अमेरिकी अरबपति जार्ज सोरोस ने अदालतों पर भी अपना प्रभाव जमा लिया है। इन फैसलों पर एक नजर-

अडानी केस की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट ने बनाई कमेटी

विदेशी ताकतों ने साजिश कर देश के प्रमुख उद्योग समूह अडानी पर हिंडनबर्ग रिपोर्ट बनाई। अब सुप्रीम कोर्ट ने इसकी जांच के लिए 6 सदस्यों वाली एक्सपर्ट कमेटी बना दी है। दिलचस्प बात यह है कि इस कमेटी में ज्यादातर वैसे लोग हैं जो या तो कांग्रेस से जुड़े हुए हैं या उसके इकोसिस्टम का हिस्सा हैं। इस कमेटी के हेड रिटायर्ड जज एएम सप्रे होंगे। इसके अलावा इस एक्सपर्ट कमेटी में जस्टिस जेपी देवधर, ओपी भट्ट, केवी कामथ, नंदन नीलेकणि और सोमशेखर सुंदरेसन को शामिल किया गया है। देश के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जेबी पारदीवाला की बेंच ने 2 मार्च को ये आदेश दिया है।

वाह मीलार्ड! जिसने अडानी के खिलाफ साजिश रची, अब वही लोग जांच करेंगे

अमेरिका की 10 से कम स्टाफ वाली हिंडनबर्ग ने लाखों लोगों को रोजगार देने वाली अडानी की कंपनियों पर हमला कर दिया और यहां की विपक्षी पार्टियों और लेफ्ट लिबरल को सरकार के खिलाफ मुद्दा मिल गया। क्योंकि उन्हें वहां से कमीशन मिलता है। अगर विपक्षी पार्टियां और लेफ्ट लिबरल देशहित को ऊपर रखती तो दो टके की हिंडनबर्ग कंपनी के खिलाफ बोलती। अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी पारदर्शी न्याय करते हुए अडानी समूह की जांच उन्हीं लोगों को सौंप दी जो अडानी की छवि करने की साजिश में हैं।

SEBI पहले ही जांच कर रही, अब एक्सपर्ट कमेटी भी जांच करेगी

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है इस मामले में SEBI जो जांच कर रही है, वो जारी रहेगी और साथ ही एक्सपर्ट कमेटी भी अपना काम करती रहेगी। सवाल उठता है कि जब सेबी जांच कर ही रही है तो अलग से एक्सपर्ट कमेटी बनाने की क्या जरूरत थी। सुप्रीम कोर्ट को SEBI को अपना काम करने देना चाहिए और जांच के बाद कानून लागू करना चाहिए। किसी संस्था के कार्यकारी डोमेन पर अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। सेबी की जांच पूरी होने तक नियामक विफलता का कोई सबूत नहीं है। यह न्यायिक अतिक्रमण का क्लासिक मामला है। जबकि इस मामले में तो हिंडनबर्ग ने शॉर्ट सेलिंग करके मोटा मुनाफा कमाया। तो क्या यह माना जाए कि सुप्रीम कोर्ट हर बार बड़े पैमाने पर शॉर्ट सेलिंग होने पर एक समिति का गठन करेगा?

अडानी मामले में बनी कमेटी में शामिल लोग

अभय मनोहर सप्रेः 1978 में मध्य प्रदेश बार काउंसिल के सदस्य बने थे। 1999 में उन्हें मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में एडिशनल जज के पद पर नियुक्त किया गया। फिर 2014 में सुप्रीम कोर्ट का जज बनाया गया।

नंदन नीलेकणिः इंफ़ोसिस के को-फ़ाउंडर नंदन नीलेकणि आधार कार्ड, UPI, फास्टैग, GST जैसी टेक्नोलॉजी को लाने अहम भूमिका रही। नंदन नीलेकणि, बेंगलुरु दक्षिण से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ चुके हैं और भाजपा प्रत्याशी से हार गए। उनका कांग्रेस से जुड़ाव रहा है, यह बात जानते हुए भी सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें कमेटी में शामिल किया। इससे समझा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट को अपने उद्देश्यों को बेहतर ढंग से हासिल करने में मदद मिलेगी। उनकी पत्नी की एनजीओ ने वायर, ऑल्ट न्यूज, क्विंट, कारवां को फंड दिया।

के. वी. कामथः देश के मशहूर बैंकर हैं। वो ICICI बैंक के MD-CEO भी रहे और नेशनल बैंक फॉर फाइनेंसिंग इंफ्रास्ट्रक्चर एंड डेवलपमेंट के अध्यक्ष भी रहे। ओम प्रकाश भट्ट पेशे से बैंकर हैं। कामथ चंदा कोचर के गुरु थे जो धोखाधड़ी के आरोप में जेल में थे।

एडवोकेट सोमशेखर सुंदरसनः कमर्शियल कानून के एक्सपर्ट हैं। वो बिजनेस जर्नलिस्ट भी रह चुके हैं और सोशल मीडिया पर अक्सर कमर्शियल लॉ, बिजनेस, राजनीतिक और संवैधानिक मुद्दों पर राय देते रहते हैं। वह ऑक्सफैम इंडिया के बोर्ड में हैं, ऑक्सफैम खुद वित्तीय धोखाधड़ी की जांच का सामना कर रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि सुप्रीम कोर्ट सोमशेखर सुंदरेशन को बंबई हाईकोर्ट के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने में विफल रहने के बाद सरकार के खिलाफ रिपोर्ट बनाने के काम में लगा दिया है। क्या वह सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त पैनल का योग्य सदस्य हो सकता है?

ओपी भट्टः 2006-2011 के दौरान SBI के अध्यक्ष थे एवं पी. चिदंबरम के करीबी माने जाते हैं। विजय माल्या को कर्ज देने के मामले में वह सीबीआई के निशाने पर थे।

जस्टिस जेपी देवदत्तः बॉम्बे हाई कोर्ट के पूर्व जस्टिस हैं और सिक्योरिटीज़ ऐपिलैट ट्रिब्यूनल के पीठासीन अधिकारी रह चुके हैं।

ऑक्सफैम चला रहा अडानी विरोधी एजेंडा

ऑक्सफैम अडानी विरोधी एजेंडा चला रहा है। ऑक्सफैम को जॉर्ज सोरोस द्वारा वित्त पोषित किया जाता है जिन्होंने अडानी का नाम लेकर मोदी को खुली धमकी दी थी। उनके बोर्ड के सदस्य अब अडानी उद्यमों की जांच करेंगे। सोमशेखर खुद बीजेपी विरोधी हैं और हाईकोर्ट के जज के लिए उनका नाम मोदी सरकार ने खारिज कर दिया था।

चुनाव आयुक्तों के लिए पैनल तो जजों की नियुक्ति के लिए पैनल क्यों नहीं। इस पर एक नजर-

चुनाव आयुक्तों के लिए पैनल तो जजों की नियुक्ति के लिए क्यों नहीं?

सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को लेकर बड़ा फैसला सुनाया है। सर्वोच्च अदालत ने मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए पैनल बनाने का फैसला दिया। इस पैनल में प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष या सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता और चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया शामिल होंगे। यही पैनल मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों का चयन करेगी। हालांकि, अंतिम फैसला राष्ट्रपति का ही होगा। खास बात है कि सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ ने ये फैसला सर्वसम्मति से सुनाया है। एक तबका सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को लोकतांत्रिक बता रहा है तो सवाल उठता है कि यही लोकतांत्रिक प्रक्रिया जजों की नियुक्ति में क्यों नहीं अपनाई जानी चाहिए।

कालेजियम सिस्टम बहाल रखना दोहरा मानदंड नहीं?

सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में सरकार को चीफ़ जस्टिस (सीजेआई) और विपक्ष के नेता की भी राय लेनी पड़ेगी। यही सुप्रीम कोर्ट जजों की नियुक्ति में कालेजियम सिस्टम चालू रखना चाहता है और चुनी हुई सरकार से कोई राय नहीं लेना चाहता। इसे आप क्या कहेंगे? यह दोहरा मानदंड क्यों? क्या आपको नहीं लगता कि सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयुक्तों के चयन के लिए जिस नई पवित्र, बेहतर और पारदर्शी व्यवस्था को तय किया है, क्या वैसी ही व्यवस्था हाई कोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए भी नहीं होनी चाहिए?

जजों के चयन के लिए फुल कोर्ट मीटिंग क्यों नहीं?

सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश और 33 न्यायाधीश होते हैं लेकिन न्यायपालिका के लिए अधिवक्ताओं का चयन 5 न्यायाधीशों के कॉलेजियम द्वारा ही किया जाता है! इलाहाबाद उच्च न्यायालय में 160 न्यायाधीश हैं लेकिन न्यायपालिका के लिए अधिवक्ताओं का चयन 3 न्यायाधीशों के कॉलेजियम द्वारा ही किया जाता है! चयन के लिए फुल कोर्ट मीटिंग क्यों नहीं? फुल कोर्ट मीटिंग में सीधे तौर पर कोर्ट के सभी जज शामिल होते हैं। इस मीटिंग के दौरान सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के वकालत करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ताओं के नाम भी तय किए जाते हैं।

जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम सिस्टम पूरी तरह पारदर्शीः सुप्रीम कोर्ट

कॉलेजियम सिस्टम का खुलकर बचाव करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम सिस्टम सबसे पारदर्शी है। सिस्टम अपना काम कर रहा है, उसे डीरेल करने की कोशिश ना करें। दिल्ली हाई कोर्ट ने सूचना के अधिकार अधिनियम (RTI) के तहत 2018 की एक कॉलेजियम बैठक की सूचना देने से इनकार कर दिया था। इस फैसले के खिलाफ एक्टिविस्ट अंजलि भारद्वाज ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एमआर शाह और सीटी रविकुमार की बेंच ने सुनवाई की और कहा- जो सिस्टम काम कर रहा है, उसे पटरी से ना उतारा जाए। कॉलेजियम को अपना काम करने दें। हम सबसे पारदर्शी संगठन हैं। कॉलेजियम के पूर्व सदस्यों के फैसलों पर टिप्पणी करना फैशन बन गया है। 

जजों की नियुक्ति यानी राजशाही, मतलब- राजा का पुत्र ही राजा होगा

भारत में जजों की नियुक्ति के लिए जो कॉलेजियम सिस्टम फिलहाल काम कर रहा है वह परिपाटी विश्व के किसी भी प्रतिष्ठित देश में नहीं है। यह कुछ हद तक राजशाही की याद दिलाता है कि राजा का पुत्र ही राजा होगा। इस सिस्टम के तहत जज ही जजों को नियुक्त करता है। उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान व्यवस्था न तो संविधानसम्मत है और न ही लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल। महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने देश में भी 1993 से पहले कॉलेजियम व्यवस्था नहीं थी। 1993 से पहले कानून मंत्रालय ही नाम भेजता था।

सुप्रीम कोर्ट ने ‘कंसल्टेशन’ की व्याख्या ‘सहमति’ के रूप में की, जो कि उचित नहीं

कोर्ट ने संविधान में लिखे शब्द ‘कंसल्टेशन’ की व्याख्या ‘सहमति’ के रूप में की यानी विचार-विमर्श को मुख्य न्यायाधीश की ‘सहमति’ मान लिया। संविधान के अनुसार, राष्ट्रपति न्यायाधीश से विचार-विमर्श कर नियुक्ति को मंजूरी देंगे या देंगी। लेकिन कॉलेजियम व्यवस्था ने राष्ट्रपति उनके फैसले मानने को बाध्यकारी कर दिया है। 1993 में कॉलेजियम व्यवस्था जब अस्तित्व में आई तो उस समय देश की जनता ने इसका विरोध नहीं किया। लेकिन अब जबकि कॉलेजियम सिस्टम की बुराइयां उभरकर सामने आ गई हैं- परिवारवाद, आपसी खींचतान, जजों नियुक्ति में देरी, न्यायपालिका में फैसले देने की रफ्तार बेहद सुस्त पड़ने से न्यायपालिका की काफी बदनामी हुई है।

कॉलेजियम में जजों की नियुक्ति पर दांव-पेच उजागर, अदालत की साख गिरी

कुछ ही समय पहले की बात है जब चीफ जस्टिस यूयू ललित जिन चार जजों को नियुक्त करना चाहते थे, उसके लिए उन्होंने कॉलेजियम की बैठक बुलाई। पर जस्टिस डी.वाई चंद्रचूड़ उस रोज रात 9 बजे तक मुकदमों की सुनवाई करते रहे। इस वजह से बैठक हो ही नहीं पाई। जस्टिस ललित ने चारों कॉलेजियम जजों से सहमति लेने के लिए पत्र भेजा, जिसका दो जजों ने विरोध कर दिया। इस बीच कानून मंत्रालय ने जस्टिस ललित से कहा कि वे अगले चीफ जस्टिस के लिए नाम भेजें। इसके बाद कॉलेजियम की बैठक करना मुमकिन नहीं था। इसलिए चार जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को खत्म कर दिया गया। ये बेहद अशोभनीय था और इससे कॉलेजियम के बीच जजों की नियुक्ति को लेकर चलने वाले दांव-पेच उजागर हो गए।

अदालत को परिवारवाद से मुक्त करना चाहते हैं पीएम मोदी

परिवारवाद से देश को हुए नुकसान से भलीभांति परिचित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल की शुरुआत में ही कॉलेजियम सिस्टम को खत्म कर नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार, विपक्ष और जानकारों को शामिल करके आयोग बनाने की व्यवस्था लाने की कोशिश की थी, इसके लिए संविधान संशोधन भी किया गया और नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन कानून, 2014 भी पारित किया गया। लेकिन तब सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया था।

कॉलेजियम सिस्टम आज पूरी तरह फेल हो गई

कॉलेजियम सिस्टम आज पूरी तरह फेल हो गई है। किसी भी हालत में जजों को सियासत से दूर रखा जाना ज़रूरी है, जज ही जजों की नियुक्ति करें, ये भी ग़लत है। जजों की निष्ठा संविधान के लिए होनी चाहिए, न कि किसी व्यक्ति के लिए। साल 2015 में जब एनजेएसी को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया तो उस वक्त की जजों की पीठ ने माना कि कॉलेजियम की मौजूदा प्रणाली में दिक़्कतें हैं और उसे सुधारे जाने की ज़रूरत है। जब जजों ने ही कहा था कि इसे सुधारे जाने की जरूरत है तो फिर इसमें सुप्रीम कोर्ट ने सुधार क्यों नहीं किया। न तो वह खुद सुधार कर रही है और न ही सरकार को करने दे रही है।

विश्व के किसी प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक देश में यह व्यवस्था नहीं

कॉलेजियम व्यवस्था का निर्माण संविधान ने नहीं किया। इसका निर्माण स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने किया और ऐसा करके न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण का अधिकार पूरी तौर पर अपने हाथ में ले लिया। ऐसा विश्व के किसी प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक देश-और यहां तक कि ब्रिटेन और अमेरिका में भी नहीं होता। आखिर जब किसी देश में न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं करते तो भारत में ऐसा क्यों होना चाहिए? न्यायाधीशों की नियुक्ति की व्यवस्था में इसलिए संशोधन-परिवर्तन किया जाना चाहिए, क्योंकि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को खारिज करते समय स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने इस व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता रेखांकित की थी। आज देश नहीं जानता कि इस दिशा में कोई प्रगति क्यों नहीं हुई?

कॉलेजियम प्रणाली संविधान के प्रावधान द्वारा स्थापित नहीं

भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 सर्वोच्च और उच्च न्यायालय में क्रमशः न्यायाधीशों की नियुक्ति से सम्बद्ध हैं। परंतु कॉलेजियम प्रणाली संसद के किसी अधिनियम या संविधान के प्रावधान द्वारा स्थापित नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए नाम खुद सुप्रीम कोर्ट की कलीजियम तय करती है। इन नामों को सरकार के पास भेजा जाता है और फिर सरकार के संबंधित विभाग आईबी आदि से क्लियरेंस के बाद इन नामों को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजा जाता है।

कॉलेजियम सिस्टम से पहले कानून मंत्रालय ही नाम भेजता था

कॉलेजियम सिस्टम से पहले जो नियुक्ति की प्रक्रिया थी, उसके तहत लॉ मिनिस्ट्री नामों को रेफर करती थी और फिर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया उस बारे में अपना विचार देते थे और तब उन्हें राष्ट्रपति के पास रेफर कर दिया जाता था। इस प्रक्रिया से हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति होती थी।

कॉलेजियम सिस्टम 1993 में अस्तित्व में आया

1993 में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच ने आदेश पारित किया और कॉलेजियम सिस्टम की शुरुआत की। हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए नाम भेजा जाता है। सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया और 4 सीनियर जस्टिस होते हैं। उन नामों पर विचार के बाद सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम नाम तय करती है और फिर उसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में विचार-विमर्श को सहमति में बदल दिया

बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली हाई कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस आरएस सोधी कहते हैं, “संविधान में जो लिखा है उसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति चीफ़ जस्टिस से ‘कंस्लटेशन’ करेंगे, न कि सहमति लेंगे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में विचार-विमर्श को सहमति में बदल दिया। मैं मानता हूँ कि संसद सुप्रीम है और अगर आप किसी प्रोविजन से सहमत नहीं हैं तो आप उसे संसद में दोबारा विचार के लिए भेजिए या उसे रद्द कर दीजिए।”

सुप्रीम कोर्ट खुद के लिए कानून नहीं बना सकता, ये ‘हाइजैकिंग ऑफ़ पावर’

जस्टिस सोधी कहते हैं, “सुप्रीम कोर्ट खुद के लिए कानून नहीं बना सकता, इसे ‘हाइजैकिंग ऑफ़ पावर’ कहते हैं जो सुप्रीम कोर्ट को नहीं करना चाहिए था लेकिन उन्होंने किया। आपने फ़ैसले सुनाए और वो अधिकार अपने पास रख लिए जो आपके पास नहीं, संसद के पास होने चाहिए. मेरा मानना है कि संविधान में कहा गया है कि राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति करेगा और सीजेआई से हर पहलू पर चर्चा होगी. लेकिन राष्ट्रपति संसद का मुखिया होता है और वह मंत्रिमंडल की सलाह पर ही काम करता है, ऐसे में सीजेआई को सुपीरियर कैसे बनाया जा सकता है?”

संविधान में जजों की नियुक्ति को लेकर क्या कहा गया?

संविधान में इसका कुछ विवरण दिया गया है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति कैसे हो। इसके अनुसार, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के वरिष्ठ जजों से विचार-विमर्श करके ही राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति करेंगे। संविधान का अनुच्छेद 217 कहता है कि राष्ट्रपति हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया, राज्य के राज्यपाल और हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस से विचार-विमर्श करके निर्णय करेंगे।

कैसी पड़ी कॉलेजियम की बुनियाद

पहला केस 1981 का है जिसे एसपी गुप्ता केस नाम से भी जाना जाता है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जजों की नियुक्ति के लिए चीफ़ जस्टिस के पास एकाधिकार नहीं होना चाहिए और इस बात की ओर इशारा किया गया कि इसमें सरकार की भी भूमिका होनी चाहिए।

1993 में दूसरे केस में नौ जजों की एक बेंच ने कहा कि जजों की नियुक्तियों में चीफ़ जस्टिस की राय को बाकी लोगों की राय के ऊपर तरजीह दी जाए।

और फिर 1998 में तीसरे केस में सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम का आकार बड़ा करते हुए इसे पांच जजों का एक समूह बना दिया।

कॉलेजियम सिस्टम से परिवारवाद और ‘अंकल कल्चर’ पनपा

बीते लंबे वक़्त से यह बहस समय-समय पर उठती रहती है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जज चुने जाने की प्रक्रिया में भयंकर भाई-भतीजावाद है जिसे न्यायपालिका में ‘अंकल कल्चर’ कहते है, यानी ऐसे लोगों को जज चुने जाने की संभावना ज़्यादा होती है जिनकी जान-पहचान के लोग पहले से ही न्यायपालिका में ऊंचे पदों पर हैं।

कॉलेजियम भारत के चीफ़ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों का एक समूह है। ये पांच लोग मिलकर तय करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट में कौन जज होगा। ये नियुक्तियां हाई कोर्ट से की जाती हैं और सीधे तौर पर भी किसी अनुभवी वकील को भी हाई कोर्ट का जज नियुक्त किया जा सकता है।

हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति भी कॉलेजियम की सलाह से होती है जिसमें सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस, हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस और राज्य के राज्यपाल शामिल होते हैं।

कॉलेजियम बहुत पुराना सिस्टम नहीं है और इसके अस्तित्व में आने के लिए सुप्रीम कोर्ट के तीन फ़ैसले ज़िम्मेदार हैं जिन्हें ‘जजेस केस’ के नाम से जाना जाता है।

कॉलेजियम सिस्टम में खामियों के प्रमुख बिंदू-

1. कॉलेजियम सिस्टम संविधान की व्यवस्थाओं के खिलाफ है क्योंकि जजों की नियुक्ति जजों का नहीं, सरकार का काम है. जजों द्वारा जजों की नियुक्ति का सिस्टम दुनिया में कहीं और नहीं है।

2. कॉलेजियम सिस्टम के कारण जजों के बीच आपसी पॉलिटिक्स होती है और जज फैसला लिखने से ज्यादा ध्यान इस बात पर लगाते हैं कि कौन जज बने. इस वजह से जजों के बीच गुटबाजी होती है और नियुक्तियों में देरी होती है।

3. इस सिस्टम में भाई-भतीजावाद है क्योंकि ज्यादातर जज अपने रिश्तेदारों और जान-पहचान वालों की ही सिफारिश जज बनाने के लिए करते हैं।

4. कॉलेजियम सिस्टम आने से पहले यानी 1993 से पहले जो व्यवस्था थी, उससे बेहतर जज बन रहे थे और विवाद भी कम होता था।

सर्वोच्च न्यायालय में परिवारवाद

देश की न्यायपालिका में एक तिहाई से अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय उनके पिता, चाचा या अन्य कोई रिश्तेदार न्यायापालिका के उच्च पदों पर रहा या राजनीति में रहा। ऐसा कहने का मतलब यह है कि न्यायपालिका में भी अधिकांश उन्हीं लोगों को प्रवेश मिलता है जिनके परिवार का कोई न कोई व्यक्ति न्यायपलिका या राजनीति में रहा हो।

उच्च न्यायालयों में न्यायधीशों की नियुक्ति के लिए विभिन्न उच्च न्यायालयों के कॉलेजियम किस तरह से नियुक्ति करते हैं, इसका एक नमूना देखिए। वर्ष 2018 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने जिन वकीलों के नाम भेजे उनमें से आधे से अधिक व्यक्तियों के रिश्तेदार राजनीति या न्यायपालिका के ऊंचे पदों पर थे। यही हाल देश के अन्य उच्च न्यायालयों का भी है।

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