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लोकतंत्र की हत्या कर देश पर इमरजेंसी थोपा गया, कांग्रेस की तानाशाही का प्रतीक, आपातकाल को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा

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देश जब आजादी का अमृत महोत्सव वर्ष मना रहा है। यानि लोकतंत्र अपनी यात्रा के 75वें वर्ष में है वहीं आपातकाल के काले अध्याय के 48 साल पूरे हुए हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का नागरिक होने की बात जिसे हर भारतवासी गर्व के साथ कहते हैं उसी लोकतंत्र को 48 साल पहले आपातकाल का दंश झेलना पड़ा। सत्ता के लिए कांग्रेस ने लोकतंत्र की हत्या करने का पाप किया। 25-26 जून, 1975 की रात को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा देश पर थोपा गया आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक काला अध्याय के रूप में जुड़ गया। आपातकाल के दौरान नागरिकों के सभी मूल अधिकार खत्म कर दिए गए थे। राजनेताओं को जेल में डाल दिया गया था। जेल में लोगों को पशुओं की तरह बंद कर दिया गया और वीभत्स यातनाएं दी गईं।

एक परिवार ने सत्ता खोने के डर से लगाया आपातकाल
1975 में एक परिवार ने अपने हाथ से सत्ता निकलने के डर से जनता के अधिकारों को छीनकर व लोकतंत्र की हत्या कर देश पर आपातकाल थोपा था। अखबारों पर सेंसरशिप लगा दी गई थी। पूरा देश सुलग उठा था। जबरिया नसबंदी जैसे सरकारी कृत्यों के प्रति लोगों में भारी रोष था। यह आपातकाल ज्यादा दिन नहीं चल सका। करीब 21 महीने बाद लोकतंत्र फिर जीता, लेकिन इस जीत ने कांग्रेस पार्टी की चूलें हिला दी।

आपातकाल में पीएम मोदी ने निभाई थी अहम भूमिका
आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अहम भूमिका निभाई थी। आपातकाल के दौरान प्रेस की स्वतंत्रता छीनी जा चुकी थी। कई पत्रकारों को मीसा और डीआईआर के तहत गिरफ्तार कर लिया गया था। सरकार की कोशिश थी कि लोगों तक सही जानकारी नहीं पहुंचे। उस कठिन समय में नरेंद्र मोदी और आरएसएस के कुछ प्रचारकों ने सूचना के प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी उठा ली। इसके लिए उन्होंने अनोखा तरीका अपनाया। संविधान, कानून, कांग्रेस सरकार की ज्यादतियों के बारे में जानकारी देने वाले साहित्य गुजरात से दूसरे राज्यों के लिए जाने वाली ट्रेनों में रखे गए। यह एक जोखिम भरा काम था क्योंकि रेलवे पुलिस बल को संदिग्ध लोगों को गोली मारने का निर्देश दिया गया था। लेकिन नरेंद्र मोदी और अन्य प्रचारकों द्वारा इस्तेमाल की गई तकनीक कारगर रही।

इमरजेंसी कब लगाई गई और इसकी पृष्ठभूमि क्या थी। इस पर एक नजर-

25 जून, 1975 : 25 जून, 1975 की रात को राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने प्रधानमंत्री की सलाह पर उस मसौदे पर मुहर लगाते हुए देश में संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल घोषित कर दिया। लोकतंत्र को निलंबित कर दिया गया। संवैधानिक प्रावधानों के तहत प्रधानमंत्री की सलाह पर वह हर छह महीने बाद 1977 तक आपातकाल की अवधि बढ़ाते रहे।

संवैधानिक प्रावधानः अनुच्छेद 352 के तहत देश में आपातकाल घोषित करने का प्रावधान किया गया है। बाहरी आक्रमण अथवा आंतरिक अशांति के चलते इसे लगाया जा सकता है। प्रधानमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद के लिखित आग्रह के बाद राष्ट्रपति आपातकाल घोषित कर सकता है। प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में रखा जाता है और यदि एक महीने के भीतर वहां पारित नहीं होता तो वह प्रस्ताव खारिज हो जाता है।

इमरजेंसी का मसौदाः सियासी बवंडर, भीषण राजनीतिक विरोध और कोर्ट के आदेश के चलते इंदिरा गांधी अलग-थलग पड़ गईं। ऐसे में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने उनको देश में आंतरिक आपातकाल घोषित करने की सलाह दी। इसमें संजय गांधी का भी प्रभाव माना जाता है। सिद्धार्थ शंकर ने इमरजेंसी लगाने संबंधी मसौदे को तैयार किया था।

राजनीतिक असंतोष : 1973-75 के दौरान इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ देश भर में राजनीतिक असंतोष उभरा। गुजरात का नव निर्माण आंदोलन और जेपी का संपूर्ण क्रांति का नारा उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण था।

नवनिर्माण आंदोलन (1973-74) : आर्थिक संकट और सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ छात्रों और मध्य वर्ग के उस आंदोलन से मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल को इस्तीफा देना पड़ा। केंद्र सरकार ने राज्य विधानसभा भंग कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया।

संपूर्ण क्रांति: मार्च-अप्रैल, 1974 में बिहार के छात्र आंदोलन का जयप्रकाश नारायण ने समर्थन किया। उन्होंने पटना में संपूर्ण क्रांति का नारा देते हुए छात्रों, किसानों और श्रम संगठनों से अहिंसक तरीके से भारतीय समाज का रुपांतरण करने का आह्वान किया। एक महीने बाद देश की सबसे बड़ी रेलवे यूनियन राष्ट्रव्यापी हड़ताल पर चली गई। इंदिरा सरकार ने निर्मम तरीके से इसे कुचला। इससे सरकार के खिलाफ असंतोष बढ़ा। 1966 से सत्ता में काबिज इंदिरा के खिलाफ इस अवधि तक लोकसभा में 10 अविश्वास प्रस्ताव पेश किए गए।

ऐतिहासिक फैसला : 1971 के चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी के नेता राजनारायण को इंदिरा गांधी ने रायबरेली से हरा दिया। उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अर्जी दायर कर आरोप लगाया कि इंदिरा ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग कर चुनाव जीता। इंदिरा गांधी को हाई कोर्ट में पेश होना पड़ा। वह किसी भारतीय प्रधानमंत्री के कोर्ट में उपस्थित होने का पहला मामला था।

इंदिरा गांधी का निर्वाचन अवैधः 12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जगमोहनलाल सिन्हा ने फैसला सुनाते हुए इंदिरा गांधी को दोषी पाया। रायबरेली से इंदिरा गांधी के निर्वाचन को अवैध ठहराया। उनकी लोकसभा सीट रिक्त घोषित कर दी गई और उन पर अगले छह साल तक चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी गई। हालांकि वोटरों को रिश्वत देने और चुनाव धांधली जैसे गंभीर आरोपों से मुक्त कर दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट में भी हारी इंदिरा गांधीः इंदिरा गांधी ने फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। 24 जून, 1975 को जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने हाई कोर्ट के निर्णय को बरकरार रखते हुए इंदिरा गांधी को सांसद के रूप में मिल रही सभी सुविधाओं से वंचित कर दिया गया लेकिन प्रधानमंत्री पद सुरक्षित रहा। अगले दिन जेपी ने दिल्ली में बड़ी रैली कर कहा कि पुलिस अधिकारी अनैतिक सरकारी आदेश न मानें। इसे अशांति भड़काने के रूप में देखा गया।

आपातकाल में नागरिकों के मौलिक अधिकार हो गए निलंबित
आपातकाल की घोषणा के साथ ही सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए थे। अभिव्यक्ति का अधिकार ही नहीं, लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया था। 25 जून की रात से ही देश में विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारियों का दौर शुरू हो गया था। जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नाडीस आदि बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया था। जेलों में जगह नहीं बची थी। आपातकाल के बाद प्रशासन और पुलिस द्वारा भारी उत्पीड़न की कहानियां सामने आई थीं। प्रेस पर भी सेंसरशिप लगा दी गई थी। हर अखबार में सेंसर अधिकारी बैठा दिया गया, उसकी अनुमति के बाद ही कोई समाचार छप सकता था। सरकार विरोधी समाचार छापने पर गिरफ्तारी हो सकती थी। यह सब तब थम सका, जब 23 जनवरी, 1977 को मार्च महीने में चुनाव की घोषणा हो गई।

इंदिरा गांधी का न्यायपालिका से टकराव
दरअसल लालबहादुर शास्त्री की मौत के बाद देश की प्रधानमंत्री बनीं इंदिरा गांधी का कुछ कारणों से न्यायपालिका से टकराव शुरू हो गया था। यही टकराव आपातकाल की पृष्ठभूमि बना था। आपातकाल के लिए 27 फरवरी, 1967 को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने बड़ी पृष्ठभूमि तैयार की। एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सुब्बाराव के नेतृत्व वाली एक खंडपीठ ने सात बनाम छह जजों के बहुमत से सुनाए गए फैसले में यह कहा था कि संसद में दो तिहाई बहुमत के साथ भी किसी संविधान संशोधन के जरिये मूलभूत अधिकारों के प्रावधान को न तो खत्म किया जा सकता है और न ही इन्हें सीमित किया जा सकता है।

कोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त किया
1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी को जबर्दस्त जीत दिलाई थी और खुद भी बड़े मार्जिन से जीती थीं। खुद इंदिरा गांधी की जीत पर सवाल उठाते हुए उनके चुनावी प्रतिद्वंद्वी राजनारायण ने 1971 में अदालत का दरवाजा खटखटाया था। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर इंदिरा गांधी के सामने रायबरेली लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ने वाले राजनारायण ने अपनी याचिका में आरोप लगाया था कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया है। मामले की सुनवाई हुई और इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त कर दिया गया। इस फैसले से आक्रोशित होकर ही इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाने का फैसला लिया।

कैबिनेट औपचारिक बैठक नहीं हुई, फिर भी आपातकाल की घोषणा
इस फैसले से इंदिरा गांधी इतना क्रोधित हो गई थीं कि अगले दिन ही उन्होंने बिना कैबिनेट की औपचारिक बैठक के आपातकाल लगाने की अनुशंसा राष्ट्रपति से कर डाली, जिस पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने 25 जून और 26 जून की मध्य रात्रि में ही अपने हस्ताक्षर कर डाले और इस तरह देश में पहला आपातकाल लागू हो गया।

इमरजेंसी को लेकर सोनिया गांधी को पछतावा नहीं
इंदिरा गांधी के प्राइवेट सेक्रेटरी रहे दिवंगत आर.के. धवन ने कहा था कि सोनिया और राजीव गांधी के मन में इमरजेंसी को लेकर किसी तरह का संदेह या पछतावा नहीं था। धवन ने यह भी कहा था कि इंदिरा गांधी जबरन नसबंदी और तुर्कमान गेट पर बुलडोजर चलवाने जैसी ज्यादतियों से अनजान थीं। इन सबके लिए केवल संजय गांधी ही जिम्मेदार थे। इंदिरा को तो यह भी नहीं पता था कि संजय अपने मारुति प्रॉजेक्ट के लिए जमीन का अधिग्रहण कर रहे थे। धवन के मुताबिक इस प्रॉजेक्ट में उन्होंने ही संजय की मदद की थी, और इसमें कुछ भी गलत नहीं था।

बंगाल के सीएम एस.एस.राय ने दी थी आपातकाल लगाने की सलाह
आर.के. धवन बताया था कि पश्चिम बंगाल के तत्कालीन सीएम एसएस राय ने जनवरी 1975 में ही इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की सलाह दी थी। इमर्जेंसी की योजना तो काफी पहले से ही बन गई थी। धवन ने बताया था कि तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को आपातकाल लागू करने के लिए उद्घोषणा पर हस्ताक्षर करने में कोई आपत्ति नहीं थी। वह तो इसके लिए तुरंत तैयार हो गए थे। धवन ने यह भी बताया था कि किस तरह आपातकाल के दौरान मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाकर उन्हें निर्देश दिया गया था कि आरएसएस के उन सदस्यों और विपक्ष के नेताओं की लिस्ट तैयार कर ली जाए, जिन्हें अरेस्ट किया जाना है। इसी तरह की तैयारियां दिल्ली में भी की गई थीं।

आईबी की रिपोर्ट और 1977 का चुनाव
इंदिरा गांधी ने 1977 के चुनाव इसलिए करवाए थे, क्योंकि आईबी ने उनको बताया था कि वह 340 सीटें जीतेंगी। उनके प्रधान सचिव पीएन धर ने उन्हें यह रिपोर्ट दी थी, जिस पर उन्होंने भरोसा कर लिया था। लेकिन उन चुनावों में उन्हें करारी हार मिली।

इमरजेंसी के दौरान इंदिरा के घर में था अमेरिकी जासूस
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर में 1975 से 1977 के दौरान एक अमेरिकी भेदिया था, जो उनके हर पॉलिटिकल मूव की खबर अमेरिका को दे रहा था। यह खुलासा विकिलीक्स ने कुछ साल पहले अमेरिकी केबल्स के हवाले से किया था। विकिलीक्स के मुताबिक, इमरजेंसी के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर में मौजूद इस भेदिए की उनके हर राजनीतिक कदम पर नजर थी। वह सारी जानकारी अमेरिकी दूतावास को मुहैया करा रहा था। केबल्स में इस भेदिए के नाम का खुलासा नहीं किया गया।

डिलीवरी के दौरान पैरों को जंजीरों से बांधा गया
आपातकाल की एक घटना दिल दहला देने वाली है। बेंगलुरु में गायत्री नाम की महिला ने आपातकाल के विरोध में सत्याग्रह किया। पुलिस ने उनको गिरफ्तार कर लिया। उस वक्त वह गर्भवती थीं। जेल में जब उनको प्रसव वेदना हुई तक उनको हॉस्पिटल ले जाया गया। जिस बेड पर डिलीवरी हुई उनके दोनों पैरों को जंजीर से बांधकर रखा गया था। इससे वीभत्स यातना क्या हो सकती है, इसकी कल्पना ही की जा सकती है।

दिव्यांग को तिहाड़ में लात-घूंसों से मारा गया
आपातकाल की एक अन्य घटना पीड़ादायक है। ओम प्रकाश कोहली दिव्यांग थे और पुलिस ने तिहाड़ में उनको लात-घूंसों से मारा और काफी अपमानित किया। इससे पैरों पर खड़े होना उनके लिए मुश्किल हो गया। तब वह कॉलेज के प्रोफेसर थे। इसी तरह की यातना की घटनाएं पूरे देश में हुईं।

एक लाख से ज्यादा लोगों को झेलनी पड़ी जेल यातना
देश पर 21 माह तक थोपे गए आपातकाल के संघर्ष के दौर में लगभग 25 हजार लोग मीसा (मेंटेनेंस आफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट) यानी आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के तहत बंद किए गए और एक लाख 40 हजार से ज्यादा लोगों ने जेल की यातना झेली थी। यह ग्रहण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के तानाशाही चरित्र को दर्शाती है।

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