कांग्रेस पार्टी परिवारवाद के नाम पर एक ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाने का सपना देख रही है जिसे सामान्य कार्यप्रणाली के बारे में बेसिक जानकारी नहीं है। हर व्यक्ति, संस्था और विभाग की अपनी जिम्मेदारी होती है, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बेटे राहुल गांधी ने रविवार 24 जनवरी को तमिलनाडु के इरोड में दावा किया कि अगर किसानों और मजदूरों को सुरक्षा और अधिकार दिया गया तो चीन भारतीय क्षेत्रों में घुसपैठ करने की हिम्मत नहीं करेगा। उन्होंने कहा कि देश को आर्मी की कोई जरूरत ही नहीं हैं, क्योंकि देश के किसानों और गरीबों के जरिए ही चीन को सीमा पर मात दी जा सकती है, इसलिए हमें इन्हें मजूबत करना चाहिए।
After calling Army Chief Saḍak Ka Gunḍa, doubting Surgical Strikes now @rahulgandhi at it again – in @narendramodi virodh does Sena virodh
WE DONT NEED ARMY NAVY – Our workers farmers will protect borders and china wont come in
WHY PIT JAWAN Vs KISAN
Why doubt Forces pic.twitter.com/FIC2vbg1G9— Shehzad Jai Hind (@Shehzad_Ind) January 24, 2021
राहुल गांधी के इस सुझाव पर कि अगर भारत के किसान, श्रमिक और मजदूर मजबूत होते, तो भारत को सीमाओं पर सेना, नौसेना और वायु सेना को तैनात करने की आवश्यकता नहीं होती, खासकर इंडो-चाइना बॉर्डर पर। लोग वो जमाना याद कर रहे हैं जब राहुल के नाना जवाहर लाल नेहरू की नीतियों के कारण चीन ने फायदा उठाया था। सेना को मजबूत ना करना हो या फिर चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सीट भेंट करना हो, कश्मीर पर लचीला रवैया हो या फिर नेपाल को भारत में ना मिलाने का फैसला हो… भारत अभी तक उसका खिमायाजा झेल रहा है।
आइए, देखते हैं आखिर कांग्रेस की नीतियों की वजह से देश को कहां-कहां नुकसान उठाना पड़ा।
नेहरू राज में अक्साई चिन, पीओके भारत के हाथ से निकला
1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान कांग्रेस पार्टी का देश में एकछत्र राज था, उस समय केंद्र में जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस की मजबूत सरकार थी, फिर भी आखिर कौन-सी कमियां रहीं कि चीन ने भारतीय सीमा में अक्साई चिन क्षेत्र के करीब 40,000 वर्ग किलोमीटर को हड़प लिया। इन पर अब भी चीन का ही अधिकार है। इसके साथ ही, 1947 में पाकिस्तान ने कश्मीर के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया। पीओके का यह इलाका 13,300 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला है। पाकिस्तान इसे आजाद कश्मीर कहता है।
भारत की जगह चीन को बनाया यूएनओ का सदस्य
यह सच है कि चीन ने भारत के साथ छल किया और ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ के गुमान में भूले भारत के साथ विश्वासघात किया। लेकिन, इस युद्ध में हार की बड़ी वजह नेहरू सरकार की गलत नीतियां थीं, जो अपने देश के हित से आगे चीन का हित रखती थी, जो चीन के मंसूबे को भांप नहीं सकी। 1947 में भारत को आजादी मिली और उसके ठीक दो साल बाद यानि 1949 में माओत्से तुंग के नेतृत्व में साम्यवादी दल ने अक्टूबर, 1949 को चीनी लोक गणराज्य (पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना) की स्थापना की। उस दौर में भारत सरकार शुरू से ही चीन से दोस्ती बढ़ाने की पक्षधर थी। जब चीन दुनिया में अलग-थलग पड़ गया था, उस समय भी भारत चीन के साथ खड़ा था। जापान के साथ एक वार्ता में भारत सिर्फ इस वजह से शामिल नहीं हुआ, क्योंकि चीन आमंत्रित नहीं था। कई दावे ऐसे भी हैं कि जवाहर लाल नेहरू की गलती की वजह से भारत ने संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता ठुकरा दी और अपनी जगह यह स्थान चीन को दे दिया।
चीन को सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए नेहरू ने की लॉबिंग, सरदार पटेल की भी नहीं सुनी
उस दौर में काल्पनिक आदर्शवाद और नैतिकता का बोझ जवाहर लाल नेहरू पर इतना था कि वे चीन को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिलवाने के लिए पूरी दुनिया में लाबिंग करने लगे। लेकिन, सरदार पटले ने चीन की चाल को भांप लिया था। वर्ष 1950 में ही सरदार पटेल ने नेहरू को चीन से सावधान रहने के लिए कहा था। अपनी मृत्यु के एक महीने पहले ही 7 नवंबर 1950 को देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने चीन के खतरे को लेकर नेहरू को आगाह करते हुए एक चिट्ठी में लिखी थी कि भले ही हम चीन को मित्र के तौर पर देखते हैं, लेकिन कम्युनिस्ट चीन की अपनी महत्वकांक्षाएं और उद्देश्य हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि तिब्बत के गायब होने के बाद अब चीन हमारे दरवाजे तक पहुंच गया है। लेकिन, अपने अंतरराष्ट्रीय आभामंडल और कूटनीतिक समझ के सामने पंडित नेहरू ने किसी की भी सलाह को अहमियत नहीं दी।
एंडरसन-भगत की सीक्रेट रिपोर्ट- नेहरू की नीतियां जिम्मेदार
क्या तय थी 1962 में चीन के हाथों भारत की हार? क्या बिना तैयारी के भेजे गए थे भारतीय सैनिक? क्या मोर्चे पर चीन की तैयारियों के बारे में भारत के पास कोई सूचना नहीं थी? दरअसल, इन्हीं सवालों का जवाब लेफ्टिनेंट जनरल नील एंडरसन और ब्रिगेडियर पीएस भगत ने अपनी रिपोर्ट में ढूंढने की कोशिश की थी। इस रिपोर्ट को गोपनीय घोषित कर दिया गया था। इसकी दोनों कॉपियों को रक्षा मंत्रालय में सुरक्षित रख दिया गया था। लेकिन 1962 के दौर में ‘टाइम’ के संवाददाता के तौर पर दिल्ली में काम कर रहे मैक्स नेविल ने इस रिपोर्ट के मौजूद होने का दावा किया था। मैक्स नेविल का दावा था कि रिपोर्ट में हार के लिए नेहरू की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया गया था। नेहरू की फारवर्ड पॉलिसी पूरी तरह नाकाम साबित हुई। साथ ही, दिल्ली और सेना के फील्ड कमांडरों के बीच तालमेल की बेहद कमी, सैनिकों की खराब तैयारियां और संसाधनों की कमी को भी जिम्मेदार माना गया।
आस्ट्रेलिया के पत्रकार मैक्स नेविल ने एक किताब इंडियाज चाइना वार लिखी, जिसमें इस सीक्रेट रिपोर्ट के हवाले से कई दावे किए गए।
सेना की हथियारों की मांग पर ध्यान नहीं दिया गया
1961 के मध्य तक चीन के सुरक्षा बल सिक्यिांग-तिब्बत सडक पर वर्ष 1957 की अपनी स्थिति से 70 मील आगे बढ़ चुके थे। भारत की 14 हजार वर्ग मील जमीन पर कब्जा किया जा चुका था। देश में तीखी प्रतिक्रिया हुई। सरकार आलोचना के घेरे में आ गई। आलोचनाओं से तंग आकर नेहरू ने तत्कालीन सेना प्रमुख पीएन थापर को चीनी सैनिकों को भारतीय इलाके से खदेड़ने का आदेश दिया। थापर बहुत पहले से सेना की बदहाली से अवगत करा रहे थे, बार-बार वह हथियार और संसाधनों की मांग कर रहे थे। नेहरू ने कभी उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया।
नेहरू के अपरिपक्व बयान पर चीन ने कर दिया आक्रमण
13 अक्टूबर 1962 श्रीलंका जाते हुए नेहरू ने चेन्नई में मीडिया को बयान दिया कि उन्होंने सेना को आदेश दिया है कि वह चीनियों को भारतीय सीमा से निकाल फेकें। नेहरू के इस बयान से सैनिक हेडक्वार्टर हक्का-बक्का रह गया। जब सेना प्रमुख थापर ने रक्षा मंत्री से इस बारे में पूछा, तब उनका जवाब था कि प्रधानमंत्री का बयान राजनीतिक स्टेटमेंट है। इसका अर्थ है कि कारवाई दस दिन में भी की जा सकती है और सौ दिन में या हजार दिन में भी। लेकिन नेहरू के इस बयान के आठ दिन बाद चीनियों ने आक्रमण कर दिया।