Home समाचार दिल्ली की सीमा पर आधुनिक सुविधाओं से लैस तंबुओं से हो रहा...

दिल्ली की सीमा पर आधुनिक सुविधाओं से लैस तंबुओं से हो रहा है छोटे और सीमांत किसानों की हकमारी का आंदोलन

SHARE

दिल्ली की सीमा पर डेरे डाले किसानों की हठधर्मिता और उनकी तैयारी देखकर लगता है कि उन्हें किसानों की समस्याओं के समाधान से कोई लेनादेना नहीं है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित समिति को जिस तरह ठुकराया है, उससे पता चलता है कि उनका मकसद सिर्फ राजनीतिक है। गौर करने वाली बात यह है कि इस तथाकथित किसान आंदोलन में देश के 85 प्रतिशत छोटे एवं सीमांत किसानों की आवाज सुनाई नहीं दे रही है। उन्होंने इस आंदोलन से अपनी दूरी बना रखी है। 

नए कृषि कानूनों से अगर सबसे ज्यादा कोई परेशान है, तो वह है आढ़तिया। नए कृषि कानूनों के तहत जब किसान सीधे अपनी उपज बेचेगा और कृषि उपज के खरीदार बढ़ेंगे तो आढ़तियों का एकाधिकार टूटेगा। किसानों को ही बेहतर मूल्य मिलेगा। यानि किसानों का फायदा तय है। ऐसे में स्वाभाविक है कि जिन सीमांत किसानों का इससे फायदा होना है वे इस आंदोलन में भागीदार ही नहीं हैं। खेतिहर मजदूर भी साथ नहीं हैं। यह कुछ बड़े संपन्न किसानों का शक्ति प्रदर्शन मात्र बनकर रह गया, जो अपनी आर्थिक ताकत के प्रदर्शन से सरकार को झुकाकर अपनी मनमानी जारी रखना चाहते हैं।

देश में औसत जोत 1.5 से 2 एकड़ है, यानि एक हेक्टेयर से भी काफी कम। पंजाब में जहां औसत जोत का आकार पांच-छह हेक्टेयर और हरियाणा में करीब तीन हेक्टेयर है वहां पारिवारिक जरूरत से ज्यादा उपज होता है। कृषि अधिशेष अधिक होने की वजह से वे अपनी उपज को बाजारों में बेचते और मुनाफा कमाते हैं। आमदनी अधिक होने से आधुनिक कृषि उपकरणों में अधिक निवेश करते हैं। ट्रैक्टरों का जुलूस इसी का नतीजा है। बड़े किसानों के बीच ही आढ़ती पलते हैं। इनकी ताकतवर लॉबी भी है, जो सरकार पर दबाव बनाने का काम करती है। पंजाब और हरियाणा में तो किसानों के तमाम नेता हैं, पर बिहार और पूर्वांचल में छोटे और सीमांत किसानों के नेता कौन है? नेतृत्व विहीनता भी छोटे किसानों का एक बड़ा संकट है।

टिकरी से सिंघु तक आधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस तंबुओं में बैठे संपन्न किसानों के बीच छोटे और सीमांत किसान की समस्याएं गुम हो गई है। छोटे और सीमांत किसानों में ही आत्महत्या की दर सबसे अधिक है। यहां तक कि ये ही किसान आढ़तियों के ऋणजाल में फंसकर आत्महत्या के लिए मजबूर होते हैं। लेकिन इन किसानों की आवाज दिल्ली की सीमा पर सुनाई नहीं दे रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि जो किसान अपने पेट की भूख मिटाने के लिए जद्दोजहद कर रहा है, वह यहां महीनों बैठकर अपने पेट पर लात कैसे मारेगा और आढ़तियों का कर्ज कैसे चुकाएगा ?

दिल्ली की सीमा पर ताकत और संपन्नता का जो नंगा प्रदर्शन हो रहा है, उसमें आदमी से ज्यादा ट्रैक्टर और बड़ी गाड़ियां दिखाई दे रही हैं, सरकार को औकात बताने, कानून वापसी तक सड़क जाम रखने, दिल्ली दंगों के आरोपितों को छुड़ाने की बातें हो रही है, वहां भला देश के 85 प्रतिशत मजदूर-कृषकों की परवाह किसे होगी ? देश की जीडीपी में कृषि की भागीदारी 16 प्रतिशत है जबकि उस पर निर्भर आबादी करीब 58 प्रतिशत है। यानि आधे से अधिक आबादी का योगदान मात्र 16 प्रतिशत है। इससे स्पष्ट है कि संपन्न और सुविधाभोगी कृषक वर्ग अपने वर्चश्व के लिए लड़ाई लड़ रहा है। इस लड़ाई में छोटे और सीमांत किसानों का हक मारने की कोशिश हो रही है।

Leave a Reply Cancel reply