प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने कार्यकाल के दौरान देश के सर्वांगीण विकास के अलावा कांग्रेस द्वारा की गई कई ऐतिहासिक भूलों को भी सुधारने का कार्य किया है। इस संदर्भ में उनके द्वारा भारत के यशस्वी पूत बाबासाहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर के योगदानों को चिरस्थायी करने के साथ-साथ उनको समुचित सम्मान देने का कार्य अत्यंत सराहनीय है। उधर अपनी पार्टी की किरकिरी होता देख कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पूरी बेशर्मी के साथ कांग्रेस को डॉक्टर अम्बेडकर का सच्चा वारिस बताने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी है। हालांकि, जब हमने डॉ. अम्बेडकर से जुड़ी कई विश्वसनीय पुस्तकों को खंगाला और इस बारे में गहराई से पड़ताल की, तो कांग्रेसी दावों की पोल खुल गई। डॉ. अम्बेडकर के समकालीन नेहरू ने प्रधानमंत्री बनने के बाद और उसके पूर्व भी उनके साथ जिस तरह का सौतेला व्यवहार किया वो वाकई में शर्मनाक है। आइए, 10 सबूतों के सहारे जानने की कोशिश करते हैं कि कैसे नेहरू हमेशा डॉ. अम्बेडकर को दरकिनार करने में लगे रहे:
पहला सबूत
डॉक्टर अम्बेडकर को पूरा देश ‘संविधान निर्माता’ के रूप में जानता है, लेकिन उनके लिए संविधान सभा की डगर काफी मुश्किलों भरी रही। 1946 में संविधान सभा के सदस्य के तौर पर चयन का सवाल हो या भारत-विभाजन के बाद हुए चुनाव के जरिए वापसी करना, दोनों ही मौकों पर नेहरू ने बाबासाहेब को संविधान सभा में न आने देने के हरसंभव प्रयास किए थे। ये कहना गलत न होगा कि कोलम्बिया यूनिवर्सिटी और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पीएचडी की उपाधि लेकर आए डॉ. अम्बेडकर को लेकर नेहरू ‘इन्फीरियर्टी कॉम्प्लेक्स’ का शिकार थे।
दूसरा सबूत
बी. शिवा राव लिखित पुस्तक “The framing of India’s Constitution: A Study” के मुताबिक़ 1946 में संविधान सभा के लिए चुने गए 296 सदस्यों में अम्बेडकर भी शामिल थे लेकिन वो अपने गृह प्रांत बंबई की बजाए बंगाल से चुन कर आए थे। दुर्भाग्यवश देश-विभाजन के बाद अम्बेडकर को अपनी सीट गंवानी पड़ी। लेकिन फिर हुए चुनाव में गांधीजी की सक्रिय पहल पर वो बंबई से चुने गए। यहां ये जानना जरूरी है कि नेहरू ने इस बार भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यह कहना गलत न होगा कि नेहरू ने डॉ. अम्बेडकर की वापसी को व्यक्तिगत हार के तौर पर लिया और बदले की भावना से प्रेरित होकर आगे भी उनकी राह में रोड़े अटकाते रहे।
तीसरा सबूत
जब अंतरिम कैबिनेट में डॉक्टर अम्बेडकर को जगह देने पर चर्चा हुई तो नेहरू ने इसके खिलाफ बिगुल फूंक दिया। लेकिन बाबू जगजीवन राम के अनुरोध पर एक बार फिर गांधी जी ने सहृदयता दिखाई और फलस्वरूप डॉ. अम्बेडकर को कैबिनेट में शामिल किया गया। अरुण शौरी (‘Worshipping False Gods’) और क्रिस्टोफ जेफरलॉट (‘Ambedkar and Untouchability’) ने इस बात की पुष्टि की है। साथ ही, गांधीजी के पोते राजमोहन गांधी ने भी अपनी किताब ‘The Good Boatman’ में इस बारे में विस्तार से चर्चा की है।
चौथा सबूत
नेहरू-अम्बेडकर संबंधों का ‘लो प्वॉइंट’ तब आया जब 1952 के चुनाव में बाबासाहेब को बंबई उत्तरी लोक सभा सीट से कांग्रेस प्रत्याशी एन. एस. काजरोलकर के हाथों हार का सामना करना पड़ा। तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने डॉ. अम्बेडकर को हराने के लिए एड़ी-चोटी का जोड़ लगा दिया था, जिसका उन्हें अपेक्षित परिणाम भी मिला। दुर्भाग्यवश तब नेहरू को यह नीच कृत्य करने से रोकने के लिए गांधीजी जीवित न थे।
पांचवां सबूत
नेहरू की विदेश नीतियों को लेकर बाबासाहेब का एक तरह से मोहभंग हो चुका था। उन्होंने कहा था, “जब 15 अगस्त, 1947 को हमने एक आजाद मुल्क के तौर पर अपनी जिंदगी शुरू की, किसी ने हमारा बुरा नहीं चाहा। विश्व के समस्त देश हमारे मित्र थे। आज 4 साल बाद, हमारे सारे मित्र हमें छोड़ गए हैं। हमारा कोई मित्र नहीं बचा है। हमने खुद को अलग-थलग कर लिया है। हम बेखबर हो कर अपना एजेंडा बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं जबकि हकीकत में संयुक्त राष्ट में हमारे रिजॉल्यूशन को समर्थन देने को कोई तैयार नहीं है।” हालांकि नेहरू ने अपने अहंकार में कभी भी डॉ. अम्बेडकर के सुझावों को नहीं माना और कश्मीर समस्या का दंश हम आज तक झेल रहे हैं।
छठा सबूत
डॉक्टर अम्बेडकर नेहरू की पाकिस्तान पॉलिसी के मुखर विरोधी थे और इसे ‘सेल्फ डिफिटिंग’ बताया था। उन्होंने कश्मीर समस्या और पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं की बदहाली को लेकर नेहरू की काफी आलोचना की थी। लेकिन बाकी मुद्दों की तरह इन मुद्दों पर भी नेहरू ने अपने कैबिनेट सहकर्मी को नजरअंदाज किया। इससे साफ जाहिर होता है कि नेहरू आत्ममुग्धता के शिकार थे और दूसरों की सलाह की उन्हें कोई परवाह नहीं थी। अगर तब चेत गए होते तो बांग्लादेशी घुसपैठ समेत रोहिंग्या समस्या से हमें आज दो-चार नहीं होना पड़ता।
सातवां सबूत
नेहरू ने डॉ. अम्बेडकर पर कभी विश्वास नहीं किया और उन्हें जानबूझ कर महत्वपूर्ण मंत्रालयों से दूर रखा। बाबासाहेब ने अपनी नाखुशी जाहिर करते हुए लिखा था, “जहां एक तरफ कई सारे मंत्रियों को 2-3 विभाग आवंटित किए गए थे, मुझे कैबिनेट की मुख्य कमेटियों जैसे विदेश मामले कमेटी या रक्षा कमेटी तक का सदस्य नहीं बनाया गया।” इससे स्पष्ट है कि किस तरह नेहरू ने डॉ. अम्बेडकर जैसे विद्वान और दूरदर्शी व्यक्ति को अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
आठवां सबूत
डॉक्टर अम्बेडकर एक प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री थे और उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने और राष्ट्र निर्माण के लिए कई बहुमूल्य सुझाव दिए। चाहे वो दामोदर घाटी परियोजना हो, श्रम सुधार संबंधी कानून हो या औद्योगिक विकास संबंधी सुझाव हों, ये सब बाबासाहेब की देन हैं। लेकिन उनके इन तमाम योगदानों को जानबूझ कर नेहरू ने अपने जीवन काल में सार्वजनिक नहीं होने दिया और ‘आधुनिक भारत का निर्माता’ बन कर सारा श्रेय खुद ले लिया।
नौवां सबूत
हिन्दू कोड बिल पर नेहरू के ढुलमुल रवैये की वजह से डॉ. अम्बेडकर खासे नाराज थे। इस मुद्दे से खुद को प्रगतिशीलता का ध्वजवाहक बताने वाले नेहरू का दोहरा चरित्र पूरी तरह से उजागर हो गया। आखिरकार, बाबासाहेब ने नेहरू कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया। कुल मिलाकर, नेहरू डॉ. अम्बेडकर का राजनीतिक करियर खत्म करने की अपनी कुत्सित मंशा में सफल हुए।
दसवां सबूत
डॉक्टर अम्बेडकर ने विभिन्न विषयों पर बहुत कुछ लिखा लेकिन वो पूरी जिंदगी अपना लिखा छपवाने के लिए संघर्ष करते रहे। उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि वो अपना विशाल वांगमय छपवा सकें। इसी संदर्भ में 14 सितंबर 1956 को उन्होंने अपनी अंतिम पुस्तक ‘The Buddha and His Dhamma’ को छपवाने के लिए प्रधानमंत्री नेहरू को एक पत्र लिखा था, लेकिन नेहरू ने जवाब में पैसे की कमी का बहाना करते हुए उन्हें एक बार फिर अपमानित करने का काम किया।
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