भारत में ठीक ही कहा जाता है कि ‘पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं’। 17 सितंबर को 28 विपक्षी दलों के INDI Alliance के जन्म हुए दो महीने पूरे होंगे। इससे पहले ही पूत यानी गठबंधन के लक्षण दिखने लगे हैं। विपक्षी गठबंधन ने 14 पत्रकारों के बहिष्कार का ऐलान कर जून 1975 के आपातकाल की याद ताजा कर दी है। जब एक परिवार ने अपने हाथ से सत्ता निकलने के डर से जनता के मौलिक अधिकारों को छीनकर और लोकतंत्र की हत्या कर देश पर आपातकाल थोपा था। अखबारों पर सेंसरशिप लगा दी थी। कांग्रेस ने न सिर्फ विपक्षी दलों के नेताओं बल्कि सच के साथ खड़े पत्रकारों का भी दमन किया था। बड़े मीडिया संस्थानों तक के संपादकों को गिरफ्तार किया गया था, उन पर पाबंदियां लगाई गई थीं। आपातकाल के दौरान कांग्रेस के अत्याचारों को याद करने मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आज जिस तरह से INDI Alliance मीडिया का दमन करने की कोशिश कर रहा है, उससे पता चलता है कि समय बदल गया है, लेकिन कांग्रेस और उसके सहयोगियों की आपातकालीन मानसिकता नहीं बदली है, वो आज भी जारी है।
पत्रकारों के बहिष्कार के साथ आपातकाल 2.0 का आगाज
विपक्षी दलों के INDI Alliance की समन्वय समिति ने बुधवार (13 सितंबर, 2023) को दिल्ली में बैठक की, जिसमें फैसला लिया गया कि गठबंधन से जुड़े नेताओं और प्रवक्ताओं को कुछ टीवी एंकर्स के शो में भेजना बंद करेंगे। समिति ने अगले दिन 14 सितंबर को एक सूची जारी की, जिसमें 14 एंकर्स के नामों का उल्लेख किया गया। इनमें चित्रा त्रिपाठी, सुधीर चौधरी, सुशांत सिंह, रुबिका लियाकत, प्राची पाराशर, नविका कुमार, गौरव सावंत, अशोक श्रीवास्तव, अर्नव गोस्वामी, आनंद नरसिम्हन, उमेश देवगन, अमन चोपड़ा और अदिति त्यागी शामिल है। INDI Alliance ने ऐलान किया कि इन एंकर्स के कार्यक्रम में कोई भी सहयोगी दल अपना प्रवक्ता नहीं भेजेगा। इस तरह इस गठबंधन ने मीडिया पर सेंसरशिप लागू कर आपातकाल 2.0 की शुरुआत कर दी है। इसके जरिए गठबंधन ने अपने विरोधियों और समर्थकों को संदेश दे दिया कि इस गठबंन का आगाज ऐसा है तो अगर सत्ता में आ गए तो अंजाम कैसा होगा। लेकिन फ्री प्रेस और अभिव्यक्ति की आजादी की वकालत करने वाला और शोर मचाने वाला गैंग INDI Alliance के इस प्रेस सेंसरशिप पर मौन है।
The following decision was taken by the INDIA media committee in a virtual meeting held this afternoon. #JudegaBharatJeetegaIndia #जुड़ेगा_भारत_जीतेगा_इण्डिया pic.twitter.com/561bteyyti
— Pawan Khera 🇮🇳 (@Pawankhera) September 14, 2023
लोकतंत्र, संविधान, फ्री स्पीच के रक्षकों का उतरा मुखौटा
यह लिस्ट आपातकाल 2.0 का सबूत है। यह उन लोगों के गाल पर तमाचा है, जो रात-दिन, देश हो या विदेश अभिव्यक्ति की आजादी और प्रेस की आजादी पर लेक्चर देते फिरते हैं। लोकतंत्र और संविधान के खतरे में होने और उनको बचाने के लिए शोर मचाते हैं। विदेशी मंच से भारत को बदनाम करते हैं। विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं पर कब्जे का झूठा आरोप लगाकर मोदी सरकार पर हमला बोलते रहते हैं। आज उनका चेहरा और पाखंड बेनकाब हो चुका है। लोकतंत्र, संविधान और अभिव्यक्ति की आजादी के रक्षकों का मुखौटा उतर चुका है। उन्होंने फिर दुनिया को बता दिया कि समय बदल गया है, लेकिन वो नहीं बदले हैं। वो तानाशाह इंदिरा गांधी के सच्चे वारिस है, जिन्होंने संविधान, लोकतंत्र और मीडिया को कुचल दिया था। अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज को दबाना और उन लोगों को डराना कांग्रेस और उसके नेताओं की फितरत है, जो उनके सुर में सुर नहीं मिलाते हैं और उनकी जय-जयकार नहीं करते हैं।
If hypocrisy had a face… Rahul Gandhi, whose grand mother imposed Emergency, pontificating on press freedom, only to later boycott journalists, who prefer to put out facts, instead of parroting Opposition’s view, uncritically.
They are unravelling sooner than one would have… pic.twitter.com/e9uX8ceCQU— Amit Malviya (@amitmalviya) September 15, 2023
योजना में हिन्दुओं के साथ भेदभाव के सवाल पर कर्नाटक में केस दर्ज
हालांकि कांग्रेस केंद्र की सत्ता में नहीं है, लेकिन अपनी राज्य सरकारों के माध्यम से पत्रकारों का उत्पीडन जारी रखा है। कांग्रेसी नेताओं और उनकी सरकारों के काले कारनामों को उजागर करने वाले पत्रकारों पर झूठे केस दर्ज कर डराने की कोशिश हो रही है। हाल ही में आज तक के कंसल्टेंट एडिटर और एंकर सुधीर चौधरी के खिलाफ कर्नाटक में केस दर्ज किया गया। कर्नाटक सरकार ने सुधीर चौधरी पर आरोप लगाया है कि उन्होंने न्यूज चैनल पर एक कार्यक्रम के दौरान ‘सांप्रदायिक सद्भावना’ के खिलाफ साजिश रचने का काम किया है। इसके विपरीत सुधीर चौधरी ने एक सरकारी योजना के कार्यान्वयन और उसमें हिन्दुओं के साथ भेदभाव के बारे में वैध सवाल पूछने की कोशिश की थी। उन्होंने कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति पर सवाल उठाया था। सुधीर चौधरी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘X’ पर लिखा, “कर्नाटक में कांग्रेस सरकार द्वारा मेरे खिलाफ FIR की जानकारी मिली। सवाल का जवाब FIR? वो भी गैर-जमानती धाराओं के साथ। यानी गिरफ्तारी की पूरी तैयारी। मेरा सवाल यह था कि स्वावलंबी सारथी योजना में हिंदू समुदाय शामिल क्यों नहीं है? इस लड़ाई के लिए मैं भी तैयार हूं। अब अदालत में मिलेंगे।”
कर्नाटक में कांग्रेस सरकार द्वारा मेरे ख़िलाफ़ FIR की जानकारी मिली।
सवाल का जवाब FIR ?
वो भी ग़ैर ज़मानती धाराओं के साथ।
यानी गिरफ़्तारी की पूरी तैयारी
मेरा सवाल ये था कि स्वावलंबी सारथी योजना में हिंदू समुदाय शामिल क्यों नहीं है ?
इस लड़ाई के लिए भी मैं तैयार हूँ।
अब अदालत… https://t.co/3loIh9rGNh— Sudhir Chaudhary (@sudhirchaudhary) September 12, 2023
मनीष कश्यप, अमन चोपड़ा, रोहित रंजन और अर्नव गोस्वामी का उत्पीड़न
सुधीर चौधरी की तरह कांग्रेस शासित राज्यों ने कई अन्य पत्रकारों को भी डराने की कोशिश की। कांग्रेस सरकारों से पीड़ित पत्रकारों की फेहरिस्त काफी लंबी है। लेकिन इनमें मनीष कश्यप, अमन चोपड़ा, रोहित रंजन और अर्नव गोस्वामी प्रमुख नाम है, जिनका उत्पीड़न करने में कांग्रेस की राज्य सरकारों ने नियम-कानून की धज्जियां उड़ा दीं। यूट्यूबर मनीष कश्यप पर तमिलनाडु की स्टालिन सरकार ने एनएसए लगा दिया। राजस्थान की गहलोत सरकार ने न्यूज-18 के एंकर अमन चोपड़ा को गिरफ्तार करने के लिए पूरा जोर लगा दिया। लेकिन राजस्थान हाईकोर्ट की दखल के बाद गहोलत सरकार के मंसूबों पर पानी फिर गया। इसी तरह छत्तीसगढ़ की पुलिस ने यूपी पुलिस को बिना बताए ज़ी न्यूज़ के एंकर रोहित रंजन को अरेस्ट करने की कोशिश की। इसके अलावा महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सरकार ने रिपब्लिक ग्रुप के एडिटर इन चीफ अर्नब गोस्वामी का खूब उत्पीड़न किया। अर्नब ने पुलिस पर जूते से मारने, पानी तक नहीं पीने देने, हाथ में 6 इंच गहरा घाव होने, रीढ़ की हड्डी और नस में चोट होने का भी दावा किया था। पुलिस ने उनके बेटे और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ भी मारपीट की।
मीडिया का गला घोंटने में विश्वास करता है नेहरू-गांधी परिवार
पिछले 75 साल के इतिहास पर नजर डाले तो कांग्रेस और उसकी सहयोगी सरकारों ने सबसे अधिक लोकतंत्र, संविधान और अभिव्यक्ति की आजादी के साथ खिलवाड़ किया है। सत्ता के नशे में पागल नेहरू-गांधी परिवार ने आजादी के बाद से ही मीडिया का गला घोंटने का काम शुरू कर दिया था। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को सरकार के खिलाफ समाचार पत्रों में लेख लिखा जाना और सवाल उठाना पसंद नहीं था। इतिहास के पन्ने पलटने पर कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जब नेहरू ने पत्रकारों को डराने और धमकाने की कोशिश की। जब नेहरू ने भारत के महानतम पत्रकार एवं संपादक दुर्गादास की कुर्सी छिनी। एक बार नेहरू का वंशवादी चेहरा सामने आया तो वो घबरा गए और पत्रकारों से उनके सोर्स पूछने लगे। इसी तरह मशहूर साप्ताहिक पत्रिका ब्लिटज ने एक बार कवर स्टोरी छापी कि इंदिरा गांधी ने एक बड़े व्यापारी से कीमती साड़ियां उपहार में ली हैं। इस स्टोरी के बाद नेहरू ने ब्लिटज को एक कानूनी नोटिस भेजा। ब्लिटज ने नेहरू की धमकी से डरते हुए माफी मांग ली। चीन और नेहरू की दोस्ती जग जाहिर है। नेहरू ने हांगकांग से भारत खबर भेजने वाले पीटीआई के एक वरिष्ठ पत्रकार का इसलिए ट्रांसफर करवा दिया,क्योंकि उसकी रिपोर्ट से चीन को नुकसान होने का खतरा था।
सदा से नेहरू-गांधी परिवार मीडिया का गला घोंटने में विश्वास रखता है… कुछ उदाहरण.. तथ्यों, तर्कों और सबूतों के साथ….
1. जब नेहरू ने भारत के महानतम पत्रकार एवं संपादक दुर्गादास की कुर्सी छिनी
“एक दिन नेहरू ने हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक दुर्गादास को बुलाया और खूब खरी-खोटी…
— Prakhar Shrivastava (@Prakharshri78) September 14, 2023
इमरजेंसी कब लगाई गई और इसकी पृष्ठभूमि क्या थी? लोकतंत्र, संविधान और प्रेस का कैसे दमन किया गया ? इस पर एक नजर-
देश जब आजादी का अमृत महोत्सव वर्ष मना रहा है। यानि लोकतंत्र अपनी यात्रा के 75वें वर्ष में है वहीं आपातकाल के काले अध्याय के 48 साल पूरे हुए हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का नागरिक होने की बात जिसे हर भारतवासी गर्व के साथ कहते हैं उसी लोकतंत्र को 48 साल पहले आपातकाल का दंश झेलना पड़ा। सत्ता के लिए कांग्रेस ने लोकतंत्र की हत्या करने का पाप किया। 25-26 जून, 1975 की रात को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा देश पर थोपा गया आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक काला अध्याय के रूप में जुड़ गया। आपातकाल के दौरान नागरिकों के सभी मूल अधिकार खत्म कर दिए गए थे। राजनेताओं को जेल में डाल दिया गया था। जेल में लोगों को पशुओं की तरह बंद कर दिया गया और वीभत्स यातनाएं दी गईं।
एक परिवार ने सत्ता खोने के डर से लगाया आपातकाल
1975 में एक परिवार ने अपने हाथ से सत्ता निकलने के डर से जनता के अधिकारों को छीनकर व लोकतंत्र की हत्या कर देश पर आपातकाल थोपा था। अखबारों पर सेंसरशिप लगा दी गई थी। पूरा देश सुलग उठा था। जबरिया नसबंदी जैसे सरकारी कृत्यों के प्रति लोगों में भारी रोष था। यह आपातकाल ज्यादा दिन नहीं चल सका। करीब 21 महीने बाद लोकतंत्र फिर जीता, लेकिन इस जीत ने कांग्रेस पार्टी की चूलें हिला दी।
Coming soon..
‘आपातकाल के सेनानी’
During the nation’s darkest era of #Emergency, a courageous fight ensued in the face of tyranny. Foot soldiers like Narendra Modi emerged, raising their voices defiantly to safeguard Indian democracy.
The inspiring story of the struggle..… pic.twitter.com/LXmubunDgI
— Modi Story (@themodistory) June 26, 2023
आपातकाल में पीएम मोदी ने निभाई थी अहम भूमिका
आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अहम भूमिका निभाई थी। आपातकाल के दौरान प्रेस की स्वतंत्रता छीनी जा चुकी थी। कई पत्रकारों को मीसा और डीआईआर के तहत गिरफ्तार कर लिया गया था। सरकार की कोशिश थी कि लोगों तक सही जानकारी नहीं पहुंचे। उस कठिन समय में नरेंद्र मोदी और आरएसएस के कुछ प्रचारकों ने सूचना के प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी उठा ली। इसके लिए उन्होंने अनोखा तरीका अपनाया। संविधान, कानून, कांग्रेस सरकार की ज्यादतियों के बारे में जानकारी देने वाले साहित्य गुजरात से दूसरे राज्यों के लिए जाने वाली ट्रेनों में रखे गए। यह एक जोखिम भरा काम था क्योंकि रेलवे पुलिस बल को संदिग्ध लोगों को गोली मारने का निर्देश दिया गया था। लेकिन नरेंद्र मोदी और अन्य प्रचारकों द्वारा इस्तेमाल की गई तकनीक कारगर रही।
25 जून, 1975 : 25 जून, 1975 की रात को राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने प्रधानमंत्री की सलाह पर उस मसौदे पर मुहर लगाते हुए देश में संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल घोषित कर दिया। लोकतंत्र को निलंबित कर दिया गया। संवैधानिक प्रावधानों के तहत प्रधानमंत्री की सलाह पर वह हर छह महीने बाद 1977 तक आपातकाल की अवधि बढ़ाते रहे।
संवैधानिक प्रावधानः अनुच्छेद 352 के तहत देश में आपातकाल घोषित करने का प्रावधान किया गया है। बाहरी आक्रमण अथवा आंतरिक अशांति के चलते इसे लगाया जा सकता है। प्रधानमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद के लिखित आग्रह के बाद राष्ट्रपति आपातकाल घोषित कर सकता है। प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में रखा जाता है और यदि एक महीने के भीतर वहां पारित नहीं होता तो वह प्रस्ताव खारिज हो जाता है।
इमरजेंसी का मसौदाः सियासी बवंडर, भीषण राजनीतिक विरोध और कोर्ट के आदेश के चलते इंदिरा गांधी अलग-थलग पड़ गईं। ऐसे में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने उनको देश में आंतरिक आपातकाल घोषित करने की सलाह दी। इसमें संजय गांधी का भी प्रभाव माना जाता है। सिद्धार्थ शंकर ने इमरजेंसी लगाने संबंधी मसौदे को तैयार किया था।
राजनीतिक असंतोष : 1973-75 के दौरान इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ देश भर में राजनीतिक असंतोष उभरा। गुजरात का नव निर्माण आंदोलन और जेपी का संपूर्ण क्रांति का नारा उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण था।
नवनिर्माण आंदोलन (1973-74) : आर्थिक संकट और सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ छात्रों और मध्य वर्ग के उस आंदोलन से मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल को इस्तीफा देना पड़ा। केंद्र सरकार ने राज्य विधानसभा भंग कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया।
संपूर्ण क्रांति: मार्च-अप्रैल, 1974 में बिहार के छात्र आंदोलन का जयप्रकाश नारायण ने समर्थन किया। उन्होंने पटना में संपूर्ण क्रांति का नारा देते हुए छात्रों, किसानों और श्रम संगठनों से अहिंसक तरीके से भारतीय समाज का रुपांतरण करने का आह्वान किया। एक महीने बाद देश की सबसे बड़ी रेलवे यूनियन राष्ट्रव्यापी हड़ताल पर चली गई। इंदिरा सरकार ने निर्मम तरीके से इसे कुचला। इससे सरकार के खिलाफ असंतोष बढ़ा। 1966 से सत्ता में काबिज इंदिरा के खिलाफ इस अवधि तक लोकसभा में 10 अविश्वास प्रस्ताव पेश किए गए।
ऐतिहासिक फैसला : 1971 के चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी के नेता राजनारायण को इंदिरा गांधी ने रायबरेली से हरा दिया। उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अर्जी दायर कर आरोप लगाया कि इंदिरा ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग कर चुनाव जीता। इंदिरा गांधी को हाई कोर्ट में पेश होना पड़ा। वह किसी भारतीय प्रधानमंत्री के कोर्ट में उपस्थित होने का पहला मामला था।
इंदिरा गांधी का निर्वाचन अवैधः 12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जगमोहनलाल सिन्हा ने फैसला सुनाते हुए इंदिरा गांधी को दोषी पाया। रायबरेली से इंदिरा गांधी के निर्वाचन को अवैध ठहराया। उनकी लोकसभा सीट रिक्त घोषित कर दी गई और उन पर अगले छह साल तक चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी गई। हालांकि वोटरों को रिश्वत देने और चुनाव धांधली जैसे गंभीर आरोपों से मुक्त कर दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट में भी हारी इंदिरा गांधीः इंदिरा गांधी ने फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। 24 जून, 1975 को जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने हाई कोर्ट के निर्णय को बरकरार रखते हुए इंदिरा गांधी को सांसद के रूप में मिल रही सभी सुविधाओं से वंचित कर दिया गया लेकिन प्रधानमंत्री पद सुरक्षित रहा। अगले दिन जेपी ने दिल्ली में बड़ी रैली कर कहा कि पुलिस अधिकारी अनैतिक सरकारी आदेश न मानें। इसे अशांति भड़काने के रूप में देखा गया।
नागरिकों के मौलिक अधिकार हो गए निलंबित
आपातकाल की घोषणा के साथ ही सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए थे। अभिव्यक्ति का अधिकार ही नहीं, लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया था। 25 जून की रात से ही देश में विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारियों का दौर शुरू हो गया था। जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नाडीस आदि बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया था। जेलों में जगह नहीं बची थी। आपातकाल के बाद प्रशासन और पुलिस द्वारा भारी उत्पीड़न की कहानियां सामने आई थीं।
प्रेस पर कड़ी सेंसरशिप, मीसा के तहत पत्रकार जेल में बंद
प्रेस पर भी सेंसरशिप लगा दी गई थी। रामलीला मैदान में सुबह हुई रैली की खबर देश के लोगों तक न पहुंचे इसलिए, दिल्ली के बहादुर शाह जफर मार्ग पर स्थित सभी बड़े अखबारों के दफ्तरों की बिजली रात में ही काट दी गई। अगले दिन सिर्फ हिंदुस्तान टाइम्स और स्टेट्समैन ही छप पाए, क्योंकि उनके प्रिंटिंग प्रेस बहादुर शाह जफर मार्ग पर नहीं थे। हर अखबार में सेंसर अधिकारी बैठा दिया गया, उसकी अनुमति के बाद ही कोई समाचार छप सकता था। सरकार विरोधी समाचार छापने पर गिरफ्तारी हो सकती थी। मीसा कानून के तहत 327 पत्रकारों को जेल में बंद किया गया था। यह सब तब थम सका, जब 23 जनवरी, 1977 को मार्च महीने में चुनाव की घोषणा हो गई।
इंदिरा गांधी का न्यायपालिका से टकराव
दरअसल लालबहादुर शास्त्री की मौत के बाद देश की प्रधानमंत्री बनीं इंदिरा गांधी का कुछ कारणों से न्यायपालिका से टकराव शुरू हो गया था। यही टकराव आपातकाल की पृष्ठभूमि बना था। आपातकाल के लिए 27 फरवरी, 1967 को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने बड़ी पृष्ठभूमि तैयार की। एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सुब्बाराव के नेतृत्व वाली एक खंडपीठ ने सात बनाम छह जजों के बहुमत से सुनाए गए फैसले में यह कहा था कि संसद में दो तिहाई बहुमत के साथ भी किसी संविधान संशोधन के जरिये मूलभूत अधिकारों के प्रावधान को न तो खत्म किया जा सकता है और न ही इन्हें सीमित किया जा सकता है।
कोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त किया
1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी को जबर्दस्त जीत दिलाई थी और खुद भी बड़े मार्जिन से जीती थीं। खुद इंदिरा गांधी की जीत पर सवाल उठाते हुए उनके चुनावी प्रतिद्वंद्वी राजनारायण ने 1971 में अदालत का दरवाजा खटखटाया था। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर इंदिरा गांधी के सामने रायबरेली लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ने वाले राजनारायण ने अपनी याचिका में आरोप लगाया था कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया है। मामले की सुनवाई हुई और इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त कर दिया गया। इस फैसले से आक्रोशित होकर ही इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाने का फैसला लिया।
कैबिनेट औपचारिक बैठक नहीं हुई, फिर भी आपातकाल की घोषणा
इस फैसले से इंदिरा गांधी इतना क्रोधित हो गई थीं कि अगले दिन ही उन्होंने बिना कैबिनेट की औपचारिक बैठक के आपातकाल लगाने की अनुशंसा राष्ट्रपति से कर डाली, जिस पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने 25 जून और 26 जून की मध्य रात्रि में ही अपने हस्ताक्षर कर डाले और इस तरह देश में पहला आपातकाल लागू हो गया।
इमरजेंसी को लेकर सोनिया गांधी को पछतावा नहीं
इंदिरा गांधी के प्राइवेट सेक्रेटरी रहे दिवंगत आर.के. धवन ने कहा था कि सोनिया और राजीव गांधी के मन में इमरजेंसी को लेकर किसी तरह का संदेह या पछतावा नहीं था। धवन ने यह भी कहा था कि इंदिरा गांधी जबरन नसबंदी और तुर्कमान गेट पर बुलडोजर चलवाने जैसी ज्यादतियों से अनजान थीं। इन सबके लिए केवल संजय गांधी ही जिम्मेदार थे। इंदिरा को तो यह भी नहीं पता था कि संजय अपने मारुति प्रॉजेक्ट के लिए जमीन का अधिग्रहण कर रहे थे। धवन के मुताबिक इस प्रॉजेक्ट में उन्होंने ही संजय की मदद की थी, और इसमें कुछ भी गलत नहीं था।
बंगाल के सीएम एस.एस.राय ने दी थी आपातकाल लगाने की सलाह
आर.के. धवन बताया था कि पश्चिम बंगाल के तत्कालीन सीएम एसएस राय ने जनवरी 1975 में ही इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की सलाह दी थी। इमर्जेंसी की योजना तो काफी पहले से ही बन गई थी। धवन ने बताया था कि तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को आपातकाल लागू करने के लिए उद्घोषणा पर हस्ताक्षर करने में कोई आपत्ति नहीं थी। वह तो इसके लिए तुरंत तैयार हो गए थे। धवन ने यह भी बताया था कि किस तरह आपातकाल के दौरान मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाकर उन्हें निर्देश दिया गया था कि आरएसएस के उन सदस्यों और विपक्ष के नेताओं की लिस्ट तैयार कर ली जाए, जिन्हें अरेस्ट किया जाना है। इसी तरह की तैयारियां दिल्ली में भी की गई थीं।
आईबी की रिपोर्ट और 1977 का चुनाव
इंदिरा गांधी ने 1977 के चुनाव इसलिए करवाए थे, क्योंकि आईबी ने उनको बताया था कि वह 340 सीटें जीतेंगी। उनके प्रधान सचिव पीएन धर ने उन्हें यह रिपोर्ट दी थी, जिस पर उन्होंने भरोसा कर लिया था। लेकिन उन चुनावों में उन्हें करारी हार मिली।
इमरजेंसी के दौरान इंदिरा के घर में था अमेरिकी जासूस
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर में 1975 से 1977 के दौरान एक अमेरिकी भेदिया था, जो उनके हर पॉलिटिकल मूव की खबर अमेरिका को दे रहा था। यह खुलासा विकिलीक्स ने कुछ साल पहले अमेरिकी केबल्स के हवाले से किया था। विकिलीक्स के मुताबिक, इमरजेंसी के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर में मौजूद इस भेदिए की उनके हर राजनीतिक कदम पर नजर थी। वह सारी जानकारी अमेरिकी दूतावास को मुहैया करा रहा था। केबल्स में इस भेदिए के नाम का खुलासा नहीं किया गया।
डिलीवरी के दौरान पैरों को जंजीरों से बांधा गया
आपातकाल की एक घटना दिल दहला देने वाली है। बेंगलुरु में गायत्री नाम की महिला ने आपातकाल के विरोध में सत्याग्रह किया। पुलिस ने उनको गिरफ्तार कर लिया। उस वक्त वह गर्भवती थीं। जेल में जब उनको प्रसव वेदना हुई तक उनको हॉस्पिटल ले जाया गया। जिस बेड पर डिलीवरी हुई उनके दोनों पैरों को जंजीर से बांधकर रखा गया था। इससे वीभत्स यातना क्या हो सकती है, इसकी कल्पना ही की जा सकती है।
#WATCH | RSS Sarkaryvah Dattatreya Hosabale gets emotional talking about the Emergency; says, “…oppressing and banning the RSS was a clear priority for the then government. In any country with democracy, no attempt at oppression or stifling voices can succeed…Why did they… https://t.co/rJVUSMkiR4 pic.twitter.com/V3ipnSNNUZ
— ANI (@ANI) June 25, 2023
दिव्यांग को तिहाड़ में लात-घूंसों से मारा गया
आपातकाल की एक अन्य घटना पीड़ादायक है। ओम प्रकाश कोहली दिव्यांग थे और पुलिस ने तिहाड़ में उनको लात-घूंसों से मारा और काफी अपमानित किया। इससे पैरों पर खड़े होना उनके लिए मुश्किल हो गया। तब वह कॉलेज के प्रोफेसर थे। इसी तरह की यातना की घटनाएं पूरे देश में हुईं।
एक लाख से ज्यादा लोगों को झेलनी पड़ी जेल यातना
देश पर 21 माह तक थोपे गए आपातकाल के संघर्ष के दौर में लगभग 25 हजार लोग मीसा (मेंटेनेंस आफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट) यानी आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के तहत बंद किए गए और एक लाख 40 हजार से ज्यादा लोगों ने जेल की यातना झेली थी। यह ग्रहण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के तानाशाही चरित्र को दर्शाती है।