पांच विधानसभा के चुनावों से जबर्दस्त हार और मतदाताओं द्वारा बुरी तरह नकार दिए जाने के बाद कांग्रेस कार्यसमिति में एक बार फिर गांधी परिवार ने इस्तीफे की नौटंकी की। कार्यसमिति में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत समेत बड़े नेताओं ने पूरी तरह ‘दरबारी’ की भूमिका निभाते हुए गांधी परिवार की सरपरस्ती में कांग्रेस को चलाने पर सहमति जताई। लेकिन इस बड़ी हार से कांग्रेस से जी-23 ग्रुप के फिर से सक्रिय होने के संकेत भी मिले हैं। इससे कांग्रेस में बिखराव के भी कयास लगाए जा रहे हैं।
इस्तीफे का नाटक गांधी परिवार की फेस-सेविंग की रणनीति से ज्यादा कुछ नहीं
कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में कांग्रेस की स्वयंभू अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पांच राज्यों के चुनाव की हार के बाद नेतृत्व छोड़ने की पेशकश की। पार्टी के भीतर और बाहर से नेतृत्व पर हो रहे चौतरफा हमलों के लेकर सोनिया गांधी ने कहा कि पार्टी को लगता है कि गांधी परिवार का हट जाना कांग्रेस के हित में है तो वे तीनों (सोनिया, राहुल और प्रियंका) हटने के लिए तैयार हैं। लेकिन कार्यसमिति में इस्तीफे की यह नौटंकी दरअसल गांधी परिवार की फेस-सेविंग की रणनीति से ज्यादा कुछ नहीं है। सोनिया गांधी को लगता है कि वे इस्तीफे की पेशकश करके कांग्रेस नेताओं की सहानुभूति बटोर सकेंगी।
सबसे बड़े राज्य में महज 2.3 प्रतिशत वोट देकर जताया कांग्रेस में कोई दम नहीं
दरअसल, यह पहली बार नहीं है। पिछले कई चुनावों से लगातार कांग्रेस नेताओं और पार्टी को जनता ठुकरा रही है। जनता की लगातार अस्वीकृति इस बात की द्योतक है कि कांग्रेस की नीतियों और पार्टी में अब लोगों को विश्वास नहीं है। देश से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में तो कांग्रेस की ऐतिहासिक पराजय हुई है, जबकि इसमें प्रियंका गांधी वाड्रा को गांधी परिवार के आखिरी तुरुप के इक्के के रूप में परखा गया। कांग्रेस ने 403 सीटों पर प्रत्याशी खड़े करने की सिर्फ हिम्मत ही जुटाई। जनता ने महज 2.3 प्रतिशत वोट देकर जता दिया कि कांग्रेस में कोई दम नहीं है। जनता के बुरी तरह अस्वीकार कर देने के कारण ही गांधी परिवार इस्तीफे का दिखावा करने के मजबूर हुआ है।
करारी हार के बाद भी सोनिया-राहुल-प्रियंका की तिकड़ी का कांग्रेस में राज
दिलचस्प तथ्य तो यह है कि सोनिया की नौटंकी पर कांग्रेस कार्यसमिति के दरबारी नेताओं की जी-हुजूरी भारी पड़ गई। गांधी परिवार को लगातार खारिज करने और कांग्रेस की हार पर हार के बावजूद कार्य समिति ने सर्वसम्मति से पेशकश को नकारते हुए सोनिया गांधी के नेतृत्व में विश्वास जता दिया। सीधे-सीधे शब्दों में कांग्रेस में करारी हार के बाद भी सोनिया-राहुल-प्रियंका की तिकड़ी ही राज करेगी। हास्यास्पद ये रहा कि पार्टी की मौजूदा हार से गहराए संकट को देखते हुए व्यापक संगठनात्मक बदलाव करने और खामियों को दूर करने के लिए अधिकार भी भी गांधी परिवार को ही दे दिया।
राहुल गांधी को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए – गहलोत
कार्यसमिति में यह भी तय हुआ कि कांग्रेस को मौजूदा संकट से उबारने के लिए पार्टी तमाम वरिष्ठ नेताओं का संसद सत्र के तत्काल बाद एक चिंतन शिविर करेगी। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने यह चिंतन शिविर राजस्थान में कराने की मांग की। इसके साथ ही इस हार के बावजूद उन्होंने कहा कि यह सही समय है जबकि राहुल गांधी को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए। लोकसभा चुनाव में अभी दो साल का वक्त है। इस बीच राहुल के नेतृत्व में पार्टी मजबूत होगी।
कांग्रेस सिर्फ हार ही नहीं रही, बल्कि उसका वोट भी 1-2 प्रतिशत तक आ रहा है
कार्यसमिति ने सोनिया की इस पेशकश को तत्काल एक सुर में खारिज कर दिया। असंतुष्ट समूह के नेताओं की अगुआई कर रहे गुलाम नबी आजाद ने कहा कि कांग्रेस की लगातार खराब होती हालत को दुरूस्त नहीं किए जाने को लेकर सबकी चिंतित है। उन्होंने कहा कि पार्टी केवल हार ही नहीं रही, बल्कि उसका वोट प्रतिशत भी एक-दो प्रतिशत तक आ रहा है ओर यह गंभीर चिंता की बात है। आजाद ने यह भी कहा कि मौजूदा हालात में कांग्रेस अकेले भाजपा को नहीं हरा सकती ओर इसके लिए बाकी दलों को साथ लाना ही होगा।
मोदी के पीएम बनने के बाद 49 में से 39 चुनाव बुरी तरह हार गई है कांग्रेस
राहुल गांधी ने कहा कि विपक्षी खेमे के कई दल फिलहाल पार्टी के साथ नहीं आ रहे हैं। इस पर आजाद ने कहा कि कांग्रेस का प्रयास जारी रहना चाहिए और यदि हम दस पार्टियों से बात करेंगे तो छह सात आएंगे ही। असंतुष्ट खेमे के दूसरे वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा और मुकुल वासनिक ने 2014 के बाद अब तक हुए 49 चुनावों में कांग्रेस के 39 चुनाव हारने का आंकड़ा रखा। आनंद शर्मा ने कहा कि चाहे इस्लामी कटृटरपंथ हो या हिंदू कटटरपंथ हमें दोनों के खिलाफ अपने दृढ रुख को जारी रखना होगा।
आइए एक नजर डालते हैं राहुल- प्रियंका काल में कैसे सिकुड़ता चला गया कांग्रेस का जनाधार-
2022: विधानसभा चुनावों में निराशाजनक प्रदर्शन
उत्तर प्रदेश और पंजाब समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को हुआ। पांच राज्यों के कुल 690 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस 54 सीटों पर सिमट गई है। इन राज्यों के चुनावों में केवल 7.8 प्रतिशत सीटें ही कांग्रेस को मिलीं। कांग्रेस को पंजाब में आम आदमी पार्टी ने जबरदस्त तरीके से हराया। उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में भी पार्टी का प्रदर्शन काफी निराशाजनक रहा। उत्तर प्रदेश में 2.3 प्रतिशत के वोट शेयर के साथ सिर्फ दो सीटें जीतने में सफल रही।
2019: 52 सीटों पर सिमट गई कांग्रेस
मतदाताओं का कांग्रेस से विश्वास उठ चला रहा है। कांग्रेस लोकसभा में नेता विपक्ष बनने लायक पार्टी भी नहीं बची है। 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को सिर्फ 52 सीटों पर संतोष करना पड़ा। आज पार्टी की हालत ये हो गई है कि पुराने नेता भी किनारा करने लगे हैं। लगातार मिल रही हार के बाद अब तो पार्टी की अस्मिता पर सवाल उठने लगा है।
2018: हार से नए साल का स्वागत
साल 2018 भी कांग्रेस के लिए शुभ साबित नहीं हुआ। नए साल में पूर्वोत्तर में भी पार्टी को करारी हार का मुंह देखना पड़ा। पार्टी का अस्तित्व बचाने के लिए राहुल गांधी ने पूर्वोत्तर में ताबड़तोड़ कई रैलियां की, लेकिन यहां कामयाब नहीं हो सके। त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय में पार्टी को काफी नुकसान उठाना पड़ा।
2017 में सात में से छह राज्यों में शिकस्त
वर्ष 2017 में सात राज्यों में हुए चुनाव के नतीजों ने भी राहुल गांधी की पोल खोल दी। यूपी, उत्तराखंड, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस को भारी हार मिली। पंजाब में जीत कैप्टन अमरिंदर सिंह की विश्वसनीयता और मेहनत की हुई। गोवा और मणिपुर में कांग्रेस सरकार बनाने में नाकाम रही। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में बीजेपी की चमत्कारिक जीत और कांग्रेस की अब तक की सबसे करारी हार के रूप में हमारे सामने है। सवा सौ साल से भी किसी पुरानी पार्टी के लिए इससे बड़े शर्म की बात और क्या हो सकती है कि देश के उस प्रदेश में जहां कभी उसका सबसे बड़ा जनाधार रहा हो, वहीं पर, उसे 403 में से सिर्फ 7 सीटें मिलती हों। दूसरी ओर इन चुनावों में भी राहुल के मुकाबले अखिलेश एक युवा नेता के तौर पर जनता के सामने उभरकर आए। अखिलेश में लोगों ने राहुल के मुकाबले अधिक उम्मीद देखी जबकि राहुल अपने भाषण की शैली आज भी पुराने ढर्रे की अपनाए हुए हैं। न तो उनके भाषण में कोई तीखापन है और नही वे जनता को कोई विजन ही दे पाए हैं।
2015-16 में मिली जबरदस्त हार
2015 में महागठबंधन के चलते बिहार में जीत मिली, लेकिन दिल्ली में तो सूपड़ा साफ हो गया। यहां पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली। 2016 में असम के साथ केरल और पश्चिम बंगाल में हार का मुंह देखना पड़ा। पुडुचेरी में सरकार जरूर बनी। इस स्थिति में अब साफ तौर पर देखने को मिल रहा है कि कांग्रेस पार्टी कोमा में चली गई है। दरअसल कांग्रेस ने सिर्फ बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी के विरोध को ही सबसे बड़ा काम मान लिया है। इस कारण देश की जनता के मन में कांग्रेस के प्रति नकारात्मक भाव पैदा हो गया है। 2014 के लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद भी कांग्रेस ने कोई खास सबक नहीं सीखा। उल्टे राहुल गांधी अपने फटे कुर्ते के प्रदर्शन की बचकानी हरकतें करते रहें, लेकिन उन्हें कोई रोकने तो दूर, टोकनेवाला भी नहीं मिला।
2014 में 44 सीटों पर सिमट गई
दरअसल कांग्रेस के लिए यह विश्लेषण का दौर है, लेकिन वह वंशवाद और परिवारवाद के चक्कर में इस विश्लेषण की ओर जाना ही नहीं चाहती है। पार्टी में वरिष्ठ नेताओं की भूमिका सीमित कर दी गई है और युवा नेतृत्व के नाम पर राहुल को थोप दिया गया है। 2014 में पार्टी की किरकिरी हर किसी को याद है। जब 44 सीटों पर जीत मिलने के साथ ही पार्टी प्रमुख विपक्षी दल तक नहीं बन पाई। इसी तरह महाराष्ट्र व हरियाणा से सत्ता गंवा दी। यही स्थिति झारखंड और जम्मू-कश्मीर में रही जहां करारी हार मिलने से पार्टी सत्ता से बाहर हो गई। पिछले पंद्रह सालों से लगातार कोशिशें करने के बावजूद राहुल गांधी देश के राजनैतिक परिदृश्य में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने और जगह बना पाने में असफल रहे हैं।
प्रियंका गांधी वाड्रा का ‘लड़की’ उत्तर प्रदेश की लड़ाई बुरी तरह हारी
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को अब तक के सबसे खराब नतीजों का सामना करना पड़ा है। अपने बेटे राहुल गांधी को राजनीति में जमाने में नाकाम रहने पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पार्टी पर परिवार का नियंत्रण बनाए रखने के लिए बेटी प्रियंका गांधी वाड्रा के रूप में अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ा। लेकिन यूपी में मोदी-योगी की जोड़ी के सामने सोनिया का ब्रह्मास्त्र फुस्स रह गया।
राहुल गांधी के नेतृत्व में साल 2012 से ही कांग्रेस को मिल रही लगातार हार के बाद गांधी परिवार की आखिरी उम्मीद प्रियंका गांधी वाड्रा पर आ टिकी। पार्टी के चाटुकारों ने दादी इंदिरा गांधी से तुलना कर प्रियंका को झाड़ पर चढ़ा दिया। पर्दे के पीछे से परिवार की राजनीति करने वाली प्रियंका गांधी वाड्रा साल 2019 में राष्ट्रीय महासचिव बना दी गईं। पार्टी के बिना जनाधार वाले नेताओं और पक्षकारों ने ये माहौल बनाने की कोशिश की कि प्रियंका कांग्रेस के डूबते हुए जहाज को किनारे लगा देंगी, लेकिन 2022 के चुनाव ने सोनिया गांधी के साथ सभी के उम्मीदों पर पानी फेर दिया। कांग्रेस का तुरुप का पत्ता पहले ही दांव में बेकार चला गया। राहुल के बाद लोगों में प्रियंका वाड्रा को लेकर जो भ्रम बना हुआ था वो टूट गया।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सब कुछ प्रियंका गांधी वाड्रा के मन मुताबिक हुआ। चुनाव अभियान का पूरा नियंत्रण प्रियंका के हाथों में था। दिल्ली से लेकर लखनऊ तक किसी नेता का कोई दखल नहीं था। टिकट बंटवारे से लेकर रोड शो और रैली तक सब कुछ प्रियंका के निर्देश पर हुआ। सोनिया गांधी ने भी अपने सारे सितारे प्रियंका के साथ लगा दिए थे। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल और सचिन पायलट सहित कई बड़े नेताओं ने यूपी में आकर रैलियां की। कांग्रेस के पक्ष में हवा बनाने की कोशिश की गई। खुद प्रियंका ने राज्य में 167 रैलियां और 42 रोड शो किए। कुल 209 रैलियां और रोड शो के बाद भी प्रियंका का जादू नहीं चला। कांग्रेस के 403 उम्मीदवारों में से सिर्फ दो ही जीत पाने में कामयाब रहे।
कांग्रेस की तिकड़ी पर भरोसा कम, 40 से ज्यादा नेता कांग्रेस को छोड़ गए
सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के भरोसे रहने वाली कांग्रेस अब सिर्फ दो राज्यों में सिमट कर रह गई है। अब सिर्फ राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है। महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी के साथ सरकार में भागीदार है। पार्टी पर परिवार की पकड़ के कारण जनाधार वाले नेताओं की पूछ नहीं हो रही है। उत्तर प्रदेश में ही प्रियंका वाड्रा के कारण कई पुराने और जनाधार वाले नेता पार्टी छोड़ने के लिए मजबूर हो गए। आरपीएन सिंह, जितिन प्रसाद, ललितेश त्रिपाठी सहित करीब 40 नेताओं ने पार्टी को बॉय बोल दिया।
वैसे इस बार विधानसभा चुनावों की बागडोर राहुल गांधी की जगह बेटी प्रियंका गांधी वाड्रा के हाथों में थमा सोनिया गांधी सोच रही थी कि दादी इंदिरा गांधी से शक्ल-सूरत मिलने का फायदा प्रियंका को मिल सकता है। प्रियंका के नेतृत्व में यूपी चुनाव कराने का फैसला कर सोनिया गांधी ने एक तरह से अपने बेटे की प्रतिभा की इस सच्चाई को भी स्वीकार कर लिया कि वो पार्टी का नेतृत्व करने के लायक नहीं हैं। खुद राहुल गांधी ने भी कई बार कोशिश करने के बाद कामयाबी ना मिलने पर मान लिया कि वो कांग्रेस की नैया को किनारे नहीं लगा सकते।
साफ है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की परिवार के बल पर पार्टी चलाने की कोशिश सफल नहीं हो पा रही है। राहुल गांधी को वर्ष 2012 के बाद से ही भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया जाता रहा है। लेकिन चुनावों में लगातार खराब प्रदर्शन के कारण यूपीए के नेताओं ने राहुल को प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में खारिज करना शुरू कर दिया। ऐसे में प्रियंका को आगे बढ़ाया गया, लेकिन 2019 लोकसभा चुनाव के बाद प्रियंका गांधी को ये दूसरी बड़ी हार मिली है। पंचायत चुनाव में भी पार्टी का प्रदर्शन काफी खराब रहा है। यहां तक की पारंपरिक गढ़ अमेठी और रायबरेली में भी वोटरों ने परिवार को नकार दिया। प्रियंका के आने के बाद भी पार्टी के कुछ खास ना कर पाने से उसके सियासी भविष्य ही सवाल उठने लगे हैं।
सोनिया गांधी ने भले ही कांग्रेस पर अपनी लगाम कस दी हो, लेकिन आज स्थिति ये है कि पार्टी परिवारवाद के साये में पूरी तरह घिर चुकी है। अवसर की तलाश में युवा नेता पार्टी छोड़कर जा रहे हैं। वंशवाद की राजनीति के इस ढांचे में कांग्रेस के अनुभवी नेता भी सरेंडर कर चुके हैं। नेहरू-गांधी परिवार इनके दिमाग पर राज करे, इसे शायद ये अपनी नियति मानकर चलते हैं। क्योंकि पार्टी के कई वरिष्ठ नेता अतीत में नेहरू-गांधी परिवार के कदम के विरोध में आवाज उठाने वाले नेताओं का हश्र देख चुके हैं।