बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर मंडल कमीशन की तरह जातीयता की खाई बढ़ाने की जमीन तैयार करना शुरू कर दिया है। मुख्यमंत्री ने न तो मंडल कमीशन की आग से कोई सबक लिया है और न ही कर्नाटक के कांग्रेस मुख्यमंत्री सिद्दारमैया की गलती के कुछ सीखा है। सिर्फ अपने राजनीतिक शोशे और समाधान यात्रा में फायदा लेने के लिए बिहार में जाति आधारित गणना शुरू करा दी है। ऐसी ही जातीय जनगणना कराने की कोशिश कर्नाटक में सिद्धारमैया सरकार ने 2014 में की थी। इसका विरोध हुआ तो नाम बदलकर सामाजिक एवं आर्थिक सर्वे किया गया। वर्ष 2017 में रिपोर्ट आई, लेकिन इसमें कई गड़बड़ियों और जातीय आग भड़कने के अंदेशे से यह आज तक सार्वजनिक नहीं हुई है। अब डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव के साथ मिलकर सुशासन-बाबू फिर से वही गलती दोहराने जा रहे हैं।
बिहार की राजनीति में जाति-आधारित गणना एक प्रमुख मुद्दा रहा है। नीतीश कुमार की पार्टी जदयू और महागठबंधन के घटक राजनीतिक स्वार्थों के लिए मांग कर रहे थे कि यह जल्द से जल्द की जाए। केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने 2010 में राष्ट्रीय स्तर पर कवायद करने की आधी-अधूरी कोशिश की थी, लेकिन जनगणना के दौरान एकत्र किया गया डेटा कभी तैयार नहीं किया गया। अब बिहार सरकार ने यह खतरनाक साबित होने वाली कवायद शुरू कर दी है। गौरतलब है कि पिछली जाति आधारित जनगणना 1931 में हुई थी। इसके बाद आजाद भारत में बिहार में किसी भी सरकार ने जातिगत जनगणना कराने की जरूरत नहीं समझी। क्योंकि इसके आंकड़ों में जरा भी हेर-फेर से जातीयता को बढ़ावा मिलने और जातीय आग भड़कने का भी डर बना रहता है।
यह खोखला दावा किया जा रहा है कि जातीय गणना के आंकड़े नीतियों कार्यक्रमों की दशा और दिशा बदलने के बड़े आधार बनेंगे। जातीय जनगणना की कई मिथकों को भी तोड़ेगी। लेकिन वास्तविक स्थिति इसके विपरीत है। यह दावा इसलिए भी कमजोर है क्योंकि आज बहुत लोग संप्रदाय, गोत्र, उपजाति और जाति का नाम बतौर सरनेम लिखते हैं। उच्चारण में भी समानता है, जिससे जातियों के वर्गीकरण में कई समस्याएं होंगी। आरक्षण का मौजूदा सिद्धांत जातियों की जनसंख्या पर आधारित है। अनुसूचित जाति जनजाति की गणना 1931 से हो रही है और इसी हिसाब से इनके लिए आरक्षण तय होता रहा है। लेकिन पिछड़ी जातियों का आरक्षण 1931 पर ही आधारित है, ऐसे में जातीय जनगणना पिछड़ी जातियों के आरक्षण को पुनर्स्थापित करेगी तो जातीय संघर्ष की स्थिति बन सकती है।
बिहार में जातीय जनगणना पर कर्नाटक मॉडल का जिक्र होता रहा है। कर्नाटक में सिद्धारमैया की कांग्रेसी सरकार ने 2014 में जातीय जनगणना शुरू की थी। इसका जब जमकर विरोध हुआ तो इसका नाम बदलकर सामाजिक एवं आर्थिक सर्वे किया गया था। इस सर्वे के भेष में इस कथित जातीय जनगणना की वर्ष 2017 में रिपोर्ट आई। लेकिन कई खामियों के चलते यह रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं की गई है। बताते हैं कि इस आधे-अधूरे सर्वे में तब 195 से अधिक जातियां तो सामने ही नहीं आ पाईं थीं। कुछ ऐसा ही हाल बिहार की जातीय जनगणना का भी होने जा रहा है।
मंडल आयोग ने की थी साढ़े तीन हजार से ज्यादा जातियों की पहचान
राजनीति के इतिहास के पन्ने पलटें तो पाएंगे कि 1980 के चुनाव में इन्दिरा गांधी की सत्ता में वापसी हो गई थी। दिसंबर 1980 में मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट तत्कालीन गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह को सौंपी। इस रिपोर्ट में सभी धर्मों के पिछड़े वर्ग की साढ़े तीन हजार से भी ज्यादा जातियों की पहचान की गई। कमीशन ने उन्हें सरकारी नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण देने की सिफारिश की। मंडल की रिपोर्ट इंदिरा और राजीव गांधी के राज में धूल फांकती रही। 2 दिसंबर 1989 से शुरू हुआ वीपी सिंह केंद्र की सत्ता में आए। वीपी सिंह ने 1990 में मंडल आयोग की फाइल की धूल झाड़ कर उसे निकाला। 7 अगस्त 1990 को मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने की घोषणा के साथ ही पूरे देश में जातीय आरक्षण के विरोध की आग भड़क उठी।
मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद देश भर के स्टूडेंट्स का ही नहीं, बल्कि सरकार के भीतर भी विरोध देखने को मिला। वीपी सिंह सरकार के भीतर मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने को लेकर नेता अलग-अलग मत पहले ही जाहिर कर चुके थे। जब वीपी सिंह ने कैबिनेट की मीटिंग में खड़े मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने की बात कही। तब इसे सुन कई मंत्री चुप्पी साध गए और लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव और रामविलास पासवान ने इसका खुलकर समर्थन किया। आगरा के जाट नेता और तत्कालीन रेल राज्यमंत्री अजय सिंह ने एक अलग सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि इसी में थोड़ा-बहुत इधर उधर करके जनरल कैटगिरी (जिनमें जाट भी शामिल थे) के गरीब लोगों के लिए भी कुछ स्पेस बना दिया जाए, तो कोई बवाल नहीं होगा अन्यथा इसका काफी विरोध हो सकता है। किसी ने अजय सिंह की नहीं सुनीं और फैसले पर मुहर लगा दी गई और इसके बाद देशभर आरक्षण की आग में सुलग उठा और इसने कई नौजवानों की जान ले ली।