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वामपंथी और पंथक-किसान संगठनों में शुरू हुआ टकराव, पंजाब को फिर से काले दौर में धकेलने की आशंका

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देश में अपना सियासी वजूद बचाने के लिए वामपंथी पार्टियां संघर्ष कर रही हैं। उन्हें किसान आंदोलन में संजीवनी दिखाई दे रही है। इसलिए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे आंदोलन में वामपंथी पार्टियों से जुड़े किसान संगठनों की सक्रियता सबसे अधिक दिखाई दे रही है। वहीं पंथक किसान संगठन भी इसे अवसर के रूप में देख रहे हैं। लेकिन 26 जनवरी की घटना के बाद से दोनों ही किसान संगठनों के बीच टकराव दिखाई देने लगा है। 

संयुक्त किसान मोर्चा में वामपंथी नेताओं का ज्यादा प्रभावी दिखाई दे रहा है। वे अपना आदर्श भगत सिंह को मानते हैं। उनसे जुड़े हुए लोग भी भगत सिंह को ज्यादा महत्व देते हैं इसलिए धर्म, धार्मिक प्रवृत्ति के लोग इनमें ज्यादा नहीं हैं। जबकि दूसरी ओर भाकियू राजेवाल, भाकियू लक्खोवाल, भाकियू डल्लेवाल, भाकियू कादियां जैसे संगठनों में धार्मिक प्रवृत्ति के लोग हैं। इसके अलावा एक और कट्टर विचारधारा के लोग भी हैं, जिनका आदर्श जरनैल सिंह भिंडरांवाला है।

लाल किले पर निशान साहिब फहराने की घटना की संयुक्त किसान मोर्चा ने निंदा की है। इस मोर्चा में वामपंथी और सभी किसान संगठन हैं। वहीं मंगलवार को बठिंडा के मेहराज गांव में जो रैली हुई उसमें ऐसे संगठन शामिल थे, जो कट्टर सिख विचारधारा के पक्षधर रहे हैं। ये लगातार दीप सिद्धू और लक्खा सिधाना पर दर्ज केसों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं। पिछले कई दिनों से सोशल मीडिया पर वामपंथी विचारधारा और कट्टर सिख विचारधारा के बीच पोस्ट-युद्ध चल रहा है। 

1987 में जब फसलों का मूल्य सूचकांक से जोड़ने को लेकर प्रदेश भर से किसानों ने चंडीगढ़ में राजभवन का घेराव किया था तब भारतीय किसान यूनियन की बुनियाद रखी गई थी। उससे पहले पंजाब में किसानों की कोई बड़ी यूनियन नहीं थी। बलबीर सिंह राजेवाल, अजमेर सिंह लक्खोवाल, भूपेंद्र सिंह मान और पिशौरा सिंह सिद्धूपुर जैसे नेता इसमें उभरे। कई वामपंथी विचारधारा से जुड़े हुए नेता भी इसमें आ गए। जिसके चलते यह यूनियन टूटती रही। 

वामपंथी विचारधारा वाले संगठन कभी एक होकर नहीं लड़े, पर जबसे केंद्र सरकार ने तीन कृषि कानूनों को बनाया है, ये सभी संगठन एकजुट होकर धरने दे रहे हैं। बीच-बीच में वामपंथी संगठन नक्सलियों की रिहाई की जब मांग करने लगते हैं तो उनको जवाब देने के लिए पंथक-किसान संगठनों के  समर्थक खालिस्तानी नारे भी लगने लग जाते हैं।

केंद्रीय कृषि मंत्री ने किसान संगठनों को तीनों कृषि कानूनों को डेढ़ साल के लिए निलंबित करने, किसानों एवं विशेषज्ञों की कमेटी बनाने का प्रस्ताव दिया था, जो 21 जनवरी को 32 किसान यूनियनों की बैठक में रद्द हो गया। बताते हैं कि 17 संगठन एक ओर थे और 15 इन प्रस्तावों को मानने के हक में थे। वामपंथी और पंथक-किसान संगठनों की इस लड़ाई के बीच किसान आंदोलन दिशाहीन हो चुका है। वामपंथी किसान संगठन पंंथिक किसान संगठनों से दूरी बनाने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं पंथक किसान संगठनों में खालिस्तान समर्थकों की भूमिका बढ़ती जा रही है। इससे आशंका जतायी जा रही है कि कहीं ये पंजाब को फिर से काले दौर में न धकेल दें। 

 

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