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रायसीना की रेस में रामनाथ कोविंद की जीत पक्की

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देश के चालीस राजनीतिक दलों के समर्थन, 776 सांसदों में 534 सांसदों के साथ और 29 में 20 राज्यों के मुख्यमंत्रियों के सपोर्ट से रायसीना की रेस में रामनाथ कोविंद की जीत पक्की है। निर्वाचक मंडल के कुल 10,98,903 मतों को समर्थन की कसौटी पर कसें तो रामनाथ कोविंद को 6,82,677 वोट यानि कुल मतों का दो तिहाई हिस्सा मिलना तय है। वहीं दूसरी तरफ विपक्ष की उम्मीदवार मीरा कुमार के पास 3,76,261 मत हैं, जो कुल कॉलेजियम का एक तिहाई हिस्सा यानि 34 प्रतिशत है। अगर आम आदमी पार्टी और बाकी बचे निर्दलीय भी मीरा कुमार का समर्थन करेंगे तो भी यह आंकड़ा चालीस प्रतिशत से कम ही रहता है।

गैर एनडीए दलों ने भी दिया रामनाथ कोविंद का साथ
रामनाथ कोविंद को एनडीए के अलावा अन्य कई दलों का समर्थन है। इनमें जेडीयू के पास 1.91 फीसदी वोट, बीजेडी के पास 2.99 फीसदी वोट, टीआरएस के पास 2% वोट, AIADMK के एक गुट के पास 5.39 % और वाईएसआर कांग्रेस के पास 1.53% वोट है। इन दलों ने भी कोविंद के पक्ष में मतदान किया है। यानि रामनाथ कोविंद के हिस्से में एनडीए और गैर एनडीए दलों के समर्थन से करीब 63 प्रतिशत मत हैं। ऐसे में मतों के गुणा-भाग के हिसाब से भी साफ है कि रामनाथ कोविंद की जीत पक्की है।

मोदी-शाह की जोड़ी की रणनीतिक जीत
रामनाथ कोविंद के नाम की जब घोषणा की गई थी तो इसका किसी ने अनुमान तक नहीं लगाया था। तमाम कयासों को धता बताते हुए पीएम मोदी और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने रामनाथ कोविंद के नाम का एलान किया तो विपक्ष चकरा गया। दलित परिवार से आने वाले कोविंद का वंशवाद या भ्रष्टाचार से दूर-दूर का नाता नहीं है। सार्वजनिक जीवन में सादगी की ऐसी मिसाल कि बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने झट से इनके समर्थन का एलान कर दिया। नीतीश के इस एलान के बाद तो विपक्ष अचानक बचाव की मुद्रा में आ गया। जाहिर है विपक्ष के पास विरोध का कोई आधार नहीं बच गया। ऐसे में साफ है कि यह मोदी-शाह की जोड़ी की एक और रणनीतिक जीत है।

विपक्ष की कमजोर रणनीति हुई एक्सपोज
एक तरफ पीएम मोदी और अमित शाह की स्पष्ट रणनीति थी, तो दूसरी तरफ विपक्ष विरोधाभास में उलझा हुआ था। आदिवासी उम्मीदवार उतारने से लेकर गोपाल कृष्ण गांधी तक के नाम की चर्चा चली, लेकिन विपक्ष मोदी-शाह की रणनीति की काट नहीं निकाल पाया। अंत में वंशवाद की प्रतीक मीरा कुमार को सामने लाना मजबूरी बन गई। दरअसल विपक्ष यह साबित करना चाहता था कि वह भी दलित को ही राष्ट्रपति बनाना चाहता था। लेकिन रामनाथ कोविंद का नाम घोषित होने के दो दिन बाद मीरा कुमार का नाम सामने आने से लोगों के बीच संदेश यह गया कि विपक्ष ने प्रतिक्रियात्मक फैसला लिया।

सोनिया की स्वार्थी राजनीति से बिखरा विपक्ष
राष्ट्रपति चुनाव को लेकर उम्मीद की जा रही थी कि विपक्ष एक साझा और मजबूत उम्मीदवार पेश करेगा। लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष की स्वार्थी राजनीति के कारण विपक्ष बिखर गया। स्वार्थी राजनीति इसलिए कि कांग्रेस कभी भी गैर कांग्रेसी दलों की राय को महत्व नहीं देती है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बात तक को तवज्जो नहीं दी गई, वहीं बीएसपी की अध्यक्ष मायावती की भी बात अनसुनी कर दी गई। इसके साथ ही कांग्रेस अपने उम्मीदवार का नाम आगे करने से भी कतराती रही। ऐसे में गैर कांग्रेसी दलों का विश्वास कांग्रेस पार्टी से टूट गया।

 

दलित Vs दलित लड़ाई बनाने की कुत्सित कोशिश
कांग्रेस ने मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाया तो इसे दलित Vs दलित बनाने की कांग्रेस की एक और कोशिश के तौर पर देखा गया। लोगों को यह समझ नहीं आया कि कांग्रेस ने आखिर ऐसा क्यों किया? दरअसल बीते सत्तर वर्षों में कांग्रेस ने यही तो किया ही है। अगर रामनाथ कोविंद के नाम का एलान हो गया तो कांग्रेस उन्हें एनडीए का कैंडिडेट न मानकर एक दलित नेता के तौर पर ही समर्थन दे दिया होता। लेकिन कांग्रेस ने दो दलितों को ही आपस में लड़वा दिया।

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मीरा कुमार के अपमान का जिम्मेदार है कांग्रेस
सारे समीकरण जब रामनाथ कोविंद की जीत को आश्वस्त कर रहे हैं तो कांग्रेस ने मीरा कुमार को क्यों बनाया उम्मीदवार? दरअसल कांग्रेस दलितों या उनकी समस्याओं को लेकर गंभीर नहीं है। अगर कांग्रेस को दलितों से इतना ही प्यार है तो उसे चाहिये था कि मीरा कुमार को पिछले चुनाव में ही उम्मीदवार बनाते। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। दरअसल जब नीतीश कुमार ने रामनाथ कोविंद का समर्थन कर दिया तो उन्हें घेरने की राजनीति के तहत ऐसा किया गया। लालू प्रसाद के इशारे पर नीतीश को एक्सपोज करने के लिए कांग्रेस ने ये चाल चली। अब जबकि मीरा कुमार की हार सुनिश्चित है तो यह तो जरूर कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने दलितों को एक-दूसरे से लड़ाने के लिए मीरा कुमार को उम्मीदवार बना दिया, जो दलितों का अपमान है।

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