सेना का नाम सुनते ही हर भारतीय के मन में सम्मान जाग उठता है। हर हिंदुस्तानी के मन में यह बात हमेशा रहती है कि सेना है तो हम सुरक्षित हैं, लेकिन देश में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो सेना को भी अपनी ‘ओछी राजनीति’ का हिस्सा बना देते हैं। सेनाध्यक्ष बिपिन रावत के एक सुलझे हुए बयान को आधार बनाकर अपनी सियासत चमकाने की कोशिश की है। परन्तु वे इसे सियासत का मुद्दा बनाकर उन सवालों से दूर भागना चाह रहे हैं जो आज के संदर्भ में आवश्यक हैं और देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा से जुड़े हैं।
दरअसल सेनाध्यक्ष बिपिन रावत असम सहित पूर्वोत्तर इलाके में अवैध अप्रवासियों के मुद्दे पर बोल रहे थे और उन्होंने सीमापार से घुसपैठ पर चिंता जताते हुए कहा, ”हमारे पश्चिमी पड़ोसी के चलते योजनाबद्ध तरीके से प्रवासन चल रहा है। वे हमेशा कोशिश और यह सुनिश्चित करेंगे कि परोक्ष युद्ध के जरिये इस क्षेत्र पर नियंत्रण कर लिया जाए।”
इसके बाद उन्होंने असम में बांग्लादेशी घुसपैठिये वोट बैंक के आधार पर (जिन्हें कांग्रेस के शासन में वोटर कार्ड-राशन कार्ड दिए गए) तेजी से उभरती पार्टी AIUDF के तेजी से हुए उभार पर भी सवाल उठाए और बड़ी लोकतांत्रिक पार्टियों को घेरते हुए कहा कि राज्य में इसका उभार 1980 के दशक से भाजपा के विकास से अधिक तेज रहा है।
सेनाध्यक्ष के कहने का तात्पर्य साफ था कि बड़े राजनीतिक दल उस इलाके में लोगों का विश्वास का जीतने में नाकाम रहे हैं, इसलिए ही AIUDF जैसी बांग्लादेशी आबादी से पली-बढ़ी पार्टियों का प्रभुत्व बढ़ गया है। उनकी चिंता जायज है, क्योंकि देश की सुरक्षा के लिए सरकारें भी सेना के ही सहारे होती हैं। लेकिन सवाल उन पॉलिटिशियनों के आचरण को लेकर उठ रहे हैं जो सेना को सियासत का मोहरा बनाने पर तुले हुए हैं। ये वही जमात है जो सेना को धर्म के आधार पर भी बांटती है और पत्थरबाजों पर कार्रवाई के लिए गुनहगार भी ठहराती है। सवाल उठते हैं कि क्या ऐसे सवाल उठाने वाले वाकई में देश तोड़ना नहीं चाहते?
इन राजनीतिक दलों के बयानों को भी देखें तो समझ आएगा कि किस तरह से वामपंथी दल और कांग्रेस से जुड़ी पार्टियां सेना को भी राजनीति में घसीटना चाहती है, या फिर वह सेना को भी एक पार्टी बनाकर अपनी सियासत साधना चाहती है।
सेनाध्यक्ष के इस बयान पर सबसे अधिक मिर्ची लगी AIMIM के असदुद्दीन ओवैसी को।
असदुद्दीन ओवैसी, AIMIM
आर्मी चीफ को राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, किसी राजनीतिक पार्टी के उदय पर बयान देना उनका काम नहीं है। लोकतंत्र और संविधान इस बात की इजाजत देता है कि सेना हमेशा एक निर्वाचित नेतृत्व के तहत काम करेगी।
माजिद मेमन, एनसीपी
ये राजनीतिक मामला है इसपर नेताओं को ही बयानबाजी करनी चाहिए, आर्मी चीफ को ये सब शोभा नहीं देता है।
मीम अफजल, कांग्रेस
आर्मी के अफसर को राजनीतिक बयानबाजी नहीं करनी चाहिए, रावत को ऐसी बयानबाजी से बचना चाहिए।
वृंदा करात, CPM
राष्ट्रपति को गंभीरता से मामले में संज्ञान लेना चाहिए। बिपिन रावत सेना के राजनीतिकरण का प्रयास कर रहे हैं।
सेनाध्यक्ष के बयान को सियासत का मुद्दा बनाने में कामयाब हुए इन राजनीतिक दलों के बयानों से AIUDF प्रमुख बदरुद्दीन अजमल को भी ताकत मिली और उन्होंने भी सेना प्रमुख को चुनौती दे डाली। उन्होंने कहा- पार्टी बढ़ रही है तो सेना प्रमुख को चिंता क्यों हो रही है?
जाहिर है जिस AIUDF के उभार को लेकर चिंता जताई गई उसके प्रमुख ने भी सेना को ‘तुच्छ’ समझ लिया।
अब जरा आर्मी चीफ की चिंता के कारण को समझिये तो सब साफ हो जाएगा कि किस प्रकार से धार्मिक आधार पर आबादी में असंतुलन पैदा कर देश तोड़ने की साजिश रची जा रही है।
असम में बिगड़ा जनसांख्यिकीय संतुलन
2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक असम में मुसलमानों की आबादी में सबसे तेज बढ़ोतरी हुई है। 2001 में जहां यह 30.9 प्रतिशत थी, वहीं अब बढ़कर 34.2 प्रतिशत हो गई है, जबकि देश भर में मुसलमानों की आबादी में 13.4 प्रतिशत से 14.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। असम में 35 प्रतिशत से अधिक मुस्लिमों वाली 2001 में 36 विधानसभा सीटें थीं, जो 2011 में बढ़कर 39 हो गईं। गौरतलब है कि 1971 में बांग्लादेश के स्वतन्त्र होने के बाद से 1991 तक असम में हिंदुओं की जनसंख्या में 41.89 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि इसी अंतराल में मुस्लिम जनसंख्या 77.42 प्रतिशत की वृद्धि बेलगाम वृद्धि हुई। 1991 से 2001 के मध्य असम में हिन्दुओं की जनसंख्या 14.95 प्रतिशत बढ़ी, जबकि मुस्लिमों की जनसंख्या में 29.3 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई।
इसके साथ ही अब AIUF के उभार को समझिये तो तस्वीर और भी साफ होती जाएगी।
… और बढ़ता ही गया AIUDF
2005 में AIUDF का गठन हुआ था। 2006 में असम विधानसभा चुनाव हुए तो उन्हें 10 सीटों पर जीत मिली। 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में इसके प्रमुख बदरूद्दीन अजमल खुद चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे। 2011 के असम विधानसभा चुनाव में AIUDF के 18 विधायक जीतने में कामयाब रहे। इसी के साथ पार्टी असम की सियासत में मुख्य विरोधी दल के तौर पर उभरकर आई। 2014 के लोकसभा चुनाव में राज्य की 11 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा, जिनमें से तीन पर जीत हासिल की। 2016 के विधानसभा चुनाव में अजमल की पार्टी AIUDF को 13 सीटें मिलीं।
इस सवालों के जवाब जरूरी हैं !
अब सवाल ये है कि सेना राजनीति कर रही है या फिर ओवैसी या तथाकथित सेक्यूलर कहे जाने वाले नेता? चंद सवाल हैं जो इनकी इस ओछी सियासत का पोल खोलते हैं।
क्या ओवैसी को नहीं पता है कि बांग्लादेशी घुसपैठियों पूर्वोत्तर के इलाके में घुसपैठ बड़ा मुद्दा है? क्या ये सही नहीं है कि बांग्लादेशी अप्रावसियों के कारण ही उस इलाके में जनसांख्यिकीय संतुलन में बड़ा बदलाव हो चुका है? क्या ओवैसी को ये नहीं मालूम है कि चीन और पाकिस्तान मिलकर अवैध घुसपैठ को बढ़ावा दे रहा है? क्या ये सही नहीं है कि इस घुसपैठ के पीछे चीन और पाकिस्तान है? क्या ये सही नहीं है कि पूर्वोत्तर के मूल निवासियों में इस अवैध घुसपैठ को लेकर काफी गुस्सा है जो कभी भी मुश्किल हालात पैदा कर सकते हैं? क्या ये सही नहीं है कि AIUDF जैसी पार्टियां बांग्लादेशी घुसपैठियों और देश विरोधी जमात को इकट्ठा कर बनी है? क्या ये सही नहीं है कि 2005 में बनी ये पार्टी लोकसभा और विधानसभा में अच्छी दखल रखने लगी है? क्या ये सही नहीं है कि देश की बड़ी राजनीतिक पार्टियों की नाकामी है कि वो AIUDF जैसी पार्टियों के उभार के लिए जिम्मेदार हैं? सवाल ये भी कि, क्या सेनाध्यक्ष द्वारा ऐसी स्थिति की व्याख्या करना, जो देश के लिए आने वाले समय में घातक सिद्ध होने वाली है, सही नहीं है?
बड़ा मुद्दा है अवैध घुसपैठियों का नागरिक बन जाना
बहरहाल हम ये क्यों भूल जाते हैं कि भारत विविधताओं से भरा देश है, लेकिन दूसरे देशों से अवैध घुसपैठियों का भारत में घुस आना बहुत बड़ा मुद्दा है? यही नहीं इससे भी बड़ा मुद्दा ये है कि उन्हें सियासत के चक्कर में देश में वोटर कार्ड, राशन कार्ड जैसी सुविधाएं मुहैया करवा दी जाती हैं और इसी आधार पर वे देश की आबादी से जुड़ जाते हैं। पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और मणिपुर में भी ऐसे ही हालात हैं। जाहिर है ऐसे जनसांख्यिकीय असंतुलन से देश की एकता अखंडता को खतरा उत्पन्न हो रहा है और सेनाध्यक्ष का इस पर चिंता जाहिर करना, अपनी बात रखना और राजनीतिक दलों को आईना दिखाना बिल्कुल जायज है।