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मोदी सरकार के 9 सालः देश के अमर बलिदानियों, इतिहास के भूले-बिसरे और गुमनाम नायकों को पीएम मोदी ने दिलाया राष्ट्रीय पहचान

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भारत के इतिहास में महान वीरों, बलिदानियों, सेनानियों, योद्धाओं की कमी नहीं रही है, लेकिन आजादी के बाद कांग्रेस सरकार ने इन्हें उपेक्षित छोड़ दिया। 60 साल तक देश गुलामी की मानसिकता में ही जीता रहा और अंग्रेजों एवं वामपंथी इतिहासकारों के लिखे इतिहास को ही पढ़ाया गया। जबकि सदियों से भारत में वीर सपूत जन्म लेते रहे हैं और अपने साहस का लोहा मनवाते रहे हैं। लेकिन उपेक्षा की वजह से देश में बहुत से ऐसे वीर हुए हैं, जो कहीं न कहीं गुमनामी के अंधेरे में खो गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार ने पिछले नौ साल में सैकड़ों ऐसे नायकों को सामने लाकर उचित सम्मान दिलाया है। जिन गुमनाम नायकों को उचित सम्मान दिलाया उनमें प्रमुख रूप से लासित बोरफुकन, नादप्रभु केम्पेगौड़ा, अल्लूरी सीताराम राजू, गोविंद गुरु, रानी चेन्नम्मा, बिरसा मुंडा आदि शामिल हैं। इस तरह के सैकड़ों गुमनाम बलिदानियों, वीर नायकों को पीएम मोदी ने भारतीय जनमानस के बीच फिर से स्थापित किया है। पिछले नौ साल में प्रधानमंत्री ने इतिहास के भूले-बिसरे ऐसे कई नायकों को राष्ट्रीय पहचान दी जिन्हें लगभग भुला दिया गया था। इनमें आदिवासी समुदाय के भी कई नायक शामिल हैं।

लासित बोरफुकनः ‘पूर्वोत्तर के शिवाजी’ लासित ने मुगलों के छक्के छुड़ा दिए थे

असमिया योद्धा लासित बोरफुकन की 400वीं जयंती 24 नवंबर 2022 मनाई गई। सोलहवीं सदी में मुग़ल विस्तारवाद को सफल चुनौती देने वाले लासित असम के समाज में एक नायक की तरह प्रतिष्ठित हैं और हर वर्ष उनकी जयंती 1930 से ही पूरे असम में ‘लासित दिवस’ के रूप में धूमधाम से मनाई जाती रही है। पूर्वोत्तर में मुगलों को धूल चटाने वाले लासित बोरफुकन अपने जज्बे के लिए जाने जाते थे, जिन्होंने कई बार मुगलों को युद्ध में हराया था। लासित बोरफुकन को पूर्वोत्तर का शिवाजी भी कहा जाता है। उन्होंने मुगलों को कई बार धूल चटाई और हमेशा युद्ध में हराया। लासित ने मुगलों के कब्जे से गुवाहाटी को छुड़ा कर उस पर फिर से अपना कब्जा कर लिया था और मुगलों को गुवाहाटी से बाहर धकेल दिया था। इसी गुवाहाटी को फिर से पाने के लिए मुगलों ने अहोम साम्राज्य के खिलाफ सरायघाट की लड़ाई लड़ी थी।

इस युद्ध में मुगल सेना ने 1,000 से अधिक तोपों के अलावा बड़े स्तर पर नौकाओं का उपयोग किया था, लेकिन फिर भी लासित की रणनीति के आगे उनकी एक नहीं चली थी। साल 1671 में, गुवाहटी के पास सरायघाट में मुगलों और अहोम के बीच एक भयानक और निर्णायक युद्ध हुआ जिसे इतिहास में ‘सरायघाट के युद्ध’ के नाम से जाना जाता है। इस लड़ाई में अहोम सेनापति लासित ने बहादुरी का गजब मिसाल पेश किया और उनकी अगुवाई में छोटी सी अहोम आर्मी ने मुगलों के छक्के छुड़ा दिए। तभी से लासित का नाम असम के इतिहास में अमर हो गया। मुगलों को हराने वाले लासित बोरफुकन के पराक्रम और सरायघाट की लड़ाई में असमिया सेना की विजय की याद में उनके नाम पर नेशनल डिफेंस एकेडमी में बेस्ट कैडेट गोल्ड मेडल भी दिया जाता है, जिसे लासित मेडल भी कहा जाता है।

नादप्रभु केम्पेगौड़ाः बेंगलुरू शहर के फाउंडर के साथ ही केम्पेगौड़ा ने कई सामाजिक कार्य भी किए

नादप्रभु केम्पेगौड़ा को विजयनगर साम्राज्य के मुखिया के रूप में जाना जाता है। कैम्पेगौड़ा को 16वीं शताब्दी में बेंगलुरू के फाउंडर के रूप में भी जाना जाता है। इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो हम पाएंगे कि उन्हें अपने समय के सबसे प्रसिद्ध और शिक्षित शासक के रूप में जाना जाता है। मोरासु गौड़ा वंश के वंशज कैम्पेगौड़ा ने बचपन से ही लीडरशिप क्वालिटी का प्रदर्शन किया जब वे ऐवरुकंदपुरा (ऐगोंडापुरा), हेसरघट्टा के पास एक गांव के एक गुरुकुल में पढ़ा करते थे। वे अपने पिता के बाद 1513 में मुखिया बने। कैम्पेगौड़ा ने अपने शासन में कई सामाजिक कार्य भी किए। उन्होंने मोरासु गौड़ा के लोगों के बंदी देवारू के दौरान अविवाहित महिलाओं की अंतिम दो अंगुलियों को काटने की प्रथा पर रोक लगाई। कन्नड़ समुदाय से ताल्लुक रखने के बाद भी उन्हें कई अन्य भाषाओं का भी ज्ञान था। लेकिन जीवन की कठिनाइओं ने कैम्पेगौड़ा का भी साथ नहीं छोड़ा। उनके पड़ोसी द्वारा किए गए शिकायत के कारण उन्हें अपने जीवन के 5 साल जेल में बिताने पड़े। लेकिन बावजूद इसके उनके शासन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। कहा जाता है कि केम्पेगौड़ा को शहर बनाने का विचार शिवनासमुद्र की ओर शिकार अभियान के दौरान आया था। केम्पेगौड़ा की प्रारंभिक योजनाओं के अनुसार, शहर में एक किला, एक छावनी, टैंक, मंदिर आदि मौजूद होना चाहिए। विजयनगर के शासक अच्युतराय से आज्ञा लेने के बाद उन्होंने बेंगलुरु के किले का निर्माण किया और अपनी राजधानी येलाहंका से बेंगलुरु पीट में स्थानांतरित कर दिया। 56 वर्षों तक शासन करने के बाद 1569 में उनकी मृत्यु हो गई। बेंगलुरू एयरपोर्ट परिसर में लगी केंपेगोड़ा की 108 फीट ऊंची प्रतिमा आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। प्रसिद्ध मूर्तिकार राम वनजी सुतार ने डिजाइन किया है। केम्‍पेगोड़ा की प्रतिमा का वजन 218 टन है। प्रतिमा में 98 टन कांस्य और 120 टन स्टील का प्रयोग किया गया है। प्रतिमा की तलवार का वजन ही 4 टन है। कहा जा रहा है कि किसी शहर के संस्थापक की ये सबसे ऊंची प्रतिमा है।

अल्लूरी सीताराम राजूः अंग्रेज़ों के विरुद्ध रम्पा विद्रोह शुरू किया

आंध्र प्रदेश में भीमावरम के समीप मोगल्लु नामक गांव में 04 जुलाई 1897 को जन्मे अल्लूरी सीताराम राजू एक संन्यासी थे जो न्याय में दृढ़ विश्वास रखते थे। उन्होंने कई बार गैरकानूनी ब्रिटिश नीतियों के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठाई और उनके खिलाफ़ लड़ाई लड़ी। कहा जाता है कि सीताराम राजू ने अपनी स्कूली शिक्षा अपने पैतृक गांव में ही पूरी की थी और फिर अपनी उच्च शिक्षा के लिए वह विशाखापट्टणम चले गए। 18 वर्ष की आयु में, उन्होंने सभी सांसारिक सुखों को त्याग दिया और एक संन्यासी बन गए। वह एक बाल संन्यासी के रूप में क्षेत्र की पहाड़ियों और जंगलों में घूमते रहे और स्थानीय आदिवासी समुदाय के साथ घुलमिल गए। बदले में, आदिवासियों ने उन्हें एक ऐसा संत माना जो उन्हें ब्रिटिश अधिकारियों के हाथों उनके अपमानजनक अस्तित्व से मुक्ति दिलाएगा। शुरुआत में, सीताराम राजू ने गांधीजी के असहयोग आंदोलन के प्रभाव में आकर, आदिवासियों को स्थानीय पंचायत अदालतों में न्याय मांगने और औपनिवेशिक अदालतों का बहिष्कार करने के लिए प्रेरित किया। लेकिन, ऐसा करने से उनकी पीड़ा कम नहीं हुई और अंततः उन्होंने इस आंदोलन के माध्यम से परिवर्तन की आवश्यकता के बारे में जागरूकता फैलाई।

अल्लूरी सीताराम राजू ने आदिवासियों के अधिकारों के लिए जान कुर्बान कर दी

सन् 1922 के अगस्त में, उन्होंने अंग्रेज़ों के विरुद्ध रम्पा विद्रोह का आरंभ किया। रम्पा प्रशासनिक क्षेत्र में लगभग 28,000 जनजातियां रहती थी। यह जनजातियां खेती में ‘पोड़ु’ प्रणाली का उपयोग करती थी जिसमें हर साल वन के क्षेत्र के एक छोटे हिस्से को खेती के लिए खाली किया जाता था, क्योंकि यह उनके भोजन का एकमात्र स्रोत था। जबकि जनजातियों के लिए जंगल उनके जीने के लिए बहुत आवश्यक थे, अंग्रेज़ उन्हें वहां से बेदखल करना चाहते थे ताकि वे लकड़ी के लिए इन क्षेत्रों को लूट सकें, जो अंततः उन्हें रेलवे और जहाजों के निर्माण में मदद करेगा। जंगलों को काटने के लिए, ‘मद्रास वन अधिनियम, 1882’ लागू किया गया जिससे जनजातीय समुदायों को जंगलों में अपनी मर्ज़ी से इधर-उधर जाने को प्रतिबंधित कर दिया गया और साथ ही साथ उन्हें अपनी पारंपरिक पोड़ु खेती करने से भी रोक दिया गया। इस अत्याचारपूर्ण आदेश ने आदिवासी विद्रोह की शुरुआत की, जिसे मान्यम विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है। इन जनजातियों ने पहाड़ी क्षेत्र में सड़कों और रेलवे लाइनों के निर्माण में बंधुआ मजदूरों के रूप में काम करने से मना कर दिया। सीताराम राजू ने उनके लिए न्याय की मांग की थी। उन्होंने अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ने के लिए गुरिल्ला युद्ध का सहारा लिया।

आदिवासी लोगों की अपनी सेना के साथ, उन्होंने कई पुलिस थानों पर आक्रमण किया और छापा मारा, कई ब्रिटिश अधिकारियों को मार डाला, और अपनी लड़ाई जारी रखने के लिए गोला-बारूद और हथियार भी चुराए। उन्हें स्थानीय लोगों का भरपूर समर्थन मिला और इसी कारण वे लंबे समय तक अंग्रेज़ों से बचे रहने में कामयाब रहे। अंग्रेज़ों के विरुद्ध उनके इस दो साल के सशस्त्र संघर्ष (1922-24) ने ब्रिटिश अधिकारियों को इस हद तक परेशान कर दिया कि जो कोई भी उन्हें ज़िंदा या मुर्दा पकड़कर ला पाता, उसके लिए 10,000 रुपयों के इनाम की घोषणा कर दी गई थी। इस बीच, अंग्रेज़ों ने आदिवासियों पर अत्याचार करना जारी रखा। उनकी पीड़ा को कम करने के लिए, और एक न्यायप्रिय व्यक्ति होने के नाते, सीताराम राजू ने इस उम्मीद के साथ आत्मसमर्पण किया कि बदले में उन्हें निष्पक्ष सुनवाई का मौका दिया जाएगा। लेकिन 07 मई 1924 को, उन्हें धोखे से फंसाया गया, एक पेड़ से बांधा, और गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। 08 मई को उनका अंतिम संस्कार किया गया। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध उनकी गौरवशाली लड़ाई का अंत हो गया। उन्होंने अपने पीछे साम्राज्यवाद-विरोधी विद्रोह की एक प्रेरक विरासत छोड़ी है। आज, इतिहास उन्हें एक निडर क्रांतिकारी के रूप में याद करता है, जो एक आदिवासी न होकर भी आदिवासी लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए लड़े। उन्हें उनकी वीरता और साहस के लिए “मान्यम वीरुडु” (जंगल का नायक) की उपाधि से सम्मानित किया गया था। प्रत्येक वर्ष, आंध्र प्रदेश सरकार उनकी जन्म तिथि, 4 जुलाई को राज्य उत्सव के रूप में मनाती है।

गोविंद गुरुः भीलों के बीच शिक्षा और आजादी की अलख जगाई

गोविंद गिरि को गोविंद गुरु के नाम से भी जाना जाता है। उनका जन्म 20 दिसंबर 1858 को डूंगरपुर जिले के बांसिया बेड़िया गांव में गौर जाति में एक बंजारा परिवार में हुआ था। बचपन से ही आध्यात्म में उनकी रूचि थी। आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती से उन्हें प्रेरणा मिली, जिसके बाद उन्होंने अपने जीवन को देश, धर्म और समाज की सेवा में समर्पित कर दिया। उन्होंने किसी स्कूल में पढ़ाई नहीं की। जब देश गुलाम था, तब उन्होंने भीलों के बीच शिक्षा और आजादी की अलख जगाई। जब भारत में विदेशी हुकूमत के खिलाफ आवाज़ें बुलंद हो रही थीं तब गोविन्द गुरु भील आदिवासियों के बीच शिक्षा की अलख जगा रहे थे और उनके अंदर देशभक्ति की ऊर्जा भर रहे थे।

मानगढ़ धाम गोविन्द गुरु और मातृभूमि के लिए प्राण न्योछावर करने वाले आदिवासियों के बलिदान का प्रतीक

गोविंद गुरु एक सामाजिक और धार्मिक सुधारक थे। उन्होंने राजस्थान और गुजरात के आदिवासी बहुत सीमावर्ती क्षेत्रों में 1890 के दशक में भगत आंदोलन चलाया। इस आंदोलन में अग्नि देवता को प्रतीक माना गया था। उन्होंने 1893 में सम्प सभा की स्थापना की। इसके द्वारा उन्होंने शराब, मांस, चोरी और व्यभिचार से दूर रहने का प्रचार किया। गोविंद गुरु ने लोगों से सादा जीवन जीने, हर दिन नहाने, यज्ञ और कीर्तन करने, बच्चों को पढ़ाने, अन्याय न सहने, जागीरदारों को लगान न देने और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी अपनाने का आह्वान किया। बात 17 नवंबर 1913 की है। मानगढ़ की पहाड़ी पर वार्षिक मेला लगने वाला था। इससे पहले गोविंद गुरु ने ब्रिटिश सरकार से अकाल पीड़ित आदिवासियों से खेती पर लिया जा रहा कर घटाने का आग्रह किया, लेकिन सरकार ने उनकी बात नहीं मानी और पहाड़ी को घेरकर मशीनगन और तोपों से हमला कर दिया। इससे हजारों लोगों की मौत हो गई। ब्रिटिश हुकूमत ने गोविंद गुरु को गिरफ्तार कर लिया। उन्हें पहले फांसी की सजा सुनाई गई थी, जिसे बाद में आजीवन कारावास में बदल दिया गया। गोविंद गुरु 1923 तक जेल में रहे। जेल से छूटने के बाद उन्होंने भील सेवा सदन के माध्यम से जनसेवा करते रहे। 30 अक्टूबर 1931 को गुजरात के कम्बोई गांव में उनका निधन हो गया। हर साल लोग वहां बने उनकी समाधि पर आते हैं और श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

रानी चेन्नम्मा: कर्नाटक की ‘लक्ष्मीबाई’ ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह किया

रानी चेन्नम्मा की कहानी लगभग झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह है। इसलिए उनको ‘कर्नाटक की लक्ष्मीबाई’ भी कहा जाता है। वह पहली भारतीय शासक थीं जिन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह किया। भले ही अंग्रेजों की सेना के मुकाबले उनके सैनिकों की संख्या कम थी और उनको गिरफ्तार किया गया लेकिन ब्रिटिश शासन के खिलाफ बगावत का नेतृत्व करने के लिए उनको अब तक याद किया जाता है। चेन्नम्मा का जन्म 23 अक्टूबर, 1778 को ककाती में हुआ था। यह कर्नाटक के बेलगावी जिले में एक छोटा सा गांव है। उनकी शादी देसाई वंश के राजा मल्लासारजा से हुई जिसके बाद वह कित्तुरु की रानी बन गईं। कित्तुरु अभी कर्नाटक में है। उनको एक बेटा हुआ था जिनकी 1824 में मौत हो गई थी। अपने बेटे की मौत के बाद उन्होंने एक अन्य बच्चे शिवलिंगप्पा को गोद ले लिया और अपनी गद्दी का वारिस घोषित किया। लेकिन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी ‘हड़प नीति’ के तहत उसको स्वीकार नहीं किया। हालांकि उस समय तक हड़प नीति लागू नहीं हुई थी फिर भी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1824 में कित्तुरु पर कब्जा कर लिया। ब्रिटिश शासन ने शिवलिंगप्पा को निर्वासित करने का आदेश दिया। लेकिन चेन्नम्मा ने अंग्रेजों का आदेश नहीं माना। उन्होंने बॉम्बे प्रेसिडेंसी के लेफ्टिनेंट गवर्नर लॉर्ड एलफिंस्टन को एक पत्र भेजा। उन्होंने कित्तुरु के मामले में हड़प नीति नहीं लागू करने का आग्रह किया। लेकिन उनके आग्रह को अंग्रेजों ने ठुकरा दिया। इस तरह से ब्रिटिश और कित्तुरु के बीच लड़ाई शुरू हो गई। अंग्रेजों ने कित्तुरु के खजाने और आभूषणों के जखीरे को जब्त करने की कोशिश की जिसका मूल्य करीब 15 लाख रुपये था। लेकिन वे सफल नहीं हुए।

रानी चेन्नम्मा ने पहली लड़ाई में ब्रिटिश सेना को पराजित किया, बाद में अंग्रेजों ने धोखा दिया

अंग्रेजों ने 20,000 सिहापियों और 400 बंदूकों के साथ कित्तुरु पर हमला कर दिया। अक्टूबर 1824 में उनके बीच पहली लड़ाई हुई। उस लड़ाई में ब्रिटिश सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा। कलेक्टर और अंग्रेजों का एजेंट सेंट जॉन ठाकरे कित्तुरु की सेना के हाथों मारा गया। चेन्नम्मा के सहयोगी अमातूर बेलप्पा ने उसे मार गिराया था और ब्रिटिश सेना को भारी नुकसान पहुंचाया था। दो ब्रिटिश अधिकारियों सर वॉल्टर एलियट और स्टीवेंसन को बंधक बना लिया गया। अंग्रेजों ने वादा किया कि अब युद्ध नहीं करेंगे तो रानी चेन्नम्मा ने ब्रिटिश अधिकारियों को रिहा कर दिया। लेकिन अंग्रेजों ने धोखा दिया और फिर से युद्ध छेड़ दिया। इस बार ब्रिटिश अफसर चैपलिन ने पहले से भी ज्यादा सिपाहियों के साथ हमला किया। सर थॉमस मुनरो का भतीजा और सोलापुर का सब कलेक्टर मुनरो मारा गया। रानी चेन्नम्मा अपने सहयोगियों संगोल्ली रयन्ना और गुरुसिदप्पा के साथ जोरदार तरीके से लड़ीं। लेकिन अंग्रेजों के मुकाबले कम सैनिक होने के कारण वह हार गईं। उनको बेलहोंगल के किले में कैद कर दिया गया। वहीं 21 फरवरी 1829 को उनकी मौत हो गई। भले ही चेन्नम्मा आखिरी लड़ाई में हार गईं लेकिन उनकी वीरता को हमेशा याद किया जाएगा। उनकी पहली जीत और विरासत का जश्न अब भी मनाया जाता है। हर साल कित्तुरु में 22 से 24 अक्टूबर तक कित्तुरु उत्सव लगता है जिसमें उनकी जीत का जश्न मनाया जाता है। रानी चेन्नम्मा को बेलहोंगल तालुका में दफनाया गया है। उनकी समाधि एक छोटे से पार्क में है जिसकी देखरेख सरकार के जिम्मे है।

बिरसा मुंडाः आदिवासी अधिकारों के लिए अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन का बिगुल फूंका

बिरसा मुंडा एक आदिवासी नेता और लोकनायक थे। ये मुंडा जाति से सम्बन्धित थे। वर्तमान भारत में रांची और सिंहभूमि के आदिवासी बिरसा मुंडा को ‘बिरसा भगवान’ कहकर याद करते हैं। मुंडा आदिवासियों को अंग्रेज़ों के दमन के विरुद्ध खड़ा करके बिरसा मुंडा ने यह सम्मान अर्जित किया था। 19वीं सदी में बिरसा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक मुख्य कड़ी साबित हुए थे। ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेज आदिवासियों पर जुल्म बरपाया करते थे। न सिर्फ उनकी संस्कृति को नष्ट कर रहे थे, बल्कि उनके साथ बुरा बर्ताव भी किया करते थे। आदिवासियों पर मालगुजारी को बोझ लाद दिया था। आदिवासी महाजनों के चंगुल में फंसते जा रहे थे। उनके खेत-खलिहान पर अंग्रेजों का कब्जा होता जा रहा था। बिरसा मुंडा को यह देखकर बुरा लगा। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन का बिगुल फूंक दिया। बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहतु गांव में हुआ था। मुंडा रीती रिवाज के अनुसार उनका नाम बृहस्पतिवार के हिसाब से बिरसा रखा गया था। यह कहा जाता है कि 1895 में कुछ ऐसी आलौकिक घटनाएं घटीं, जिनके कारण लोग बिरसा को भगवान का अवतार मानने लगे। लोगों में यह विश्वास दृढ़ हो गया कि बिरसा के स्पर्श मात्र से ही रोग दूर हो जाते हैं। जन-सामान्य का बिरसा में काफ़ी दृढ़ विश्वास हो चुका था, इससे बिरसा को अपने प्रभाव में वृद्धि करने में मदद मिली। लोग उनकी बातें सुनने के लिए बड़ी संख्या में एकत्र होने लगे। बिरसा ने पुराने अंधविश्वासों का खंडन किया। लोगों को हिंसा और मादक पदार्थों से दूर रहने की सलाह दी। उनकी बातों का प्रभाव यह पड़ा कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों की संख्या तेजी से घटने लगी और जो मुंडा ईसाई बन गये थे, वे फिर से अपने पुराने धर्म में लौटने लगे।

बिरसा मुण्डा को इसीलिए कहा जाता है भगवान

1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से लगान माफी के लिये आन्दोलन किया। 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया। उन्हें उस इलाके के लोग “धरती बाबा” के नाम से पुकारा और पूजा जाता था। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी। 1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियां हुईं। जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारियां भी हुईं। अन्त में स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये। बिरसा ने अपनी अन्तिम सांसें 9 जून 1900 को रांची कारागार में लीं। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है।

आजादी की लड़ाई में आदिवासियों की अप्रतिम योगदानः पीएम मोदी

स्वतंत्रता की लड़ाई में आदिवासियों की भूमिका के बारे में चर्चा करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि आज़ादी की लड़ाई में आदिवासी समाज के अप्रतिम योगदान को हर घर तक पहुंचाने के लिए अमृत महोत्सव में अनगिनत प्रयास किए जा रहे हैं। आज़ादी के बाद पहली बार, देश में आदिवासी गौरव और विरासत को प्रदर्शित करने के लिए आदिवासी संग्रहालय बनाए जा रहे हैं। आंध्र प्रदेश के लंबसिंगी में “अल्लूरी सीताराम राजू मेमोरियल जन- जातीय स्वतंत्रता सेनानी संग्रहालय” भी बनाया जा रहा है। पिछले साल ही देश ने 15 नवंबर को भगवान बिरसा मुंडा जयंती को “राष्ट्रीय जनजाति गौरव दिवस” के रूप में मनाने की शुरुआत भी की है।

स्वतंत्रता संग्राम की महत्वपूर्ण घटना को इतिहास की किताबों में जगह नहीं मिली

मानगढ़ में 17 नवंबर, 1913 के नरसंहार को याद करते हुए, प्रधानमंत्री ने कहा कि यह भारत में ब्रिटिश शासन द्वारा अत्यधिक क्रूरता का एक उदाहरण था। मोदी ने कहा, “एक तरफ हमारे पास निर्दोष आदिवासी थे जो आजादी की मांग कर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों ने मानगढ़ की पहाड़ियों को घेरकर दिन-दहाड़े एक हजार पांच सौ से अधिक निर्दोष युवाओं, महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों का नरसंहार किया।” प्रधानमंत्री ने कहा कि दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों के कारण स्वतंत्रता संग्राम की इतनी महत्वपूर्ण और प्रभावशाली घटना को इतिहास की किताबों में जगह नहीं मिल पाई। प्रधानमंत्री ने कहा, “इस आजादी का अमृत महोत्सव में, भारत उस कमी को पूरा कर रहा है और दशकों पहले की गई गलतियों को सुधार रहा है।”

अमर चित्रकथाएं याद दिलाएंगी महिला एवं आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों की कहानियां, जानिए गुमनाम बलिदानियों एवं वीरांगानाओं की शौर्य गाथाएं

हमारा देश बलिदानियों का रहा है और इन बलिदानियों में नाम सिर्फ पुरूषों का ही नहीं बल्कि महिलाओं एवं आदिवासियों का भी अग्रणी रहा है। महिलाओं ने भी अपने देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था। इसी तरह आदिवासियों की भी आजादी के आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हालांकि इन महिला बलिदानियों एवं आदिवासी समुदाय के बलिदानियों के इतिहास को लंबे समय तक संजोने का प्रयास नहीं किया गया था। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर आजादी के अमृत काल में इन बलिदानियों के इतिहास को रोचक तरीके से संजोया जा रहा है। इसी कड़ी में भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा गुमनाम महिला स्वतंत्रता सेनानियों एवं आदिवासी सेनानियों के बलिदान की कहानियों को अमर चित्रकथा के साथ मिलकर सचित्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित कर जारी किया गया है। इसमें उन रानियों की कहानियां हैं जिन्होंने साम्राज्यवादी शासन के खिलाफ संघर्ष में साम्राज्यवादी शक्तियों से संघर्ष किया और जिन महिलाओं ने मातृभूमि के लिए अपना जीवन समर्पित किया और यहां तक कि बलिदान करने से पीछे नहीं हटीं। इसी तरह गुमनाम जनजातीय स्वतंत्रता सेनानियों पर सचित्र पुस्तक का प्रकाशन किया गया है।

इस पुस्तक में भारतीय इतिहास के गौरवशाली अतीत को हम देख सकते हैं। संस्कृति मंत्रालय ने अमर चित्र कथा के साथ मिलकर स्वतंत्रता संग्राम के 75 गुमनाम नायकों पर सचित्र पुस्तकों के प्रकाशन कर रही है। इसके तहत महिला एवं आदिवासी बलिदानियों पर पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है और इसके तहत तीसरी पुस्तक में अन्य क्षेत्रों के 30 गुमनाम नायकों पर पुस्तक प्रकाशित की जा रही है। गुमनाम नायकों पर खंड स्वतंत्रता संग्राम के भूले-बिसरे नायकों को याद करने का एक प्रयास है, जिनमें से कई नई पीढ़ी के लिए प्रसिद्ध हो सकते हैं लेकिन वे अज्ञात हैं। अतीत की फीकी यादों के रूप में पड़ी कहानियों को फिर से उजागर करने और सामने लाने का उद्देश्य आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन के एक माध्यम के रूप में काम करेगा। भारत 2.0 केवल विकास के किसी एक विशेष प्रतिमान में भारत की भावना को बढ़ावा देने के बारे में नहीं है। यह जीवन के सभी क्षेत्रों को समाहित करता है, सबसे बढ़कर हमारे दिल और आत्मा को समृद्ध करता है। जब तक हम अपने गुमनाम नायकों को तरक्की और विकास की इस यात्रा में शामिल नहीं करते हैं, तब तक भारत की भावना अधूरी है। उनके लोकनीतियों और सिद्धांतों को याद किया जाना चाहिए और उनका सम्मान किया जाना चाहिए।

महिला स्वतंत्रता सेनानियों पर केंद्रित पुस्तक

इस कॉमिक में 20 स्वतंत्रता सेनानी महिलाओं की कहानियां हैं। जिनमें रानी अब्बक्का, वेलु नाचियार, झलकारी बाई, मतंगिनी हजरा, गुलाब कौर, चकल्ली इल्लम्मा, पद्मजा नायडू, बिशनी देवी शाह, सुभद्रा कुमारी चौहान, दुर्गावती देवी, सुचेता कृपलानी, अक्कमा चेरियन, अरूणा आसफ अली, दुर्गाबाई देशमुख, रानी गायडीन्लीयु, ऊषा मेहता, पार्वती गिरी, तारकेश्वरी सिन्हा, स्नेहलता वर्मा व तिलेश्वरी बरूआ शामिल हैं।

रानी अब्बक्का : कर्नाटक के उल्लाल की रानी अब्बक्का ने 16वीं शताब्दी में शक्तिशाली पुर्तगालियों के खिलाफ कई दशकों तक लड़ाई लड़ी और उनके हमलों का मुंहतोड़ जवाब दिया था। रानी अब्बक्का को अभय रानी की उपाधि भी मिली थी क्योंकि पुर्तगालियों से उन्होंने उल्लाल शहर को आजाद करवाया था।

वेलु नचियार : वेलु नचियार शिवगंगा रियासत की रानी थी, जोकि भारत में अंग्रेजी औपनिवेशिक शक्ति के खिलाफ लड़ने वाली पहली वीरांगना थीं। उन्हें तमिलनाडु में वीरमंगई नाम से भी जाना जाता है। नचियार ने मैसूर के सुल्तान हैदर अली की सहायता से सेना बनाई थी और अंग्रेजों से लोहा लिया था।

झलकारी बाई : झलकारी बाई एक महिला सैनिक थीं, जिन्होंने झांसी की रानी के साथ मिलकर अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। वो झांसी की रानी की प्रमुख सलाहकार थीं और साल 1857 में स्वतंत्रता की पहली लड़ाई में हिस्सा लेने की वजह से एक प्रमुख हस्ती बन गई थीं।

मातंगिनी हाजरा : मातंगिनी हाजरा एक क्रांतिकारी थी, जिन्होंने रैली के लिए 5 हजार लोगों को तैयार किया था। वो सरकारी डाक बंगले लोगों के साथ पहुंची और नारे लगवा रही थी कि अंग्रेजों की गोली उनके माथे पर गोली मार दी। उन्हें उनके त्याग के लिए गांधी बुढ़ी के नाम से भी जाना जाता है।

गुलाब कौर : गुलाब कौर एक स्वतंत्रता सेनानी थीं, जिन्होंने भारतीय लोगों को ब्रिटिश राज के खिलाफ लडऩे और संगठित करने के लिए अपने जीवन की आशाओं और आकांक्षाओं का त्याग किया। वो गदर पार्टी में शामिल हुई थीं इसीलिए उन्हें गदर की बेटी के नाम से भी संबोधित किया जाता है।

तिलेश्वरी बरूआ : तिलेश्वरी बरुआ भारत की सबसे कम उम्र की शहीदों में शामिल थीं। उन्हें मात्र 12 साल की उम्र में वीरगति प्राप्त हुई थी। दरअसल उन्होंने कुछ स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिलकर एक पुलिस स्टेशन पर तिरंगा फहराने का प्रयास किया था। इसी दौरान उन्हें गोली मारी दी गई थी।

सुभद्रा कुमारी चौहान : सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम ही नहीं बल्कि वीररस से ओत-प्रोत कविताएं आज भी प्रत्येक भारतवासी के दिल में खास जगह रखती है। उन्हें हिंदी कवियों में विशेष स्थान होने के साथ ही स्वतंत्रता आंदोलनकारी भी कहा जाता है। जिन्होंने अपनी लेखनी से देश को दिशा दी थी।

दुर्गा देवी : दुर्गा देवी एक महान स्वतंत्रता सेनानी हैं व बहादुर महिला थीं। जिन्होंने जॉन सॉन्डर्स की हत्या के बाद भगत सिंह को सुरक्षित निकालने में मदद ही नहीं की बल्कि अपनी जान तक खतरे में डाल दी थी। यही नहीं उन्होंने भगत सिंह सहित कई स्वतंत्रता सेनानियों की मदद की थी।

जनजातीय स्वतंत्रता सेनानियों की गाथाएं

आज की तेजी से भागती दुनिया और कठिन प्रतिस्पर्धात्मक दैनिक जीवन में, युवाओं को हमारी समृद्ध विरासत और अतीत को याद करने के लिए मुश्किल से ही समय मिलता है। जब राष्ट्र आज़ादी का अमृत महोत्सव (भारतीय स्वतंत्रता के 75 वर्ष का स्मरणोत्सव) मना रहा है तब इन वीर स्वतंत्रता सेनानियों को याद करना हमारा फर्ज बनता है। भारत में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लड़ाई एक अनूठी कहानी है, जो इस उपमहाद्वीप में वीरता, बहादुरी, सत्याग्रह, समर्पण और बलिदान की विविध कहानियों से भरी है। ये कहानियां समृद्ध भारतीय सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं की रचना करती हैं। इस प्रकार, गुमनाम नायकों को कम-ज्ञात स्वतंत्रता सेनानियों के रूप में परिभाषित करने की जरुरत नहीं है बल्कि उनके आदर्श भारतीय मूल्य प्रणाली को चित्रित करते हैं। इस कथा संग्रह में उन बहादुर पुरुष एवं महिला स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान की कथाएं हैं, जिन्होंने ब्रिटिश राज के खिलाफ संघर्ष के लिए अपने जनजातीय साथियों को प्रेरणा दी और अपने जीवन का बलिदान किया।

भारत के स्वाधीनता संग्राम के वे जनजातीय स्वतंत्रता सेनानी, जिन्हें ज्यादा लोग नहीं जानते हैंः

तिलका मांझीः तिलका मांझी ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की ज्यादतियों के खिलाफ संघर्ष किया। वे पहाड़िय़ा जनजाति के सदस्य थे और उन्होंने अपने समुदाय को साथ लेकर कंपनी के कोषागार पर छापा मारा था। इसके लिए इन्हें फांसी की सजा दी गई।

थलक्कल चंथूः थलक्कल चंथू कुरिचियार जनजाति के सदस्य थे और इन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ पाजासी राजा के युद्ध में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इन्हें फांसी दे दी गई।

बुद्धु भगतः बुद्धु भगत उरांग जनजाति के सदस्य थे। ब्रिटिश अधिकारियों के साथ हुई कई मुठभेड़ों में से एक में इन्हें, इनके भाई, सात बेटों और इनकी जनजाति के 150 लोगों के साथ गोली मार दी गई।

तीरत सिंहः खासी समुदाय के प्रमुख तीरत सिंह को अंग्रेजों की दोहरी नीति का पता लग गया था, इसलिए उन्होंने उनके खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया। इन्हें पकड़ लिया गया, यातना दी गई और जेल में डाल दिया गया। जेल में ही इनकी मौत हो गई।

राघोजी भांगरेः राघोजी भांगरे महादेव कोली जनजाति के थे। इन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया और उनकी मां को कैद किए जाने के बावजूद उनका संघर्ष जारी रहा। इन्हें पकड़ लिया गया और फांसी दे दी गई।

सिद्धू और कान्हू मुर्मूः सिद्धू और कान्हू मुर्मू संथाल जनजाति के सदस्य थे, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया। इन्होंने हुल विद्रोह में संथाल लोगों का नेतृत्व किया। दोनों को धोखा देकर पकड़ लिया गया और फांसी दे दी गई।

रेन्डो मांझी और चक्रा विसोईः रेन्डो मांझी और चक्रा विसोई खोंद जनजाति के थे। जिन्होंने अपनी जनजाति के रिवाजों में हस्तक्षेप करने पर ब्रिटिश अधिकारियों का विरोध किया। रेन्डो को पकड़ कर फांसी पर लटका दिया गया जबकि चक्रा विसोई भाग गया और कहीं छिपे रहने के दौरान उसकी मौत हो गई।

नीलांबर और पीतांबरः मेरठ में शुरू हुए भारतीय विद्रोह में खारवाड़ जनजाति के भोगता समुदाय के नीलांबर और पीतांबर ने खुलकर भाग लिया और ब्रिटिश उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाने में अपने लोगों का नेतृत्व किया। दोनों को पकड़ लिया गया और फांसी दे दी गई।

रामजी गोंडः गोंड जनजाति के रामजी गोंड ने उस सामंती व्यवस्था का विरोध किया, जिसमें धनी जमींदार अंग्रेजों के साथ मिलकर गरीबों को सताते थे। इन्हें भी पकड़ कर फांसी पर चढ़ा दिया गया।

तेलंगा खरियाः खरिया जनजाति के तेलंगा खरिया ने अंग्रेजों की कर व्यवस्था और शासन को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और इस बात पर अड़े रहे कि उनकी जनजाति का स्वशासन का पारंपरिक तरीका जारी रखा जाए। उन्होंने अंग्रेजों के कोषागार पर संगठित हमले किए। उन्हें धोखे से पकड़ कर गोली मार दी गई।

तांतिया भीलः मध्य प्रांत के रोबिन हुड के नाम से मशहूर तांतिया भील ने अंग्रेजों की धन-संपत्ति ले जा रही ट्रेनों में डकैती डाली और उस संपत्ति को अपने समुदाय के लोगों के बीच बांट दिया। उन्हें भी जाल बिछाकर पकड़ा और फांसी पर चढ़ा दिया गया।

पाउना ब्रजवासीः मणिपुर के मेजर पाउना ब्रजवासी, अपनी मणिपुर की राजशाही को बचाने के लिए लड़े। वे अंग्रजों और मणिपुर के राजा के बीच हुए युद्ध के हीरो थे। वे एक सिंह की तरह लड़े लेकिन उन्हें पकड़ कर उनका सर धड़ से अलग कर दिया गया।

बिरसा मुंडाः मुंडा जनजाति के बिरसा मुंडा अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष के महानायक थे। उन्होंने अंग्रेजों के साथ कई संघर्षों में मुंडा लोगों का नेतृत्व किया। उन्हें पकड़ कर जेल में डाल दिया गया और ब्रिटिश रिकॉर्ड के अनुसार जेल में ही हैजा से उनकी मौत हो गई। जिस समय उनकी मौत हुई वह सिर्फ 25 साल के थे।

मटमूर जमोहः अरुणाचल प्रदेश की आदि जनजाति के मटमूर जमोह ब्रिटिश शासकों की अकड़ के खिलाफ लड़े। उनके गांव जला दिए गए जिसके बाद उन्होंने अपने साथियों के साथ अंग्रेजों के सामने हथियार डाल दिए। उन्हें सेलुलर जेल भेज दिया गया, जहां उनकी मौत हो गई।

ताना भगतः उरांव जनजाति के ताना भगत अपने लोगों को अंग्रेज सामंतों के अत्याचार के बारे में बताते थे और ऐसा माना जाता है कि उन्हें लोगों को उपदेश देने का संदेश उनके आराध्य से मिला था। उन्हें पकड़ कर भीषण यातनाएं दी गईं। यातनाओं से जर्जर ताना भगत को जेल से रिहा तो कर दिया गया, लेकिन बाद में उनकी मौत हो गई।

मालती मीमः चाय बागान में काम करने वाले समुदाय की मालती मीम महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन से प्रभावित होकर उसमें शामिल हो गईं। उन्होंने अफीम की खेती पर अंग्रेजों के आधिपत्य के खिलाफ संघर्ष किया और लोगों को अफीम के नशे के खतरों के बारे में जागरूक किया। पुलिस के साथ मुठभेड़ में गोली लगने से उनकी मौत हो गई।

लक्ष्मण नायकः भूयां जनजाति के लक्ष्मण नायक भी गांधी जी से प्रेरित थे और उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में शामिल होने के लिए अपनी जनजाति के लोगों को काफी प्रेरित किया। अंग्रेजों ने उन्हें अपने ही एक मित्र की हत्या के आरोप में पकड़ कर फांसी की सजा दे दी।

हेलन लेप्चाः लेप्चा जनजाति की हेलन लेप्चा, महात्मा गांधी की जबरदस्त अनुयायी थीं। अपने लोगों पर उनके प्रभाव से अंग्रेज बहुत असहज रहते थे। उन्हें गोली मार कर घायल किया गया, कैद किया गया और प्रताड़ित किया गया लेकिन उन्होंने कभी साहस नहीं छोड़ा। 1941 में उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की उस समय जर्मनी भागने में मदद की जब वह घर में नजरबंद थे। उन्हें स्वाधीनता संघर्ष में अतुलनीय योगदान के लिए ‘ताम्र पत्र’ से पुरस्कृत किया गया।

पुलिमाया देवी पोदारः पुलिमाया देवी पोदार ने गांधीजी का भाषण तब सुना जब वह स्कूल में थीं। वे तुरंत स्वाधीनता संघर्ष में शामिल होना चाहती थीं। अपने परिवार के कड़े विरोध के बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई समाप्त करने के बाद न सिर्फ खुद आंदोलन में हिस्सा लिया बल्कि अन्य महिलाओं को भी इसके लिए प्रोत्साहित किया। विरोध प्रदर्शनों में भाग लेने के कारण उन्हें कैद कर लिया गया। आजादी के बाद भी उन्होंने अपने लोगों की सेवा करना जारी रखा और उन्हें ‘स्वतंत्रता सेनानी’ की उपाधि दी गई।

2014 में नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद अब पद्म पुरस्कार से भी उन गुमनाम नायकों को सम्मानित किया जा रहा है जो बिना किसी चमक-दमक के समाज सेवा के काम में लगे हुए हैं।

पद्म पुरस्कार 2023: पीएम मोदी की पहल से गुमनाम नायकों को सम्मानित किया गया

गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर पद्म पुरस्कारों का एलान किया जाता है। 2023 के लिए कुल 106 लोगों को पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इनमें छह पद्म विभूषण, नौ पद्म भूषण और 91 पद्म श्री शामिल हैं। पुरस्कार पाने वालों में से कई गुमनाम नायक हैं, जो चुपचाप समाज और लोगों की भलाई के लिए काम कर रहे हैं। 2014 से पहले कांग्रेस सरकार के दौरान पद्म पुरस्कार केवल गांधी परिवार से जुड़े तथाकथित संभ्रांत और कुलीन वर्ग के लोगों को मिला करता था। लेकिन 2014 में नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद उन्होंने इस चलन को बदल दिया और गुमनाम नायकों को भी सम्मानित करने पर बल दिया और अब तक सैकड़ों नायकों को सम्मानित किया जा चुका है।

जारवा जनजाति को विलुप्त होने से बचाने वाले रतन चंद्र को पद्मश्री

डा. रतन चंद्र कार को पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें अंडमान की जारवा जनजाति को विलुप्त होने से बचाने का श्रेय दिया जाता है। 1998 में जब इस द्वीप में खसरा का प्रकोप फैला था तब डॉ. रतन चंद्र कार ने इस चुनौती को स्वीकार कर वहां के लोगों का इलाज किया था।

सिद्दी जनजाति की बेहतरी के लिए हीराबाई को पद्म श्री

गुजरात की सामाजिक कार्यकर्ता हीराबाई लोबी को पद्म श्री से सम्मानित किया गया। गुजरात के सिद्दी समुदाय की बेहतरी के लिए हीराबाई ने अपना जीवन समर्पित कर दिया। सिद्दी आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता हीराबाई ने खुद के द्वारा स्थापित बालवाड़ी के माध्यम से सिद्दी जनजाति के बच्चों को शिक्षा प्रदान की। गरीबों के इलाज के लिए डा. मुनीश्वर को पद्म श्रीमुनीश्वर चंदर डावर को पद्म श्री देने की घोषणा की गई है। जबलपुर के रहने वाले पूर्व सैनिक और पेशे से डाक्टर 76 वर्षीय मुनीश्वर पिछले 50 साल से गरीब लोगों का इलाज करते आ रहे हैं। 20 रुपये की सस्ती कीमत पर समाज के गरीब और कमजोर वर्गों का निस्वार्थ इलाज करते हैं।

सांप पकड़ने में माहिर दो दोस्तों को पद्म श्री पुरस्कार

पद्म श्री के लिए चुने गए लोगों में सांप पकड़ने वाले मासी सदाइयां और गोपाल भी शामिल हैं। तमिलनाडु निवासी दोनों दोस्त हैं। इन्होंने दुनियाभर के कई देशों में सांप पकड़ने गए हैं। वे सांप पकड़ने के लिए पुर्वजों से विरासत में मिली पुरानी व स्वदेशी तकनीकों का उपयोग करते हैं।

जैविक खेती के लिए नेकराम शर्मा को पद्मश्री

कृषि क्षेत्र में विशिष्ट सेवा के लिए हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के नेकराम शर्मा भी पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। नेकराम शर्मा जैविक खेती से जुड़े हैं। वह नौ अनाज की पारंपरिक फसल प्रणाली को पुनर्जीवित कर रहे हैं। नौ खाद्यान्न बिना किसी रासायनिक उपयोग के जमीन के एक ही टुकड़े पर उगाए जाते हैं।

बिहार के कपिल देव प्रसाद को बुनकर कला के क्षेत्र में पद्मश्री

बिहार के नालंदा जिले के रहने वाले कपिल देव प्रसाद को बावन बूटी के लिए पद्मश्री मिला। बावन बूटी एक तरह की बुनकर कला है। सूती या तसर के कपड़े पर हाथ से एक जैसी 52 बूटियां यानी मौटिफ टांके जाने के कारण इसे बावन बूटी कहा जाता है। बूटियों में बौद्ध धर्म-संस्कृति के प्रतीक चिह्नों की बहुत बारीक कारीगरी होती है।

नाट्य नाच के नायक डोमर सिंह कुंवर को पद्मश्री

छत्तीसगढ़ी नाट्य नाचा कलाकार डोमर सिंह कुंवर को कला (नृत्य) के क्षेत्र में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। वह पिछले पांच दशकों से नाच की परंपरा को जीवित रखा है। डोमर 13 बोली या भाषाओं में नाटक करते हैं और देशभर में अपने नाटकों की पांच हजार से अधिक प्रस्तुति दे चुके हैं। वह नाटकों के जरिए अंधविश्वास और बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीतियों को लेकर लोगों को जागरूक करते हैं।

सरिंदा के सरताज मंगला कांति को पद्मश्री

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी के 102 वर्षीय सरिंदा वादक मंगला कांति राय को कला (लोक संगीत) के क्षेत्र में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। वह सरिंदा के जरिए पक्षियों की अनोखी आवाज निकालने के लिए प्रसिद्ध हैं। यह पिछले 8 दशक संरिदा वाद्ययंत्र को संरक्षित करने के साथ ही बढ़ावा दे रहे हैं।

कलमकारी आर्टिस्ट भानुभाई चितारा को पद्मश्री

गुजरात के चुनार समुदाय के कलमकारी आर्टिस्ट भानुभाई चितारा को 400 साल पुरानी माता नी पछेड़ी पारंपरिक शिल्प की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया। चितारा को कला (पेंटिंग) के क्षेत्र में यह सम्मान मिला।

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