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Explainer: करारी हार से बुरी तरह बिखरा लालू का परिवार, वंशवाद की राजनीति पर ‘वंश’ ही पड़ रहा भारी, मुश्किल में RJD

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बिहार विधानसभा चुनाव ने कई राजनीतिक मिथकों को ध्वस्त किया, पर सबसे बड़ा आघात जिस परिवार पर लगा वह है- लालू यादव का कुनबा। तीन दशक से अधिक समय तक बिहार की राजनीति में जंगलराज लाने के बावजूद एक शक्ति माने जाने वाले इस परिवार के भीतर अब दरारें खुलकर दिखाई देने लगी हैं। पहले तेजप्रताप और फिर रोहिणी आचार्य का खुलकर सामने आना यह सिर्फ पारिवारिक कलह नहीं, बल्कि आरजेडी की गिरती हुई राजनीतिक प्रासंगिकता का आईना भी है। चुनाव परिणामों ने आरजेडी को अब तक की सबसे कमज़ोर स्थिति में पहुंचा दिया है। सीटों की भारी गिरावट ने यह स्पष्ट कर दिया कि तेजस्वी यादव का नेतृत्व जनता को प्रभावित नहीं कर पाया। जिस MY समीकरण (मुस्लिम-यादव) पर पार्टी 35 वर्षों तक निर्भर रही, वही इस बार फिसल गया। मुस्लिम वोटरों की नाराजगी, यादव मतदाताओं में भ्रम और युवाओं में तेजी से घटती विश्वसनीयता ने आरजेडी का पुराना किला पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। लालू परिवार की अंदरूनी जंग अब सड़क पर आ चुकी है।

15 जिलों में ‘जीरो’ सीटों से महागठबंधन उम्मीदवार पूरी तरह धराशायी
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के परिणामों ने राज्य की राजनीति में भूचाल ला दिया है। 243 सीटों वाली विधानसभा में एनडीए ने 202 सीटें हासिल कर बहुमत से कहीं आगे निकलते हुए ऐतिहासिक प्रदर्शन किया, जबकि महागठबंधन को महज 35 सीटों पर संतोष करना पड़ा। चुनाव आयोग के जिलावार आंकड़ों के अनुसार, 38 जिलों में से 15 में महागठबंधन एक भी सीट नहीं जीत सका जो उसके लिए सबसे बड़ी राजनीतिक शिकस्त साबित हुई है। एनडीए ने पीएम मोदी की अपार लोकप्रियता के अलावा विकास, सामाजिक न्याय और मजबूत संगठन के दम पर विपक्ष को धूल चटा दी। महागठबंधन में शामिल आरजेडी, कांग्रेस और वाम दलों का गठजोड़ की हालत बेहद खराब रही। आरजेडी को 25 सीटें मिलीं, कांग्रेस को महज 6, जबकि वाम दल (सीपीआई-एमएल लिबरेशन को 2, सीपीआई-एम को 1) और अन्य सहयोगी कुल मिलाकर 3 सीटें ही बचा सके। सबसे बड़ा झटका 15 जिलों में ‘जीरो’ सीटों से लगा, जहां महागठबंधन उम्मीदवार पूरी तरह से धराशायी हो गए।

बिहार में हार और लालू परिवार का बिखरता घराना
प्रधानमंत्री मोदी ने इसे ‘संतुष्टिकरण, विकास और सुशासन की जीत’ बताते हुए कहा कि बिहार की जनता-जनार्दन ने तुष्टिकरण की राजनीति और जंगलराज को ठुकरा दिया। बिहार में मिली करारी हार सिर्फ़ एक चुनावी नतीजा नहीं है—यह आरजेडी के भीतरी दरारों को उघाड़कर सामने ले आई है। लालू प्रसाद यादव का कभी अटूट माना जाने वाला कुनबा अब एक-एक कर दरकता दिखाई दे रहा है। जिस हार ने पार्टी के कैडर को हिला दिया, उसी हार ने परिवार के भीतर जमा तनाव को भी खुलकर बहने का मौका दे दिया। आरजेडी की राजनीति हमेशा परिवार केंद्रित रही। परिवार सदैव उसके नेतृत्व का केन्द्र रहा, लेकिन इस बार नेतृत्व ही विवाद का केन्द्र बन गया। लालू प्रसाद यादव की वंशवाद की राजनीति पर अब ‘वंश’ ही भारी पड़ गया है।

तेजस्वी यादव बनाम तेजप्रताप: एक चुप्पी, एक बेचैनी
आरजेडी की राजनीति में तेजस्वी यादव ने अहंकार की सारी सीमाओं को लांघ दिया। अपने बड़े भाई तेज प्रताप यादव को तो चुनाव से ऐन पहले ही वे पार्टी और परिवार से बेदखल करा चुके थे। यहां तक कि विधानसभा चुनाव में पिता लालू यादव को भी किनारे कर दिया। लालू का चेहरा चुनाव प्रचार में ज्यादा नजर नहीं आया। दरअसल, तेजस्वी यादव को ये झूठा गुमान हो गया था कि वे अकेले अपने दम पर ही महागठबंधन को सत्ता में ले आएंगे, लेकिन असल में हुआ एकदम उल्टा। चुनाव में करारी हार के बाद दोनों भाइयों के बीच खिंचाव और भी स्पष्ट हो गया। तेजस्वी की “रणनीतिक चुप्पी” और तेजप्रताप की “सार्वजनिक बेचैनी” अब दो ध्रुव बन चुके हैं।

रोहिणी आचार्य का ट्वीटर तूफान और बहनों की रहस्यमयी चुप्पी
पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के परिवार में पहले हर मतभेद भीतर ही भीतर सुलझता था। लेकिन विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद रोहिणी आचार्या के सोशल मीडिया वाले तेवर ने इस परंपरा को तोड़ दिया। चुनावी हार के बाद उनके तंज और तीखे संकेतों ने परिवार की अंदरूनी राजनीति को सार्वजनिक बहस बना दिया। रोहिणी तेजस्वी की धुर विरोधी बन गई हैं और उनके ट्वीट अक्सर तेजस्वी की रही-सही राजनीति को भी जमीन दिखा रहे हैं। इस डिजिटल आक्रामकता ने लालू परिवार की प्रतिष्ठा को पूरी तरह संकट में डाल दिया है। लालू यादव की अन्य बेटियां राजनीति में सक्रिय नहीं हैं, पर परिवार की दिशा-दिशा का असर उन पर भी पड़ता है। उनकी चुप्पी दरअसल दो अर्थ देती है—या तो वे विवादों से दूरी बनाए रखना चाहती हैं, या फिर वे तेजी से बदलते समीकरणों को देख-समझकर अपनी जगह तय कर रही हैं। पारिवारिक राजनीति में चुप्पी अक्सर केवल चुप्पी नहीं होती; वह संभावित गठबंधनों और भविष्य के संकेतों की भाषा होती है।

उम्र और स्वास्थ्य के चलते लालू प्रसाद की मध्यस्थता भी हुई कमजोर
पहले जब भी कुनबे में विवाद होता था, लालू प्रसाद बीच में खड़े हो जाते थे और सब कुछ ही घंटों में शांत हो जाता था। लेकिन उम्र, स्वास्थ्य और कार्यवाही की सीमाओं ने उनकी मध्यस्थता की क्षमता को कम कर दिया है। आज वे घर की आग भी बुझाना चाहते हैं और पार्टी की डगमगाती नैया भी संभालना चाहते हैं, लेकिन दोनों मोर्चों पर नियंत्रण कर पाने की स्थिति में नहीं है। उनका औरा अब पहले जैसा प्रभावी नहीं रहा। यही कमजोरी विवादों को नित-नई आंच दे रही है। आरजेडी नेता और कार्यकर्ता भी इन पारिवारिक झगड़ों से अछूते नहीं हैं। संगठन में गुटबाजी तेज हो चली है—कुछ तेजस्वी के साथ खड़े हैं, कुछ तेजप्रताप की व्यक्तिगत निष्ठा को नहीं छोड़ पा रहे। रोहिणी की सोशल मीडिया सक्रियता ने कार्यकर्ताओं में एक नया “डिजिटल गुट” भी खड़ा कर दिया है, जो नेतृत्व की आलोचना और समर्थन दोनों को सार्वजनिक मंच पर ले आता है। यह सब मिलकर पार्टी की आंतरिक एकता को खोखला कर रहा है।

तो आरजेडी की राजनीतिक जमीन केवल सिकुड़ती जाएगी
दरअसल, तेजस्वी यादव के सामने असल चुनौती चुनावी हार की तो है ही, लेकिन हार-जीत तो राजनीति का हिस्सा है। उनकी असली परीक्षा यह है कि क्या वे परिवार की राजनीति को पार करके पार्टी की राजनीति को प्राथमिकता दे पाएंगे। बिहार की राजनीति में अब वह दौर नहीं रहा जब केवल एक चेहरा पार्टी को संभाल ले। आज संगठन, रणनीति और जनसंवाद का संतुलन ही भविष्य तय करता है। तेजस्वी यह संतुलन साधने में असफल ही साबित हुए हैं। अब बेहद कमजोर विपक्ष में जाने से उनका रास्ता और कठिन रहेगा। जब तक परिवार की खींचतान जारी है। यह स्पष्ट है कि अगर परिवार के भीतर की तकरार न थमी, तो आरजेडी की राजनीतिक जमीन केवल सिकुड़ती जाएगी।

तेजप्रताप ने भाई के दोस्त संजय को ‘शकुनियों का नेता’ बताया
तेजस्वी के नेतृत्व में मिली इस हार ने लालू परिवार के भीतर की खटपट को खुलकर सामने ला दिया है। चुनाव प्रचार के दौरान ही मीसा भारती और रोहिणी आचार्य के नाराज होने की खबरों ने राजनीतिक गलियारे में हलचल पैदा कर दी थी। सबसे अधिक विवाद तेजप्रताप यादव के निष्कासन के बाद देखने को मिला, जिन्होंने सोशल मीडिया पर कई बार तेजस्वी और उनके करीबी संजय यादव को खुलकर निशाने पर लिया। तेजप्रताप ने संजय को ‘शकुनियों का नेता’ बताया और यह आरोप लगाया कि टिकट वितरण से लेकर चुनावी रणनीति तक सबकुछ संजय यादव की मर्जी से हुआ। अब जबकि पार्टी को ऐतिहासिक हार मिली है, तेजस्वी के नेतृत्व पर सवाल और तीखे हो गए हैं।

ऐतिहासिक हार से तेजस्वी का राजनीतिक मूल्यांकन तेजी से गिरा
तेजस्वी का राजनीतिक उदय जितना तेज रहा, उतनी ही तेजी से अब उनका राजनीतिक मूल्यांकन गिरा है। 2015 में पहली बार चुनाव लड़ने के बाद उन्होंने राजद को सत्ता में लाने में अहम भूमिका निभाई। मात्र 26 साल की उम्र में उपमुख्यमंत्री बनना उनकी लोकप्रियता का संकेत था। लेकिन 2025 के चुनाव में मिली ऐतिहासिक हार ने उनकी नेतृत्व क्षमता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं, क्योंकि सीट बंटवारे से लेकर चुनावी संदेश तक सबकुछ सिर्फ उन्हीं के फैसलों पर आधारित था। आरजेडी हमेशा युवाओं की पार्टी बनने का दावा करती रही, लेकिन परिवार की तकरार ने युवा कार्यकर्ताओं को असमंजस में डाल दिया है। पुराने चेहरे भी जानते हैं कि बिना मजबूत नेतृत्व के किसी भी विपक्षी दल का असर खत्म होता देर नहीं लगती। इससे संगठन में एक बेचैनी है: क्या पार्टी नेतृत्व परिवार की सीमाओं से ऊपर उठ पाएगा? यह अलग बात है कि आरजेडी विधायकों ने फिर से तेजस्वी यादव को विधायक दल का नेता चुन लिया है।

तेजप्रताप ने जनशक्ति जनता दल बनाकर तेजस्वी की कमर तोड़ी
इसी बीच तेजप्रताप यादव की भूमिका भी राजद की हार में निर्णायक मानी जा रही है। पारिवारिक विवाद के बाद पार्टी से बाहर किए गए तेजप्रताप ने जनशक्ति जनता दल (जेजेडी) बनाकर चुनावी मैदान में उतरने का बड़ा फैसला लिया। उन्होंने 40 से अधिक सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए, जिनमें से ज्यादातर राजद के पारंपरिक यादव बहुल क्षेत्र थे। इस रणनीति ने सीधे तौर पर राजद के वोट बैंक पर चोट की। तेजस्वी जहां बेरोजगारी, शासन और विकास जैसे विषयों पर हाईटेक प्रचार कर रहे थे, वहीं तेजप्रताप जमीन से जुड़े भावनात्मक अभियानों में जुटे थे। उनकी सभाओं में ‘सम्मान’, ‘शुचिता’ और ‘लालू परिवार की उपेक्षा’ जैसे मुद्दों ने यादव वोटरों के एक हिस्से को प्रभावित किया।

तेजस्वी आरजेडी के भावी नायक से खलनायक की आलोचना तक पहुंचे
राजनीतिक समीक्षकों का मानना है कि तेजप्रताप ने भले कोई बड़ी सीट न जीती हो, लेकिन उन्होंने महागठबंधन के कई उम्मीदवारों के चुनाव बिगाड़ दिए। यादव मतदाताओं का एक वर्ग अब भी उन्हें लालू का ‘बड़ा बेटा’ मानता है, जिसे गलत समझकर दरकिनार कर दिया गया। इसी भावनात्मक जुड़ाव ने कई सीटों पर राजद को नुकसान पहुंचाया। 2025 का यह चुनाव नतीजा स्पष्ट संदेश देता है तेजस्वी को अब नेतृत्व की नई परीक्षा देनी होगी। वह नायक की छवि से खलनायक की आलोचना तक पहुंच चुके हैं, लेकिन आने वाले दिनों में उनकी राजनीतिक रणनीति ही तय करेगी कि वह वापसी करेंगे या बिहार की राजनीति में एक बड़ा मोड़ यहीं आ गया है।

 

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