Home बिहार विशेष महागठबंधन में गांठ ही गांठ, कब तक चलेगी नीतीश सरकार?

महागठबंधन में गांठ ही गांठ, कब तक चलेगी नीतीश सरकार?

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बिहार में सत्ताधारी महागठबंधन में गांठ पर गांठ पड़ती जा रही है। इस कथित महागठबंधन की गांठों को तीनों ओर से खींचा जा रहा है। एक तरफ सोनिया गांधी और लालू यादव का अटूट गठजोड़ है तो दूसरी तरफ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अकेले कमान संभाले हुए हैं। मौकापरस्ती का बेजोड़ नमूना देखिए कि सियासी गांठों के इस महागठबंधन में कोई भी राजनेता राज्य की जनता के लिए नहीं सोच रहा। वो सिर्फ अपनी-अपनी सियासी चालें चले जा रहा है। लालू-सोनिया की परेशानी ये है कि वो किसी तरह से अपने कारनामों पर पर्दा डाले रखना चाहते हैं, वहीं नीतीश के सामने करीब दो साल की साठगांठ के बाद भी सियासी साख बचाए रखने की चुनौती है।

महागठबंधन में महापेच
बिहार में जेडीयू-आरजेडी और कांग्रेस की गठबंधन सरकार स्वार्थ की राजनीति का वीभत्स उदाहरण है। तीनों पार्टियों और उनके नेताओं में राजनीतिक तलवारबाजी हो रही है, लेकिन किसी में गठबंधन से अलग हटने का सियासी साहस नहीं है। यही कारण है कि जब से नीतीश कुमार ने राष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में एनडीए के आधिकारिक प्रत्याशी रामनाथ कोविंद का समर्थन किया है, लालू और बिहार में उनकी पिछलग्गू कांग्रेस के पैर के नीचे से जमीन खिसक चुकी है। लालू को लगता है कि अगर बिहार की सरकार गई, तो उनके दुर्दिन आने में देर नहीं होगी। सरकार में होने के चलते ही नीतीश उन पर संगीन से संगीन मामलों में भी कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं। जबकि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की परेशानी ये है कि अगर ये गठबंधन टूटा तो बिहार में जो सियासी खेल करने में वो सफल हो गई थीं, उसके बारे में अब भविष्य में सोचना भी मुश्किल होगा। वहीं 2019 की पीएम उम्मीदवारी के लिए हथियार डाल चुके नीतीश कुमार को समझ में नहीं आ रहा कि, इस मौकापरस्त गठबंधन से अलग कैसे हों? ताकि घोटालेबाजों से पीछा भी छूट जाए और कुर्सी भी बची रह जाए।

आइए समझने की कोशिश करते हैं कि बिहार में सत्ताधारी महागठबंधन के नेताओं ने पिछले कुछ दिनों में कैसे एक-दूसरे पर सियासी हमले करके अपनी ही सरकार की खिल्ली उड़ाई है। लेकिन फिर भी सत्ता के लालच में साथ-साथ बने हुए हैं-

कांग्रेस का नीतीश पर वार
राष्ट्रपति चुनाव में बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने जो स्टैंड लिया है उससे कांग्रेस और उसकी अध्यक्ष तिलमिलाई हुई हैं। 10 जनपथ के गुणगान में लगे नेताओं को लगता है कि ये उनकी अध्यक्ष की शान में गुस्ताखी है। इसीलिए नीतीश के खिलाफ भड़ास निकालने की जिम्मेदारी स्वयं पार्टी के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने उठाई है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार आजाद ने नीतीश कुमार का नाम लिए बिना कहा कि रामनाथ कोविंद का समर्थन करके उन्होंने बिहार की बेटी (यानी मीरा कुमार) को हराने की चाल चली है। असल में  कांग्रेस नीतीश की ओर से आईना दिखाए जाने के चलते बिलबिलायी हुई लगती है।

नीतीश ने दिखाया कांग्रेस को आईना
दरअसल इससे पहले कांग्रेस और आरजेडी की ओर से नीतीश कुमार पर बिहार की बेटी को हराने की कोशिश के आरोप लगाए गए थे। इस पर नीतीश कुमार ने कहा था कि अगर कांग्रेस को बिहार और दलित की बेटी की इतनी परवाह थी, तो उस समय उन्हें उम्मीदवार क्यों नहीं बनाया जब कांग्रेस के पास अपने उम्मीदवार को जिताने की क्षमता थी। गौरतलब है कि अगर कांग्रेस को वाकई बिहार और दलित की बेटी की चिंता होती तो अपनी सरकार के दौरान उसे ऐसा करने का दो बार अवसर मिला था। लेकिन उसकी मानसिकता ही खोटी है। उसे तो तब बिहार और दलित की बेटी की याद आई जब एनडीए ने बिहार के तत्कालीन राज्यपाल रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा कर दी।

तेजस्वी का नीतीश पर प्रहार
बिहार में जो सरकार चल रही है वो पूरी तरह से अवसरवादिता का नंगा नाच है। क्योंकि जिस सरकार में डिप्टी सीएम ही सीएम पर कटाक्ष करना शुरू कर दे और सीएम में उसे सरकार से निकालने की ताकत नहीं बची हो तो राज्य की जनता का तो भगवान ही मालिक है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार लालू के छोटे बेटे और बिहार के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने नीतीश का नाम तो नहीं लिया लेकिन सोशल मीडिया पर उन्हीं पर निशाना साधते हुए तीखी टिप्पणी की। तेजस्वी ने लिखा कि अवसरवादी बर्ताव और राजनीतिक दांवपेच से तात्कालिक फायदे हो सकते हैं या सरकार बन-बिगड़ सकती है, हमने दूसरा रास्ता चुना। समझने वाले आसानी से समझ सकते हैं कि लालू पुत्र कहना क्या चाह रहे थे ?

नीतीश का लालू-कांग्रेस पर पलटवार
जब कांग्रेस और आरजेडी की ओर से नीतीश कुमार के फैसले पर छाती पीटना शुरू कर दिया गया, तो नीतीश ने भी बिना देर किए विपक्षी पार्टियों की पोल खोल कर रख दी। नीतीश ने कहा कि कांग्रेस ने बिहार और दलित की बेटी को हराने के लिए उम्मीदवार बनाया है। उनके अनुसार रामनाथ कोविंद ने बिहार के गवर्नर रहते हुए कभी भेदभाव नहीं किया, इसीलिए उनकी पार्टी ने उन्हें समर्थन देने का एलान किया। लेकिन जिस चुनाव में मीरा कुमार का हारना तय लग रहा है तो फिर उन्हें जानबूझकर हराने के लिए क्यों मैदान में उतारा जा रहा है ?

लालू के भय से खुली महागठबंधन की पोल
जब राष्ट्रपति उम्मीदवार के लिए एनडीए ने रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा की, शुरू में सारी विपक्षी पार्टियों की घिग्घी बंध गई। बीजेपी के मास्टरस्ट्रोक ने सभी ड्रामेबाजों की नींद ही उड़ा दी थी, कोई साफ प्रतिक्रिया देने लायक भी नहीं बचा था। बाद में कांग्रेस ने किसी तरह से बहला-फुसला कर जब मीरा कुमार के नाम पर सहमति बनाई, तब लालू यादव की बोलती खुली। उन्होंने नीतीश के फैसले को ऐतिहासिक भूल करार दे डाला।

सियासी गांठों के इस महागठबंधन की उम्र आगे और कितनी बची है कहना मुश्किल है। लेकिन इतना तो तय है कि जो संघर्ष बंद दरवाजों के अंदर में जारी था अब वो सड़कों पर आ चुका है। तीनों दलों के नेता एक-दूसरे को ताल ठोककर चुनौती दे रहे हैं, लेकिन सियासी रिंग में सीधे आर या पार करने का साहस किसी में भी नहीं है। लालू और कांग्रेसी सियासी शर्म धोकर पी चुके हैं, उन्हें तो सत्ता की माया जब तक नचाएगी वो उस पर नाचने के लिए तैयार रहेंगे। अब बड़ा सवाल है कि बड़े लाभ के लिए तात्कालिक लाभ से परहेज करने में माहिर नीतीश अपनी साख से कब तक समझौता करते रहेंगे ?

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