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Emergency@50: दादी इंदिरा गांधी ने संविधान को बंधक बनाया, अब पौत्र राहुल किताब से संविधान बचाने का ढोंग कर रहे

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आपातकाल का जन्म लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित प्रधानमंत्री की ही लोकतंत्र में घटती आस्था और बढ़ती सत्ता लोलुपता से पनपते वंशवाद से हुआ था। भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय रहे आपातकाल की घोषणा को 50 साल होने पर ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाया जा रहा है। आपातकाल दरअसल लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में भी पनप सकने वाली सत्ता-लोलुपता और राजनीतिक विकृतियों की ही देन था। इसलिए उसे याद रखना जरूरी है। इन 50 सालों में दो नई पीढ़ियां आ गई हैं, जिन्हें आपातकाल की ज्यादतियों के बारे में ज्यादा पता नहीं है। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सारी संवैधानिक मर्यादा, नैतिकता और राजनीतिक शुचिता को ताक पर रखकर 1975 में भारत की जनता पर आपातकाल थोप दिया। पीएम इंदिरा को सत्ता और पुत्र के मोह ने ही तानाशाह बनने को प्रेरित किया था। दरअसल सत्ता लोलुपता और वंशवादी सोच मूलतः अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक हैं, पर कांग्रेसी नेता इतनी पीढ़ियों के बाद भी इसे समझने को तैयार नहीं है। परिवारवादी और वंशवादी राजनीति से निकले राहुल गांधी अब संविधान की किताब को पढ़ने के बजाए उसे लेकर संविधान बचाने के ढोंग करने में लगे हुए हैं।नारा बुलंद- ‘तानाशाही तेरे तीन दलाल-शुक्ला, मेहता, बंसीलाल’
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आदेश पर 25 जून 1975 को देश में लगाया गया आपातकाल एक ऐसी घटना थी जब संविधान की समस्त मर्यादाओं का खुला उल्लंघन किया गया। देश के जनमानस में उस समय व्याप्त निराशा को देखकर कवि दुष्यंत कुमार ने लिखा भी है, ‘कैसे मंजर सामने आने लगे हैं, गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं। जयप्रकाश नारायण ने देश में कई रैलियों को संबोधित किया। इन रैलियों में वह उद्घोष लगाते थे ‘सिंहासन खाली करो, कि जनता आती है।’ उस समय के इस बर्बर और निरंकुश शासन के विरुद्ध नारा लगता था ‘ तानाशाही तेरे तीन दलाल-शुक्ला, मेहता, बंसीलाल’। इस नारे में इशारा विद्याचरण शुक्ला सूचना प्रसारण मंत्री, ओम मेहता गृहराज्य मंत्री व बंसीलाल रक्षा मंत्री की तरफ होता था। कांग्रेस सरकारों ने 90 से ज़्यादा बार संविधान की धज्जियां उड़ाई
आपातकाल ही नहीं कांग्रेस सरकारों ने अपने शासनकाल में 90 से ज़्यादा बार संविधान की धज्जियां उड़ाई हैं। साठ साल तक संविधान के साथ खिलवाड़ करने वाली कांग्रेस के नेता राहुल गांधी अब संविधान को हाथ में लेकर इसे बचाने का ढोंग करने निकले हैं। कांग्रेस आज संविधान बचाने का झूठा नाटक कर रही है। दरअसल, राहुल गांधी संविधान बचाने की बात तो करते हैं, लेकिन इसे खोलकर पढ़ते नहीं हैं। इसे पढ़ेंगे तो समझ आएगा कि गांधी परिवार और कांग्रेस पार्टी ने संविधान की धज्जियां उड़ाने की कितनी बार कोशिश की थी। राहुल गांधी संसद में संविधान पर चर्चा के दौरान अंगूठा काटने की बात तो करते हैं, लेकिन इनके राज में सिखों के गले काटे गए। इन्होंने संविधान को तार-तार कर देश में आपातकाल लगाने का काम किया था।

इमरजेंसी इंदिरा के निम्न स्तर तक गिरने का स्पष्ट उद्घोष था
पचास साल पहले स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय 25 जून, 1975 की मध्यरात्रि को आपातकाल की घोषणा के साथ लिखा गया था। नई पीढ़ी के लिए यह जानना भी जरूरी है कि इसकी प्रस्तावना तब लिखी गई जब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उस वर्ष 12 जून को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के रायबरेली से चुनाव को अमान्य घोषित किया था। इससे तिलमिलाई इंदिरा गांधी किस हद तक गिर सकती है, इसकी परिणति ही आपातकाल के रूप में सबके सामने आई थी। दरअसल, इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव याचिका समाजवादी नेता राज नारायण ने दायर की थी, जो रायबरेली से चुनाव हार गए थे। नारायण ने आरोप लगाया था कि इंदिरा गांधी के चुनाव एजेंट यशपाल कपूर एक सरकारी कर्मचारी थे और उन्होंने अपने चुनावी कार्य के लिए सरकारी अधिकारियों का इस्तेमाल किया।

इमरजेंसी के कारण कांग्रेस सरकार के खिलाफ बढ़ा था रोष
आपातकाल को लेकर विद्वान लेखकों ने काफी कुछ लिखा है। ऐसे ही लेखक ज्ञान प्रकाश ने अपनी पुस्तक ‘इमरजेंसी क्रोनिकल्स : इंदिरा गांधी एंड डेमोक्रेसीज टर्निंग प्वाइंट’ में भारतीय लोकतंत्र पर लगे कलंक के रूप में याद की जाने वाली घटनाओं का विस्तृत उल्लेख करते हुए बताया है कि हाई कोर्ट के फैसले में इंदिरा गांधी को चुनावी अनियमितताओं का दोषी पाया गया। इससे इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के खिलाफ सार्वजनिक असंतोष बढ़ गया। यह असंतोष अत्यधिक महंगाई, आवश्यक वस्तुओं की कमी और जड़ अर्थव्यवस्था के कारण था, जो 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध के प्रभाव से जूझ रही थी। गुजरात में चिमनभाई पटेल के खिलाफ नवनिर्माण आंदोलन और बिहार में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में युवाओं का आंदोलन तेज हो गया। इंदिरा गांधी ने हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील की और 24 जून, 1975 को सुप्रीम कोर्ट से शर्तों के साथ कुछ राहत दी। इसके तहत उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में कामकाज जारी रखने की अनुमति तो मिली, लेकिन उनसे संसद में मतदान का अधिकार छिन गया।

संपूर्ण क्रांति के आह्वान पर 21 महीने का आपातकाल
अगले दिन 25 जून को विपक्षी नेताओं ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल रैली आयोजित की। इसमें जयप्रकाश नारायण ने ”संपूर्ण क्रांति” का आह्वान किया और पुलिस तथा सशस्त्र बलों से अपील की कि वे उन आदेशों की अवहेलना करें जो उनके विवेक के अनुसार अनुचित थे। वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने आपातकाल 21 महीने की अवधि को याद करते हुए कहा,”यदि उनके पास तानाशाही प्रवृत्ति नहीं होती और असुरक्षा का अनुभव नहीं होता, तो वह अदालत के इस निर्णय को लोकतांत्रिक तरीके से लेतीं, लेकिन उन्होंने दूसरा रास्ता चुना।” सुप्रीम कोर्ट के फैसले से हताश इंदिरा गांधी ने बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे से परामर्श करने के बाद राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को आपातकाल लगाने की सिफारिश की। उन्होंने इसके लिए देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरा होने का बहाना बनाया।

जबरन नसबंदी से जेलबंदी, कई नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में ठूंसा 
आपातकाल की घोषणा से स्वतंत्रता समेत सभी मौलिक अधिकारों, सभा के अधिकारों को निलंबित कर दिया गया। प्रेस पर पूरे तौर पर सेंसरशिप लागू की गई। न्यायपालिका की कार्यकारी कार्रवाई की समीक्षा की शक्ति को भी सीमित कर दिया गया। सभी लोकतांत्रिक परंपराओं का हनन करते हुए जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी समेत विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी का आदेश दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तब 25 वर्ष से भी कम उम्र के थे। लेकिन गुजरात में आपातकाल विरोधी मुहिम में वे बढ़-चढ़कर सक्रिय हो गए। देश में लोकतंत्र की दोबारा बहाली के लिए जान जोखिम में डालकर वो आंदोलन में कूद पड़े थे। उस समय संजय गांधी के कुख्यात नसबंदी अभियान के तहत जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर गरीब और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लाखों पुरुषों की जबरन नसबंदी की गई। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लगाए आपातकाल के दमन का पठनपाठन भावी पीढि़यां इस काले अध्याय के तीन दशक बाद ही कर पाईं। एनसीईआरटी की राजनीतिक शास्त्र की किताबों में इस अहम घटनाक्रम को बरसों बाद शामिल किया गया।

आपातकाल टाइमलाइन : जानिए कब क्या हुआ
• जनवरी, 1966 में इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री निर्वाचित हुईं।
• 1971 में विपक्षी नेता राज नारायण ने रायबरेली में चुनाव में धांधली की शिकायत दर्ज कराई।
• 12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनावी धांधली का दोषी ठहराया।
• 24 जून, 1975 को सुप्रीम कोर्ट में इंदिरा गांधी की सरकार को अनुमति, संसदीय विशेषाधिकार छिने।
• 25 जून, 1975 को इंदिरा गांधी की सलाह पर तत्कालीन राष्ट्रपति ने आपातकाल की घोषणा की।
• 18 जनवरी, 1977 को इंदिरा ने नए चुनावों की घोषणा की, राजनीतिक कैदियों की रिहाई के आदेश
• 16 मार्च, 1977 को इंदिरा गांधी व उनके बेटे संजय गांधी की लोकसभा चुनाव में हार।
• 21 मार्च, 1977 को आपातकाल का आधिकारिक रूप से अंत।

सोनिया और राजीव के मन में इमरजेंसी पर कोई पछतावा नहीं रहा
इंदिरा गांधी के प्राइवेट सेक्रेटरी रहे आर.के. धवन ने कहा था कि सोनिया और राजीव गांधी के मन में इमरजेंसी को लेकर किसी तरह का संदेह या पछतावा नहीं था। धवन ने यह खुलासा एक न्यूज चैनल को दिए गए इंटरव्यू में किया था। धवन ने बताया था कि पश्चिम बंगाल के तत्कालीन सीएम एसएस राय ने जनवरी 1975 में ही इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की सलाह दी थी। इमरजेंसी की योजना तो काफी पहले से ही बन गई थी। धवन ने बताया था कि तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को आपातकाल लागू करने के लिए उद्घोषणा पर हस्ताक्षर करने में कोई आपत्ति नहीं थी। वह तो इसके लिए तुरंत तैयार हो गए थे। धवन ने यह भी बताया था कि किस तरह आपातकाल के दौरान मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाकर उन्हें निर्देश दिया गया था कि आरएसएस के उन सदस्यों और विपक्ष के नेताओं की लिस्ट तैयार कर ली जाए, जिन्हें अरेस्ट किया जाना है। इसी तरह की तैयारियां दिल्ली में भी की गई थीं।

इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी के घर में था अमेरिकी जासूस
विकिलीक्स ने खुलासा किया था कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर में 1975 से 1977 के दौरान एक अमेरिकी भेदिया था, जो उनके हर पॉलिटिकल मूव की खबर अमेरिका को दे रहा था। यह खुलासा विकिलीक्स ने कुछ साल पहले अमेरिकी केबल्स के हवाले से किया था। विकिलीक्स के मुताबिक, इमरजेंसी के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर में मौजूद इस भेदिए की उनके हर राजनीतिक कदम पर नजर थी। वह सारी जानकारी अमेरिकी दूतावास को मुहैया करा रहा था। केबल्स में इस भेदिए के नाम का खुलासा नहीं किया गया है। 26 जून 1975 को इंदिरा गांधी के देश में इमरजेंसी घोषित करने के एक दिन बाद अमेरिकी दूतावास के केबल में कहा गया था कि इस फैसले पर वह अपने बेटे संजय गांधी और सेक्रेटरी आरके धवन के प्रभाव में थीं। केबल में लिखा था, ‘पीएम के घर में मौजूद ‘करीबी’ ने यह कन्फर्म किया है कि दोनों किसी भी तरह इंदिरा गांधी को सत्ता में बनाए रखना चाहते थे।’ यहां दोनों का मतलब संजय गांधी और धवन से है।

आपातकाल में युवा नरेन्द्र मोदी ने निभाई बेहद अहम भूमिका
आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री मोदी युवावस्था में थे, तब उन्होंने इसमें बेहद अहम भूमिका निभाई थी। आपातकाल के दौरान प्रेस की स्वतंत्रता छीनी जा चुकी थी। कई पत्रकारों को मीसा और डीआईआर के तहत गिरफ्तार कर लिया गया था। सरकार की कोशिश थी कि लोगों तक सही जानकारी नहीं पहुंचे। उस कठिन समय में नरेंद्र मोदी और आरएसएस के कुछ प्रचारकों ने सूचना के प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी उठा ली। इसके लिए उन्होंने अनोखा तरीका अपनाया। संविधान, कानून, कांग्रेस सरकार की ज्यादतियों के बारे में जानकारी देने वाले साहित्य गुजरात से दूसरे राज्यों के लिए जाने वाली ट्रेनों में रखे गए। यह एक जोखिम भरा काम था क्योंकि रेलवे पुलिस बल को संदिग्ध लोगों को गोली मारने का निर्देश दिया गया था। लेकिन नरेंद्र मोदी और अन्य प्रचारकों द्वारा इस्तेमाल की गई तकनीक कारगर रही।

पीएम मोदी ने ‘द इमरजेंसी डायरीज’ में अनुभवों को साझा किया
प्रधानमंत्री मोदी ने देश में इमरजेंसी के 50 साल पूरे होने पर अपनी भूमिका से जुड़ी एक किताब को सोशल मीडिया पर साझा किया है। उन्होंने ‘द इमरजेंसी डायरीज’ में आपातकाल (1975-1977) के दौरान अपने सफर को साझा किया है। इसने उस समय की कई यादें ताजा कर दी। पीएम मोदी ने ‘एक्स’ पर लिखा, “आपातकाल के दौरान मैं एक युवा आरएसएस प्रचारक था। आपातकाल विरोधी आंदोलन मेरे लिए एक बड़ा सीखने का अनुभव था। इसने हमारे लोकतांत्रिक ढांचे को संरक्षित रखने की महत्ता को और मजबूत किया। साथ ही, मुझे विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के लोगों से बहुत कुछ सीखने का मौका मिला।” इसके साथ ही पीएम मोदी ने कहा कि ‘जिनके परिवारों ने आपातकाल के समय कष्ट झेले, वे अपने अनुभव सोशल मीडिया पर साझा करें।‘ इससे आज के युवाओं में उस शर्मनाक दौर के बारे में जागरूकता बढ़ेगी।

आपातकाल के अंधकारमय दौर में भी जनमानस ने हार नहीं मानी
भाजपा के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद घनश्याम तिवाड़ी ने आपातकाल के दिनों को याद करते हुए कहा कि उस समय जनसंघ के युवा संघ का उत्तरदायित्व मेरे पास था। मैं वकालत भी कर रहा था। मुझे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से प्रतिबंध हटाने का पक्षधर होने और डीआइआर एक्ट में गिरफ्तार कर जयपुर सेंट्रल जेल भेजा गया। जब मेरे केस की सुनवाई हुई तो मैंने कहा कि मैंने कोई राष्ट्र विरोधी गतिविधि नहीं की है। जब प्रतिबंध लगाने की आवाज उठाना अपराध नहीं है तो प्रतिबंध हटाने की आवाज उठाना भी अपराध नहीं है। मेरी पैरवी पर जज ने मुझे डिस्चार्ज किया। इसी दौरान एक बार मैं कुछ बाल व किशोर स्वयंसेवकों को जेल में डाले जाने तथा कठोर प्रताड़ना की सूचना पर उनकी पैरवी करने झुंझुनूं पहुंचा। कोर्ट में बहस के दौरान मेडिकल जांच की मांग करने पर वहां उपस्थित पुलिस उप अधीक्षक आग बबूला होकर मुझे न्यायाधीश के समक्ष ही घसीट कर कोर्ट से बाहर ले गए। मुझे पुलिस ने कठोर यातनाएं दी और मेरे बाल नोच लिए गए। मरा हुआ समझकर अर्धबेहोशी की हालत में मुझे लोहारू-सीकर के बीच चलने वाली ट्रेन की बोगी में फेंक कर चले गए। आपातकाल का दौर यह केवल एक राजनीतिक संकट ही नहीं था बल्कि भारत की लोकतांत्रिक चेतना की परीक्षा थी। लेकिन इस अंधकारमय दौर में भी जनमानस ने हार नहीं मानी। वर्षों तक अन्याय सहने के बाद जब 1977 में चुनाव हुए, तब जनता ने स्पष्ट संदेश देकर लोकतंत्र को कुचलने वालों को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया।

 

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