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देश पर इमरजेंसी थोपने वाली कांग्रेस छल-प्रपंच से सत्ता पर जमाना चाहती है कब्जा

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कांग्रेस पार्टी ने जिस मानसिकता से 25 जून 1975 को देश पर आपातकाल (इमरजेंसी) थोपा था आज 50 साल बीत जाने के बाद भी वही मानसिकता उसके भीतर जीवित है। कुर्सी जाने के कारण सत्ता हथियाने के लिए इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया था और अब 10 साल से सत्ता से दूर कांग्रेस पार्टी येन-केन प्रकारेण सत्ता हथियाना चाहती है। उसने लोकसभा चुनाव में फर्जी गारंटी कार्ड बांटकर 20 करोड़ मतदाताओं की संवेदनशील जानकारी जुटाने का पाप किया और अब चुनाव में मिली हार के बाद उसी संविधान और लोकतंत्र की दुहाई दे रही है जिसका उसने चीरहरण किया था। कांग्रेस ने देश में 51 बार राष्ट्रपति शासन लगाया था, 50 बार चुनी हुई राज्य सरकार को बर्खास्त किया था। ऐसे में सवाल उठता है कि तानाशाही रवैया किसका था? संविधान और लोकतंत्र की हत्या किसने की? नरेंद्र मोदी ने पिछले 10 साल में अबतक एक भी राज्य सरकार को बर्खास्त नहीं किया। तानाशाही कांग्रेस के रग-रग में है लेकिन तानाशाह मोदी है! कांग्रेस का यह अजीब तर्क है। लेकिन देशवासी कांग्रेस के इस झूठ को समझ चुके हैं इसीलिए उसे बार-बार सत्ता से दूर कर रहे हैं।

कांग्रेस को देश ने पहचान लिया, इसलिए बार-बार खारिज किया
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि जिस मानसिकता के कारण आपातकाल लगाया गया वह आज भी कांग्रेस पार्टी में जीवित है, जिसने इसे लगाया था। भारत के संविधान को कुचल दिया, जिसका हर भारतीय बहुत सम्मान करता है। वे संविधान के प्रति अपने तिरस्कार को छिपाते हैं लेकिन भारत के लोगों ने उनकी हरकतों को देख लिया है और इसीलिए उन्हें बार-बार खारिज कर दिया है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि जिन लोगों ने आपातकाल लगाया, उन्हें हमारे संविधान के प्रति अपना प्यार जताने का कोई अधिकार नहीं है। उन्होंने कहा कि ये वही लोग हैं जिन्होंने अनगिनत मौकों पर अनुच्छेद 356 को लागू किया, प्रेस की स्वतंत्रता को नष्ट करने के लिए विधेयक लाया, संघवाद को नष्ट किया और संविधान के हर पहलू का उल्लंघन किया।

कांग्रेस ने अपने शासन में संविधान को बना दिया था खिलौना
देश में अब तक 124 बार राष्ट्रपति शासन लगाए गए हैं, इनमें से आठ बार जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री काल में लगाया गया तो इंदिरा गांधी के कार्यकाल में 50 बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया। 1980 में केवल तीन दिनों के भीतर ही नौ राज्यों में बहुमत वाली सरकारों को बर्खास्त किया गया था। कांग्रेस ने राष्ट्रपति शासन लगाने की धारा 356 को खिलौना बना लिया था। जब भी उनको मुख्यमंत्री पसंद नहीं आता तो उन्होंने उसे हटा दिया। फारुक अब्दुल्ला की सरकार हटाई गई। एन. टी. रामाराव सरकार को बर्खास्त किया गया। कांग्रेस ने कभी भी संविधान का कोई ख्याल नहीं रखा। कांग्रेस ने अपने शासनकाल में संविधान की भावना के ख़िलाफ़ बहुत बार काम किया। आज वही कांग्रेस संविधान की दुहाई दे रही है। एक कहावत है नौ सौ चूहे खा के बिल्ली हज को चली। कांग्रेस पर यह पूरी तरह चरितार्थ होती है।

1957 में कम्युनिस्ट सरकार को कांग्रेस ने किया था बर्खास्त
1957 में कम्युनिस्टों ने पहली बार केरल में विधानसभा चुनाव जीता था। ये पहला मौक़ा था जब दुनिया में कोई भी कम्युनिस्ट सरकार मतदान से चुनकर सत्ता में आई थीं। ईएमएस नंबूदरीपाद वहां के मुख्यमंत्री बने। लेकिन केवल दो साल बाद ही केंद्र की सत्ता में बैठी कांग्रेस ने उन्हें बर्ख़ास्त कर दिया। ये बात पचास के दशक की है। आज यही कम्युनिस्ट पार्टियां राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए कांग्रेस पार्टी से हाथ मिलाने में भी गुरेज नहीं कर रही हैं और इंडी गठबंधन का हिस्सा हैं।

कांग्रेस शासनकाल में जजों के खिलाफ आए 3 महाभियोग प्रस्ताव
कांग्रेस के शासनकाल के दौरान ऐसे तीन मौके आए जब महाभियोग प्रस्ताव लाए गए थे। जब पहली बार सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति वी रामास्वामी पर मई 1993 में महाभियोग चलाया गया था तो वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में कपिल सिब्बल ने ही लोकसभा में बनाई गई विशेष बार से उनका बचाव किया था। तब केंद्र में पी. वी. नरसिंह राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार सत्तारूढ़ थी। जब 2009 में कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ़ जस्टिस पी डी दिनाकरन पर महाभियोग चलाने को लेकर राज्‍यसभा के 75 सांसदों ने सभापति हामिद अंसारी को पत्र सौंपा तो केंद्र में कांग्रेस की ही सरकार थी। 2011 में कोलकाता हाई कोर्ट के जज सौमित्र सेन के ख़िलाफ़ महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था तब भी केंद्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस की ही सरकार थी। हालांकि पद से हटाने के लिए संसद में कार्यवाही शुरू होने से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया था।

इमरजेंसी के दौरान अदालतों को हदों में बांधा गया
इमरजेंसी के दौरान विपक्षियों को जेल में डालने के बाद अदालतों को हदों में बांधने का अभियान शुरू हुआ। 22 जुलाई 1975 को संविधान का 38वां संशोधन लाया गया। उसके जरिए इमरजेंसी की घोषणा को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर कर दिया गया। राष्ट्रपति, राज्यपाल, केंद्र शासित प्रमुखों द्वारा जारी अध्यादेशों को अविवादित मानते हुए उन्हें न्यायिक पुनर्विचार से पृथक माना गया। इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में लंबित अपील के फैसले का इंतजार नहीं किया गया। 10 अगस्त 1975 को पेश 39वें संशोधन ने राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा लोकसभा स्पीकर के निर्वाचन से संबंधित विवादों को न्यायिक परीक्षण से मुक्त कर दिया।

संविधान को किया न्यायिक परीक्षण से बाहर
28 अगस्त 1976 को प्रस्तुत 42वें संशोधन का दायरा व्यापक था। संविधान की प्रस्तावना में “समाजवादी”, “धर्मनिरपेक्ष”, “एकता” ,”अखण्डता” शब्द जोड़े गए। मूल अधिकारों पर संविधान के नीति निर्देशक सिद्धान्तों की सर्वोच्चता सुनिश्चित की गई। 10 मौलिक कर्तव्यों को अनुच्छेद 51(क)(भाग iv क) में जोड़ा गया। इसके द्वारा संविधान को न्यायिक परीक्षण से मुक्त किया गया। सभी लोकसभा-विधानसभा की सीटों को शताब्दी के अंत तक के लिए स्थिर किया गया।

अदालतों के लिए किसी कानून को रद्द करना मुश्किल
42वें संशोधन के जरिये किसी केंद्रीय कानून के परीक्षण के लिए सर्वोच्च न्यायालय और राज्य के कानून के लिए यह अधिकार हाई कोर्ट को दिया गया। इसका उपबंध अदालतों के लिए किसी कानून को रद्द करना मुश्किल करता था। वह उपबंध था “किसी भी संवैधानिक वैधता के प्रश्न पर पांच से अधिक न्यायधीशों की बेंच द्वारा दो तिहाई बहुमत से निर्णय लिया जाएगा। यदि बेंच के न्यायाधीशों की संख्या पांच ही हो तो सर्वसम्मति से निर्णय लिया जाएगा।

लोकसभा का कार्यकाल 6 साल का कर दिया गया
1971 में चुनी लोकसभा का कार्यकाल 1976 में पूर्ण हो रहा था। उस समय तक इंदिरा गांधी चुनाव को लेकर मन नहीं बना पाई थीं। 42वें संशोधन ने लोकसभा के कार्यकाल को भी पांच वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दिया। सत्ता की मनमानी और उसे मजबूत करने की कोशिशों ने संविधान को माखौल में बदल दिया। इमरजेंसी के दौरान विपक्ष जेल में था, अदालतें डरी हुई थीं, प्रेस पाबंदियों में जकड़ा हुआ था।

इमरजेंसी का काला सच, संविधान की प्रति मांगने पर कहा छपना बंद हो गया
आज राहुल गांधी संविधान प्रति हाथों में लेकर घूमते हैं और फिर कहते हैं कि देश में तानाशाही हो रही है। जबकि सच्चाई तो यह है कि तानाशाही तो कांग्रेस ने इमरजेंसी के दौरान किया था जब संविधान की प्रति मांगने पर कहा गया छपना ही बंद हो गया है। यह इमरजेंसी का काला सच है। किसी बुक सेंटर पर भारतीय संविधान की प्रति मांगने पर अजूबे के तौर पर देखा जाता था। एक आहत दुकानदार का जबाब था, “अब यह छपना बंद हो चुका है।”

राहुल गांधी ने अध्‍यादेश को कहा था ‘बकवास’
गांधी परिवार से लेकर खुद राहुल गांधी का चरित्र संविधान जूती की नोक पर रखने का ही रहा है। जुलाई 2013 में तब कांग्रेस के उपाध्‍यक्ष रहे राहुल गांधी ने दागी नेताओं को बचाने के लिए लाए गए अध्‍यादेश पर बयान देकर यूपीए सरकार को ही कटघरे में खड़ा कर दिया था। राहुल ने उस अध्‍यादेश को ‘पूरी तरह बकवास’ करार दिया था जिसे पीएम मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली कैबिनेट ने मंजूरी दी थी। उन्‍होंने यहां तक कह दिया कि ऐसे अध्‍यादेश को फाड़ कर फेंक देना चाहिए।

गारंटी कार्ड के जरिये जुटाई लोगों की संवेदनशील जानकारी
कांग्रेस नेता राहुल गांधी आज संविधान की प्रति साथ लेकर चलते हैं जिससे वे लोगों को बता सकें कि वे संविधान को बचाना चाहते हैं। लेकिन उनके इस नैरेटिव को जनता समझ चुकी है। कुछ इसी तरह उन्होंने लोकसभा चुनाव के समय गारंटी कार्ड बांटकर लोगों को धोखा दिया। न केवल धोखा दिया बल्कि बहुत ही संवेदनशील जानकारी भी जुटा ली। गारंटी कार्ड के नाम पर जो चुनावी हथकंडा अपनाया गया और लोगों की संवेदनशील जानकारी जुटाई गई उसकी अब जांच शुरू हो गई है। कांग्रेस द्वारा एकत्र की गई जानकारी में बैंक खाता नंबर, फोन नंबर आदि जैसी व्यक्तिगत जानकारी शामिल है। इस तरह की जानकारी गलत हाथों में जाने से राष्ट्रीय सुरक्षा को गंभीर खतरा हो सकता है।

राहुल गांधी ने राष्ट्रगान में भाग नहीं लिया
18वीं लोकसभा के सत्र का सोमवार (24 जून) पहला दिन था। कांग्रेस नेता राहुल गांधी सत्र में शामिल हुए लेकिन वे राष्ट्रगान के समय सदन में मौजूद नहीं थे। वे राष्ट्रगान के बाद सदन में पहुंचे। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्यों राष्ट्रगान में राहुल गांधी ने भाग नहीं लिया? आखिर किसको खुश करना चाहते थे राहुल गांधी? आखिर क्यों राष्ट्रगान समाप्त होने के 2 मिनट बाद राहुल गांधी आए? क्या वे अल्पसंख्यकों को खुश करना चाहते थे या कि राहुल गांधी सोचते हैं कि वह राष्ट्रगान से भी बड़े हैं। वह राष्ट्रगान समाप्त होते ही संसद में प्रवेश कर गए।

संविधान से हटे कांग्रेस द्वारा जोड़े गए “धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी” शब्द
तानाशाही से सत्ता चलाना और अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए किसी भी हद तक जाना, यही कांग्रेस और गांधी परिवार का मूल एजेंडा है। इसीलिए उसने संविधान को तोड़ने-मरोड़ने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। आज समय की मांग है कि संविधान में उन बदलावों को पूर्ववत किया जाए जो 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल कानूनों का उपयोग करके लगाए गए थे। आज जनभावना यह कह रही है कि हम संविधान मूल स्थिति वापस चाहते हैं। कांग्रेस के आपातकालीन शासन के दौरान जोड़े गए “धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी” शब्दों को हटा देना चाहिए।

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