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अक्साई चिन और पीओके गंवाने वाली कांग्रेस को समझना होगा कि यह राजनीति का मोदी युग है, नेहरू युग नहीं

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थी खबर गर्म की ‘सीमा’ पर उड़ेंगे पुर्जे, देखने ‘राहुल’ भी गए थे पर तमाशा न हुआ- देश-दुनिया के लिए इस संकट काल में भारत की कांग्रेस पार्टी और उसके नेता सर्कस देखने और मेला घूमने जैसा ‘आनंद’ ले रहे हैं! भारत एक ओर कोरोना संकट से लड़ रहा है, तो दूसरी ओर चीन के साथ सीमा विवाद के मुद्दे को सुलझाने में जुटा है। लेकिन, विपदा के इस दौर में भी कांग्रेस पार्टी राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप से नहीं चूक रही। मशहूर शायर मिर्जा गालिब के एक शेर का सहारा लेते हुए ट्विटर पर राहुल गांधी ने भारत और चीन के अधिकारियों के बीच हुई बातचीत के असफल होने की ओर संकेत कर इशारों-इशारों में आरोप लगाया कि चीन भारत की सीमा में घुस आया है और यहां की जमीन पर कब्जा किए बैठा है। राहुल के इस ट्वीट पर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने भी गालिब के एक शेर का सहारा लेते हुए कांग्रेस की खस्ताहाल स्थिति और उसकी वैचारिक दरिद्रता की ओर इशारा किया। इन सबके बीच, एक बार फिर मंगलवार को राहुल गांधी ने ट्वीट कर रक्षा मंत्री पर निशाना साधा और पूछा कि क्या चीन भारत के लद्दाख क्षेत्र के भूभाग पर कब्जा कर लिया है?


दरअसल, राहुल गांधी के इस ट्वीट पर कई लोगों ने राहुल को आड़े हाथों लिया। वरिष्ठ पत्रकार अर्नब गोस्वामी ने राहुल के ट्वीट पर कमेंट करते हुए लिखा,’चीन ने अक्साई चिन के इलाके पर क्यों कब्जा किया। उस समय नेहरू कहां थे?’ अर्नब यहीं नहीं रुके। एक अन्य कमेंट में उन्होंने लिखा, ‘पाकिस्तान को पीओके और चीन को अक्साई क्षेत्र गिफ्ट करने वाली कांग्रेस अब सीमा के हालात पर स्पष्टीकरण मांग रही है।’


नेहरू राज में अक्साई चिन, पीओके भारत के हाथ से निकला

दरअसल, यह एक वाजिब सवाल है कि 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान कांग्रेस पार्टी का देश में एकछत्र राज था, उस समय केंद्र में जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस की मजबूत सरकार थी, फिर भी आखिर कौन-सी कमियां रहीं कि चीन ने भारतीय सीमा में अक्साई चिन क्षेत्र के करीब 40,000 वर्ग किलोमीटर को हड़प लिया। इन पर अब भी चीन का ही अधिकार है। इसके साथ ही, 1947 में पाकिस्तान ने कश्मीर के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया। पीओके का यह इलाका 13,300 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला है। पाकिस्तान इसे आजाद कश्मीर कहता है।

दरअसल, 1962 में चीन से भारत की हार भी तत्कालीन कांग्रेस सरकार की गलत नीतियों को ही नतीजा थी। आइए, देखते हैं आखिर कांग्रेस की नीतियों की वजह से देश को कहां-कहां नुकसान उठाना पड़ा।

भारत की जगह चीन को बनाया यूएनओ का सदस्य

यह सच है कि चीन ने भारत के साथ छल किया और ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ के गुमान में भूले भारत के साथ विश्वासघात किया। लेकिन, इस युद्ध में हार की बड़ी वजह नेहरू सरकार की गलत नीतियां थीं, जो अपने देश के हित से आगे चीन का हित रखती थी, जो चीन के मंसूबे को भांप नहीं सकी। 1947 में भारत को आजादी मिली और उसके ठीक दो साल बाद यानि 1949 में माओत्से तुंग के नेतृत्व में साम्यवादी दल ने अक्टूबर, 1949 को चीनी लोक गणराज्य (पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना) की स्थापना की। उस दौर में भारत सरकार शुरू से ही चीन से दोस्ती बढ़ाने की पक्षधर थी। जब चीन दुनिया में अलग-थलग पड़ गया था, उस समय भी भारत चीन के साथ खड़ा था। जापान के साथ एक वार्ता में भारत सिर्फ इस वजह से शामिल नहीं हुआ, क्योंकि चीन आमंत्रित नहीं था। कई दावे ऐसे भी हैं कि जवाहर लाल नेहरू की गलती की वजह से भारत ने संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता ठुकरा दी और अपनी जगह यह स्थान चीन को दे दिया।

चीन को सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए नेहरू ने की लॉबिंग

सरदार पटेल की भी नहीं सुनी नेहरू ने

उस दौर में काल्पनिक आदर्शवाद और नैतिकता का बोझ जवाहर लाल नेहरू पर इतना था कि वे चीन को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिलवाने के लिए पूरी दुनिया में लाबिंग करने लगे। लेकिन, सरदार पटले ने चीन की चाल को भांप लिया था। वर्ष 1950 में ही सरदार पटेल ने नेहरू को चीन से सावधान रहने के लिए कहा था। अपनी मृत्यु के एक महीने पहले ही 7 नवंबर 1950 को देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने चीन के खतरे को लेकर नेहरू को आगाह करते हुए एक चिट्ठी में लिखी थी कि भले ही हम चीन को मित्र के तौर पर देखते हैं, लेकिन कम्युनिस्ट चीन की अपनी महत्वकांक्षाएं और उद्देश्य हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि तिब्बत के गायब होने के बाद अब चीन हमारे दरवाजे तक पहुंच गया है। लेकिन, अपने अंतरराष्ट्रीय आभामंडल और कूटनीतिक समझ के सामने पंडित नेहरू ने किसी की भी सलाह को अहमियत नहीं दी।

एंडरसन-भगत की सीक्रेट रिपोर्ट- नेहरू की नीतियां जिम्मेदार

क्या तय थी 1962 में चीन के हाथों भारत की हार? क्या बिना तैयारी के भेजे गए थे भारतीय सैनिक? क्या मोर्चे पर चीन की तैयारियों के बारे में भारत के पास कोई सूचना नहीं थी? दरअसल, इन्हीं सवालों का जवाब लेफ्टिनेंट जनरल नील एंडरसन और ब्रिगेडियर पीएस भगत ने अपनी रिपोर्ट में ढूंढने की कोशिश की थी। इस रिपोर्ट को गोपनीय घोषित कर दिया गया था। इसकी दोनों कॉपियों को रक्षा मंत्रालय में सुरक्षित रख दिया गया था। लेकिन 1962 के दौर में ‘टाइम’ के संवाददाता के तौर पर दिल्ली में काम कर रहे मैक्स नेविल ने इस रिपोर्ट के मौजूद होने का दावा किया था। मैक्स नेविल का दावा था कि रिपोर्ट में हार के लिए नेहरू की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया गया था। नेहरू की फारवर्ड पॉलिसी पूरी तरह नाकाम साबित हुई। साथ ही, दिल्ली और सेना के फील्ड कमांडरों के बीच तालमेल की बेहद कमी, सैनिकों की खराब तैयारियां और संसाधनों की कमी को भी जिम्मेदार माना गया।

आस्ट्रेलिया के पत्रकार मैक्स नेविल ने एक किताब इंडियाज चाइना वार लिखी, जिसमें इस सीक्रेट रिपोर्ट के हवाले से कई दावे किए गए।

सेना की हथियारों की मांग पर ध्यान नहीं दिया गया

1961 के मध्य तक चीन के सुरक्षा बल सिक्यिांग-तिब्बत सडक पर वर्ष 1957 की अपनी स्थिति से 70 मील आगे बढ़ चुके थे। भारत की 14 हजार वर्ग मील जमीन पर कब्जा किया जा चुका था। देश में तीखी प्रतिक्रिया हुई। सरकार आलोचना के घेरे में आ गई। आलोचनाओं से तंग आकर नेहरू ने तत्कालीन सेना प्रमुख पीएन थापर को चीनी सैनिकों को भारतीय इलाके से खदेड़ने का आदेश दिया। थापर बहुत पहले से सेना की बदहाली से अवगत करा रहे थे, बार-बार वह हथियार और संसाधनों की मांग कर रहे थे। नेहरू ने कभी उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया।

नेहरू के अपरिपक्व बयान पर चीन ने कर दिया आक्रमण

13 अक्टूबर 1962 श्रीलंका जाते हुए नेहरू ने चेन्नई में मीडिया को बयान दिया कि उन्होंने सेना को आदेश दिया है कि वह चीनियों को भारतीय सीमा से निकाल फेकें। नेहरू के इस बयान से सैनिक हेडक्वार्टर हक्का-बक्का रह गया। जब सेना प्रमुख थापर ने रक्षा मंत्री से इस बारे में पूछा, तब उनका जवाब था कि प्रधानमंत्री का बयान राजनीतिक स्टेटमेंट है। इसका अर्थ है कि कारवाई दस दिन में भी की जा सकती है और सौ दिन में या हजार दिन में भी। लेकिन नेहरू के इस बयान के आठ दिन बाद चीनियों ने आक्रमण कर दिया।

बहरहाल, जब आज यह कहा जाता है कि 62 का नहीं बल्कि 2020 का हिंदुस्तान है, तो इस बात में दम है। हाल में चीन की हर कारस्तानी का भारत ने मुंहतोड़ जवाब दिया है। यही कारण है कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपनी सेना को युद्ध की तैयारी तेज करने के लिए कहा था। लेकिन, 24 घंटे बाद ही दूसरा बयान चीन के विदेश मंत्रालय का आ जाता है। जिसमें कहा जाता है कि भारत के साथ सीमा पर हालात स्थिर हैं और काबू में हैं, दोनों देशों के पास बातचीत करके मुद्दों को हल करने के माध्यम मौजूद हैं। तीसरा बयान भारत में चीन के राजदूत का आया। उन्होंने कहा कि दोनों देश कोरोना वायरस से लड़ रहे हैं और इस वक्त रिश्तों को मजबूत करने की जरूरत है। इन बयानों से यही समझा जाना चाहिए कि चीन बातचीत से ही मामले का हल करना चाहता है। पहले चीन लद्दाख में अपने सैनिकों की संख्या बढ़ाकर भारत को धमकाना चाहता था, और भारत को सड़क बनाने से रोकना चाहता था, लेकिन भारत के सख्त रवैये से चीन को लग गया है कि उसके हथकंडे भारत के सामने नहीं चल पाएंगे। दरअसल, चीन को यह अच्छी तरह अंदाजा हो गया है कि भारत सामरिक ही नहीं कूटनीतिक मामले में भी चीन पर भारी है, यानि चीन से निपटने के लिए भारत हर मोर्चे पर तैयार है। 2017 में डोकलाम की याद चीन भूला नहीं होगा, जब उसे करीब ढाई महीने के गतिरोध के बाद अपनी सीमा में वापस लौटना पड़ा था। चीन को भी मालूम है कि भारत में यह राजनीति का मोदी युग है, कांग्रेस युग नहीं।

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