लोकसभा चुनाव से पहले महागठबंधन का शोर सुनाई दे रहा है। महागठबंधन बनाने वाली पार्टियां- बसपा, कांग्रेस, सपा, राजद, नेशनल कांफ्रेंस, एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस, सीपीएम, सीपीआई इत्यादि मिलकर प्रधानमंत्री मोदी का सामना करना चाहती हैं। राज्यों में एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले महागठबंधन के दल 2019 के लोकसभा चुनाव में अपना अस्तित्व बचाने के लिए एक दूसरे का हाथ थाम रहे हैं।
विचारधारा विहीन है महागठबंधन
राज्यों में विधानसभा चुनाव में एक दूसरे के खिलाफ लड़ने वाले महागठबंधन के पास कोई ऐसी विचारधारा नहीं है जिस पर वे सहमत हों। इसमें कांग्रेस जहां नेहरू-गांधी को अपना आदर्श मानती है, वहीं मायावती बाबा साहेब अंबडेकर को अपना आदर्श पुरुष मानती है। यह जग जाहिर है कांग्रेस के आदर्श पुरुष नेहरू और बाबा साहेब के बीच सदैव राजनीतिक विरोध रहा है। इस महागठबंधन की एक पार्टी समाजवादी पार्टी लोहिया के आदर्शों पर चलने का दम भरती है, लेकिन कांग्रेस का आजीवन विरोध करने वाले लोहिया के सपनों को रौंदतें हुए समाजवादी कांग्रेस के साथ खड़ी है। महागठबंधन मेें लेफ्ट पार्टियां भी शामिल हैं, जो कांग्रेस, बसपा और सपा की विचारधारा से बिल्कुल अलग एक राजनीतिक विचारधारा रखते हैं। ऐसे खिचड़ी विचारों का महागठबंधन देश को कैसे आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थायित्व दे पाएगा।
राजनीतिक डर है महागठबंधन का आधार
जिस महागठबंधन के पास कोई विचारधारा नहीं है, जो एक दूसरे के विरोधी हैं वे मात्र डर से एकजुट होने का प्रयत्न कर रहे हैं। इस महागठबंधन के दलों में अपने राजनीतिक अस्तित्व के सामाप्त होने का एक डर समाया हुआ है। यह डर, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नेतृत्व क्षमता के कारण पैदा हो रहा है। इन दलों को इस बात का अहसास है कि प्रधानमंत्री मोदी के काम करने के तरीके और निर्णय लेने की क्षमता के सामने हम कुछ नहीं है और अगर इस बार के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी को हराने के लिए एक साथ नहीं आए तो आने वाले दशकों तक इनका राजनीतिक कद बौना ही रहेगा।
प्रधानमंत्री के पद पर सहमत नहीं है महागठबंधन
डर से बने इस महागठबंधन के पास विचारधारा के साथ-साथ आपसी सहमति का भी अभाव है। महागठबंधन यह तो दावा करता है कि वह प्रधानमंत्री मोदी को लोकसभा चुनाव में हराना चाहता है, लेकिन यह सहमति के साथ बताने में उलझ जाता है कि उसकी तरफ से अगला प्रधानमंत्री कौन होगा। एक तरफ तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी अपने को पद का दावेदार बताती हैं तो उनका समर्थन कर्नाटक में कांग्रेस के सहयोग से बने जद-एस के मुख्यमंत्री एच डी कुमारस्वामी करते हैं। उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती भी अपने को प्रधानमंत्री को दावेदार मानती हैं और उनके पार्टी के कार्यकर्ता उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के पोस्टर भी छपवाने लगे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपने को प्रधानमंत्री के पद के लिए योग्य उम्मीदवार मानते हैं और कई कांग्रेसी नेता इस बात का ऐलान सार्वजनिक रूप से कर चुके हैं। लेकिन महागठबंधन के अन्य दल राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहते हैं। इसलिए आज तक कभी खुलकर उनके नाम का समर्थन नहीं किया है।
महागठबंधन के पास नहीं है कोई कार्यशैली
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पांच साल के कार्यकाल के दौरान देश के सामने एक परिपक्व कार्यशैली दी है। देश के सामने यह उदाहरण पेश किया है कि कैसे तेज गति से निर्णय लिया जाता है और कैसे किसी काम को समय के अंदर पूरा करके सबको साथ लेकर सबका विकास किया जाता है। इसके विपरीत महगठबंधन के दल जब भी सत्ता में रहे हैं, उनकी कोई कार्यशैली नहीं रही है। ये सभी दल सिर्फ और सिर्फ समस्याओं को समझने और आयोग बनाकर विचार करने के अतिरिक्त कोई काम नहीं करते। समस्याओं के समाधान के लिए कोई समग्र दृष्टि इन महागठबंधन के दलों के पास नहीं है।
आज, देश महागठबंधन के तौर तरीकों को देख रहा है और उसे यह समझ में आ रहा है कि जिन दलों के पास इतना भी विवेक नहीं है, जो प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार की सहमति के साथ घोषणा कर सकें, वो महागठबंधन देश की विशाल समस्याओं के लिए आमसहमति कैसे बनाएगा और देश को विकास के पथ पर कैसे ले जाएगा। इसीलिए महागठबंधन देश के लिए महामारी है और देश के भविष्य के लिए भारी है।