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सेम सेक्स मैरेजः 2024 से पहले समलैंगिक आंदोलन खड़ा करने की साजिश, 17 महंगे वकीलों का 1 करोड़ फीस रोजाना कौन दे रहा?

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सेम सेक्स मैरेज यानी समलैंगिक विवाह मामले पर सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ रोजाना सुनवाई कर रही है। इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि विद्वान जजों की नजर में यह कितना महत्वपूर्ण विषय है। जबकि वर्ष 2022 के आंकड़ों के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट में 11 हजार मामले पेंडिंग हैं। एक नजर में देखा जाए तो यह नया कानून बनाने का मामला है जो कि संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है। इस लिहाज से इस विषय को संसद पर ही छोड़ देना चाहिए था। खैर, अब तो रोजाना आधार पर सुनवाई हो रही है और पांच-सदस्यीय संविधान पीठ गोद लेने, उत्तराधिकार, पेंशन से जुड़े कानून और ग्रेच्युटी आदि विषयों पर कई कानूनी सवालों से जूझ रही है। इस बीच एक दिलचस्प जानकारी निकलकर आई है कि सेम सेक्स मैरेज के याचिकाकर्ताओं की तरफ से जो नामी वकील दलीलें पेश कर रहे हैं उनका रोजाना फीस करीब 1 करोड़ रुपये है। ऐसे में सवाल उठता है कि यह एक करोड़ रुपये कहां से आ रहा है। इससे विदेशी साजिश और भारत पर पश्चिम की संस्कृति थोपने की साजिश की बू आती है।

बड़ा सवालः कौन दे रहा वकीलों का रोजाना करीब 1 करोड़ फीस

टि्वटर यूजर @Starboy2079 ने वकीलों की फीस से संबंधित ट्वीट किया है। याचिकाकर्ताओं की ओर से इस केस को लड़ रहे वकीलों की फीस पर गौर करें तो पाएंगे तो इनकी फीस रोजाना 1 करोड़ के करीब बैठती है। इस केस को लड़ने वाले वकीलों की फीस देखें- कपिल सिब्बल 15 लाख रुपये प्रति सुनवाई, मुकुल रोहतगी 15 लाख रुपये प्रति सुनवाई, अभिषेक मनु सिंघवी 10 लाख, केवी विश्वनाथन 4 लाख, राजू रामचंद्रन 4 लाख, जयना कोठारी 4 लाख, वृंदा ग्रोवर 4 लाख, अरुंधती काटजू 3 लाख, सौरभ किरपाल 3 लाख, करुणा नंदी 3 लाख, गीता लूथरा 2 लाख, आनंद ग्रोवर 2 लाख, अनीता शेनाय 2 लाख, मेनका गुरुस्वामी 2 लाख, राघव अवस्थी 2 लाख, शिवम सिंह 1 लाख, नमिता सक्सेना 1 लाख रुपये प्रति सुनवाई। यानी इनकी फीस देखें तो करीब 77 लाख से 1 करोड़ रुपये प्रतिदिन बैठती है। यह आंकड़े एक औसत आकलन है जो विभिन्न समाचार माध्यमों से लिया गया है। असल आंकड़ा इससे कम या ज्यादा हो सकता है।

2024 लोकसभा चुनाव से पहले समलैंगिक आंदोलन खड़ा करने की साजिश

सेम सेक्स मैरेज केस की जिस तरह रोजाना सुनवाई हो रही है। इससे इस संदेह को भी बल मिलता है इसमें विदेशी ताकतें शामिल हैं। सेम सेक्स मैरेज केस का असली मकसद 2024 लोकसभा चुनाव से पहले समलैंगिक आंदोलन (ट्रांस मूवमेंट) खड़ा करना है। जिससे देश की कानून व्यवस्था को अस्थिर किया जा सके। यह भारतीय सभ्यता के खिलाफ एक बड़ी साजिश भी है जो परिवार के ताने-बाने छिन्न-भिन्न करना चाहते हैं।

सामान्य व्यक्ति को डेट नहीं मिलती, समलैंगिक याचिका पर तत्काल सुनवाई

कुछ बेतरतीब समलैंगिक जोड़े याचिका दायर करते हैं। और उन सबकी सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में रोजाना होने लगती है। एक सामान्य व्यक्ति को सालों तक सुनवाई के लिए डेट नहीं मिलती है लेकिन इस मामले में सुप्रीम कोर्ट उन्हें तत्काल सुनवाई की डेट ही नहीं देती बल्कि संविधान पीठ रोजाना आधार पर सुनवाई करने लगती है। केस लड़ने के लिए याचिकाकर्ताओं की ओर से देश महंगे हायर किए गए हैं। केंद्र सरकार कह चुकी है कि कानून बनाना संसद का काम है इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट एकतरफा तौर पर सुनवाई कर रही है। जैसे-जैसे सुनवाई आगे बढ़ रही है, कई जटिलताएं भी सामने आ रही है।

संविधान पीठ के जज बैचमेट, क्या यह हितों का टकराव नहीं है?

टि्वटर यूजर @KailashGWagh ने एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है कि क्या यह सही नहीं है कि संविधान पीठ के 5 जजों में से 3/4 जज SameSexMarriage मामले की सुनवाई कर रहे CLC के बैचमेट हैं? क्या यह हितों का टकराव नहीं है? आप संसद को बायपास क्यों करना चाहते हैं और विशेष विवाह अधिनियम में संशोधन क्यों करना चाहते हैं? संविधान सुप्रीम कोर्ट को संसद द्वारा पारित कानूनों को बदलने की अनुमति नहीं देता है, जिसके पास केवल नए कानूनों में संशोधन/बनाने का अधिकार है!

यह संसद में चर्चा का विषय है, ज्यूडिशियरी में नहींः महेश जेठमलानी

राज्यसभा सांसद और सीनियर एडवोकेट महेश जेठमलानी ने सेम सेक्स मैरिज को लेकर कहा कि ज्यूडिशियरी का नहीं, ये संसद का मामला है। जेठमलानी ने कहा कि समलैंगिक विवाह का मामला विशेष रूप से संसद के लिए है। मैरिज अधिकारों का एक पूरा सेट है और यह आपको कानून के दायरे में लाता है। शादी सिर्फ कोई एक समारोह नहीं है। महेश जेठमलानी ने आगे कहा कि LGBTQ के बीच क्रॉस मैरिज भी समस्याओं का कारण बनेंगे। स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत भी चुनौतियां होंगी। यह संसद में चर्चा का विषय है। इस पर ज्यूडिशियरी को कानून नहीं बनाना चाहिए।

सरकार ने कहाः सेम-सेक्स मैरिज पर कानून बनाने के लिए संसद

समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। इस मामले में सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि ऐसे मामलों पर कानून बनाना सरकार का काम है, कोर्ट इससे खुद को अलग रखे। केंद्र सरकार की तरफ से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता पक्ष रखा। उन्होंने अपनी दलील में कहा कि विवाह का मामला सामाजिक-कानून का मामला है, ऐसे में यह विषय विधायिका के अधिकार क्षेत्र का है।

कई कानूनी सवालों से जूझ रही संविधान पीठ

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच-सदस्यीय संविधान पीठ गोद लेने, उत्तराधिकार, पेंशन से जुड़े कानून और ग्रेच्युटी आदि विषयों पर कई कानूनी सवालों से जूझ रही है। अदालत ने कहा कि अगर समलैंगिक विवाह की अनुमति दी जाती है, तो इसके नतीजे के पहलुओं को ध्यान में रखते हुए इसकी न्यायिक व्याख्या, विशेष विवाह अधिनियम, 1954 तक ही सीमित नहीं रहेगी। इसके दायरे में पर्सनल लॉ भी आ जाएंगे। पीठ ने कहा कि शुरू में हमारा विचार था कि इस मुद्दे पर हम पर्सनल लॉ को नहीं छुएंगे, लेकिन बिना पर्सनल लॉ में बदलाव किए समलैंगिक शादी को मान्यता देना आसान काम नहीं है।

समलैंगिक विवाह को वैध बनाना इतना आसान भी नहीं

सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने समलैंगिक विवाह को लेकर अहम टिप्पणी की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समलैंगिक विवाह को वैध बनाना इतना आसान भी नहीं है, जितना कि यह दिखता है। इस मुद्दे पर कानून बनाने के लिए संसद के पास निर्विवाद रूप से विधायी शक्ति है। ऐसे में हमें इस पर विचार करना है कि हम इस दिशा में कितनी दूर तक जा सकते हैं। हालांकि मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस रविंद्र भट्ट ने कहा कि उन्हें उम्मीद बहुत कम है कि संसद इस मामले में कानून बनाएगी।

ट्रांसजेंडर की आबादी 5 लाख, कोर्ट में बताया 48 लाख

याचिकाकर्ताओं की वकील करुणानंदी ने ट्रांसजेंडर के बारे में जिरह करते हुए कहा, “2011 की जनसंख्या के मुताबिक देश में 48 लाख ट्रांसजेंडर हैं और यह संख्या भी वास्तविक आंकड़ों से कम है और इस संख्या में से कई इस कोर्टरूम में मौजूद हैं।” ये आंकड़े पूरी तरह गलत हैं और हैरानी की बात यह थी कि संविधान पीठ द्वारा इसे सत्यापित भी नहीं किया गया। यह सब लाइव कोर्ट रूम में हो रहा था। दरअसल, वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार ट्रांसजेंडर की संख्या सिर्फ 4,87,000 ही थी। जिन्हें ‘अन्य’ के रूप में वर्गीकृत किया गया था।

सनातन संस्कृति के किसी ग्रंथ में शादी का उल्लेख नहीं

समलैंगिक व्यक्ति प्राचीन समय से समाज में रहते आए हैं लेकिन वेद, उपनिषद, पुराण से लेकर भारत के किसी धर्मग्रंथ में समलैंगिक विवाह की चर्चा नहीं है। भारतीय सनातन संस्कृति में विवाह को 16 पवित्र संस्कारों में से एक माना गया है। यह दो परिवारों का ही नहीं बल्कि दो आत्माओं का भी मिलन होता है, जिससे संसार आगे बढ़ता है। इसे संतान उत्पत्ति के द्वारा पितृ ऋण से मुक्ति दिलाने वाला संस्कार भी माना गया है। ऐसे में सनातन संस्कृति के मूल को जाने बिना भारतीय विवाह पद्धति को समझना भी मुश्किल है।

समलैंगिक मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई पर एक नजर-

विवाह पुरुष और महिला के बीच संबंध

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र सरकार की ओर से तर्क दिया कि, ‘सामाजिक संबंधों की स्वीकृति कभी भी विधानों के निर्णय पर निर्भर नहीं होती है। यह केवल समाज के भीतर से आती है। मेरा निवेदन यह है कि विशेष विवाह अधिनियम की विधायी स्थिति पूरी तरह से एक बायोलॉजिक मैन (जैविक पुरुष) और एक बायोलॉजिक वुमन (जैविक महिला) के बीच संबंध रही है।’

पुरुष या महिला की पूर्ण अवधारणा नहीं, जननांग आधार नहीं

सॉलिसिटर जनरल मेहता के तर्कों पर सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, ‘पुरुष की कोई पूर्ण अवधारणा या महिला की पूर्ण अवधारणा बिल्कुल भी नहीं है। यह सवाल नहीं है कि आपके जननांग क्या हैं। यह कहीं अधिक जटिल है, यही बात है। इसलिए जब विशेष विवाह अधिनियम पुरुष और महिला कहता है, तब भी एक पुरुष और एक महिला की धारणा जननांगों पर आधारित पूर्ण नहीं है।’

जैविक महिला की अवधारणा नहीं तब महिला अपराध पर बात नहीं होगी?

भारत के मुख्य न्यायाधीश ने कहा है कि जननांग लिंग को परिभाषित नहीं करते हैं। जैविक पुरुष और स्त्री की पूर्ण अवधारणा जैसी कोई चीज नहीं है। ऐसे में यह सहज सवाल उठता है कि क्या हम महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के बारे में बात करना बंद कर देंगे। क्योंकि जैविक महिलाओं की कोई अवधारणा ही नहीं है?

अदालतों में ड्रेस कोड का क्या होगा?

अब अगर जैविक पुरुष या महिला की कोई पूर्ण अवधारणा नहीं है, तो अदालतों में ड्रेस कोड का क्या होगा? क्या इसका मतलब यह है कि कोई भी (लिंग की परवाह किए बिना) वह पहन सकता है जिसे परंपरागत रूप से मनुष्यों के कपड़े माना जाता है?

अदालतों में महिला, पुरुषों के लिए अलग ड्रेस कोड क्यों?

सुप्रीम कोर्ट में महिलाओं के ड्रेस कोड के मुताबिक महिला वकील साड़ी, लंबी स्कर्ट (सादा सफेद या काला या कोई भी हल्का रंग), सलवार-कुर्ता दुपट्टा (सफेद या काला) के साथ या बिना या काले कोट और बैंड के साथ पारंपरिक पोशाक पहन सकती हैं। पुरुष काले और सफेद औपचारिक पैंट/शर्ट और काला कोट, काली टाई पहनते हैं।

पुरुष जननांग के साथ कोई महिला हो तो CrPC के तहत कैसे माना जाएगा?

सीजेआई की टिप्पणी के विरोध में एसजी मेहता ने अपनी बात दोहराई और कहा कि जननांगों के आधार पर ही महिला और पुरुष का निर्धारण किया जाना चाहिए। यह तर्क नहीं माने जाने पर उन्होंने कई जटिलताओं की ओर इशारा किया। उन्होंने तर्क दिया, ‘अगर मेरे पास एक पुरुष के जननांग हैं लेकिन अन्यथा एक महिला हूं, जैसा कि कहा जा रहा है, मुझे CrPC के तहत कैसे माना जाएगा? एक महिला के रूप में? क्या मुझे 160 बयान के लिए बुलाया जा सकता है? कई मुद्दे हैं।’ इसके साथ ही उन्होंने कहा कि यह बेहतर होगा कि इसे संसद और संसदीय समितियां के लिए छोड़ दिया जाए।

समलैंगिक यदि बच्चे गोद लेंगे तो मां और किसे बाप माना जाएगा?

याचिका पर जमियत उलेमा हिंद ने भी आपत्ति जताई है। जमीयत की तरफ से वरिष्ठ वकील और कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल सेम सेक्स मैरेज का विरोध करने के लिए अदालत में पहुंचे। उन्होंने कहा कि समलैंगिक यदि किसी बच्चे को गोद लेते हैं तो किसे मां और किसे बाप माना जाएगा? उन्होंने पूछा कि गुजारा भत्ता की जिम्मेदारी किसकी होगी? कपिल सिब्बल ने कहा कि शादी विवाह से जुड़े मामले संविधान की समवर्ती सूची में आते हैं। इसलिए इस विषय पर राज्य सरकारों की भी राय ली जानी चाहिए।

लवजिहाद को बढ़ावा देगा मैरिज एक्ट की धारा 16 हटाना

विशेष विवाह अधिनियम के तहत धारा 16 के तहत पब्लिक नोटिस देने का प्रावधान है। सेमसेक्स मैरिज के याचिकाकर्ता स्पेशल मैरिज एक्ट की धारा 16 को हटाने की भी मांग कर रहे हैं, जो इंटरफेथ मैरिज के लिए पब्लिक नोटिस को अनिवार्य बनाती है। निजता के नाम पर, वे नहीं चाहते कि परिवार और सरकार को यह बिल्कुल भी पता चले। क्या यह लवजिहाद में शामिल लोगों की मदद नहीं करेगा?

भारत में विवाह के लिए लड़कों की उम्र 21 और लड़की की उम्र 18 साल निर्धारित

भारत में विवाह के लिए लड़कों की उम्र 21 साल और लड़की की उम्र 18 साल निर्धारित की गई है। विशेष विवाह अधिनियम में भी यही प्रावधान है, जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट समलैंगिक शादी की सुनवाई कर रही है। विशेष विवाह अधिनियम, 1954 एक ऐसा कानून है, जो विभिन्न धर्मों या जातियों के लोगों के विवाह के लिए एक कानूनी ढांचा प्रदान करता है। यह एक सिविल विवाह को नियंत्रित करता है, जहां राज्य धर्म के बजाय विवाह को मंजूरी देता है।

समलैंगिक पार्टनरों में किसकी उम्र 21 और किसकी 18 साल होगी

समलैंगिक विवाह में दोनों पार्टनरों में से किस पार्टनर की उम्र 18 साल होगी और किसकी उम्र 21 साल होगी, जैसा कि विशेष विवाह अधिनियम के तहत प्रावधान है।

पुरुष और महिला शब्दों के स्थान पर ‘जीवन-साथी’

सर्वोच्च अदालत के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने समलैंगिक शादी को कानूनी-सामाजिक मान्यता देने और स्पेशल मैरिज एक्ट में संशोधन करने पर एक नई बहस शुरू की है। संविधान पीठ शादी की नई व्याख्या भी कर सकती है। कानून में पुरुष और महिला शब्दों के स्थान पर ‘जीवन-साथी’ शब्द स्थापित किया जा सकता है। ऐसी दलीलें सामने आई हैं।

समलैंगिक यौन संबंध प्रकृति की संरचनाओं से खिलवाड़

समलैंगिक यौन संबंध नैसर्गिक और प्राकृतिक हैं? क्या उन्हें ‘अनैतिक’ और ‘गलत’ करार नहीं दिया जाना चाहिए? सर्वोच्च अदालत ने 2018 में धारा 377 के तहत समलैंगिकता को ‘अपराध’ की श्रेणी से मुक्त किया था, लिहाजा उसे कुछ स्वीकृति मिली थी, लेकिन उसके मायने ये नहीं हैं कि प्रकृति की संरचनाओं से खिलवाड़ किया जाए।

समलैंगिकों का जन्म भी स्त्री-पुरुष के मिलन से हुआ

प्रकृति ने सभी जीवों, प्राणियों में ‘नर-मादा’ की संरचना की है। उनके भीतर ऐसे समीकरण, प्रक्रियाएं तैयार की हैं कि दोनों का ‘मिलन’ एक और प्राणी को जन्म देता है। समलैंगिकों का जन्म भी इसी तरह हुआ है। जन्म और संरचना की यह प्रक्रिया एकदम ‘दैवीय’ लगती है। जिस तरह एक नए जीव का मस्तिष्क, चेहरा-मोहरा, शारीरिक अंग, हृदय और दूसरे हिस्से और उंगलियों पर लकीरें आदि हम देखते हैं, उन्हें कौन गढ़ता है? हम अचंभित होते रहते हैं कि ‘नर-मादा’ के मिलन से ही ऐसी संरचना कैसे बन जाती है?

सनातन धर्मग्रंथों में ब्रह्मांड के निरंतर निर्माण का उल्लेख

हमारे वेद, पुराण, उपनिषद आदि प्राचीन महाग्रंथों में जीव, प्राणी की संरचना, आत्मा और ब्रह्मांड के निरंतर निर्माण के संदर्भ में उल्लेख हैं और व्याख्याएं भी की गई हैं। कोई संविधान, कानून और व्यक्तिपरक बौद्धिकता ऐसी नैसर्गिक और प्राकृतिक संरचनाओं की समीक्षा नहीं कर सकते। यह व्यक्ति की क्षमताओं से बहुत परे है। उनके खिलाफ कानूनी प्रावधान स्थापित नहीं कर सकते। भारतीय सभ्यता और संस्कृति में ‘विवाह’ को एक पवित्र संस्कार माना गया है। यह एक सामाजिक संस्थान भी है। विवाह के जरिए वंश-वृद्धि को सामाजिक मान्यता और स्वीकृति मिली है।

जैविक लैंगिकता जननांग से ही परिभाषित, वैचारिक लैंगिकता बाद की चीज

जैविक और मानवीय लैंगिकता उनके ‘जननांग’ से ही परिभाषित होती है। वैचारिक लैंगिकता उसके बाद ही आती है। अदालत कोई नई परिभाषा तय करना चाहती है। यह आधुनिक मतिभ्रम हो सकता है कि समलैंगिक होना भी ‘प्रगतिशील’ लगे। किन देशों में, किन स्थितियों में इसे कानूनी-सामाजिक-मानसिक मान्यता मिली है, उससे भारतीय समाज को ज्यादा सरोकार नहीं है। समलैंगिक भी भारत देश के नागरिक हैं, लिहाजा उनके मौलिक और संवैधानिक अधिकार भी सुरक्षित हैं।

समलैंगिक शादी से उपजेंगे कई सवाल

समलैंगिकों की मनोविकृति शारीरिक स्तर पर है, उसका निदान किया जाना चाहिए। समलैंगिक संबंध और शादी के अधिकार और मान्यता का ही सवाल नहीं है। परिवार और संबंध से जुड़े पर्सनल लॉ, बच्चे गोद लेने का अधिकार, उत्तराधिकार एवं संपत्ति के अधिकार भी ऐसे संवेदनशील मुद्दे हैं, जिन पर बड़े विवाद पनपते रहे हैं और संबंधों का ताना-बाना भी बिखर सकता है। जिस स्तर पर समलैंगिकता की समीक्षा की जा रही है, वह स्तर भी देश के लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं करता।

कांग्रेस ने 60 साल के शासनकाल में सनातन संस्कृति को कुचला गया

कांग्रेस ने अपने 60 साल के शासनकाल में चंद वोटों की खातिर मुस्लिम तुष्टिकरण को बढ़ावा दिया और सनातन संस्कृति को दबाने-कुचलने का काम किया। इससे भारतवासियों के दिलो-दिमाग से सनातन संस्कृति का गौरव धूमिल होता रहा। ऐसा प्रतीत होता है कि सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीश भी सनातन संस्कृति के गौरव से भलीभांति परिचित नहीं रहे।

सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में वेद, उपनिषद, पुराण के संदर्भ शायद ही मिले

सुप्रीम कोर्ट के पिछले फैसलों पर नजर डालें तो माननीय न्यायाधीशों ने अपने फैसलों में विदेशी अदालतों के तमाम फैसलों के सैकड़ों संदर्भ दिए हैं लेकिन अपनी ही समृद्ध संस्कृति का उल्लेख शायद ही मिले। अदालत के फैसलों में वेद, उपनिषद, पुराण का संदर्भ न मिलना जड़ों से कट जाने को ही दर्शाता है। और जड़ों से कटा समाज कभी तरक्की नहीं कर सकता।

सनातन संस्कृति से जुड़ने पर भारत की तरक्की चौगुनी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 2014 में सत्ता में आने के बाद ही सनातन संस्कृति के वैभव को पुनर्स्थापित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। इसका व्यापक असर पिछले नौ सालों में भारत की तरक्की में भी देखने को मिल रहा है। सनातन संस्कृति से जुड़ना यानी अपनी जड़ों से जुड़ना और जड़ों जुड़ने के बाद आज भारत हर क्षेत्र में न केवल विकास कर रहा है बल्कि पूरी दुनिया आशा भरी नजरों से भारत की ओर देख रही है। उन्हें भरोसा है कि दुनिया में जिस तरह का संकट है उसमें भारत ही कोई राह दिखा सकता है।

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