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मस्जिद, दरगाह और चर्च पर सरकारी नियंत्रण नहीं तो मठों-मंदिरों पर सरकार का नियंत्रण क्यों? कांग्रेस ने हिंदू संस्कृति के खिलाफ इतनी बड़ी साजिश क्यों रची?

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भारत में मस्जिद, दरगाह और चर्च पर कोई सरकारी नियंत्रण नहीं है लेकिन मठों-मंदिरों और गुरुद्वारों पर सरकार का नियंत्रण है। आखिर यह भेदभाव क्यों है। देश में 70 सालों तक सत्ता में रही कांग्रेस ने हिंदू संस्कृति को खत्म करने के लिए ऐसे कानून क्यों बनाए। बहुसंख्यक हिंदू आबादी की उपेक्षा और मुस्लिम से प्रेम कांग्रेस के किस चरित्र की ओर इशारा करता है। इस भेदभाव के खिलाफ आवाज उठती रही है और साधु-संत इसका पुरजोर विरोध करते रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय ने इस संबंध में मठों और मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की मांग वाली याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की है। उन्होंने अपनी याचिका में कहा है कि धर्मनिरपेक्ष देश में जब संविधान किसी भी तरह के धार्मिक भेदभाव की मनाही करता है तब पूजा स्थलों के प्रबंधन को लेकर भेदभाव क्यों होना चाहिए? याचिका में मांग की गई है कि जैसे मुस्लिमों और ईसाईयों द्वारा अपने धार्मिक स्थलों, प्रार्थना स्थलों का प्रबंधन बिना सरकारी दखल के किया जाता है वैसे ही हिंदू, जैन, बौद्ध और सिखों को भी अपने धार्मिक संस्थानों के प्रबंधन और प्रशासन का अधिकार होना चाहिए।

सरकारी नियंत्रण की वजह से मंदिरों और मठों की स्थिति दिनोंदिन खराब होती जा रही है। मंदिरों- मठों की संपत्ति का उचित प्रबंधन नहीं होने से इनके पास धनाभाव हो गया है। भारी संख्या में मंदिर और मठ बंद हो गए हैं। एक अनुमान के मुताबिक देश के 15 राज्यों में करीब चार लाख मंदिरों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सरकारी नियंत्रण है। हिंदू संगठन इसका लगातार विरोध करते हैं। सुप्रीम कोर्ट हिंदू मंदिरों पर सरकारी कब्जे को कई मौकों पर अनुचित कह चुका है। 2019 में पुरी के जगन्नाथ मंदिर मामले में जस्टिस ( रिटायर्ड) बोबडे ने कहा था, ‘मैं नहीं समझ पाता कि सरकारी अफसरों को क्यों मंदिर का संचालन करना चाहिए?’ उन्होंने तमिलनाडु का उदाहरण दिया कि सरकारी नियंत्रण के दौरान वहां अनमोल देव-मूर्तियों की चोरी की अनेक घटनाएं होती रही हैं। ऐसी स्थितियों का कारण भक्तों के पास अपने मंदिरों के संचालन का अधिकार न होना है। सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में तमिलनाडु के प्रसिद्ध नटराज मंदिर पर सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने का आदेश दिया था।

इसी मुद्दे पर ट्विटर यूजर Agenda Buster ने ट्वीट की एक श्रृंखला जारी की है। इसमें उन्होंने हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम 1951 (Hindu religious and charitable endowments Act 1951) की चर्चा की है। इसके साथ ही इस पर भी चर्चा की गई है कि भारत में चर्च और मस्जिद स्वतंत्र हैं तो मंदिर क्यों नहीं? मंदिर की दान पेटी में दिया आपका चढ़ावा कहां जाता है?

मंदिर न केवल पूजा स्थल थे, बल्कि हिंदू दर्शन, कला और संस्कृति के सीखने के केंद्र भी थे। सभी राजाओं ने अपने समय में मंदिर बनवाए थे और ये मंदिर मुगलों और अंग्रेजों के समय भी प्रतिरोध का केंद्र बने थे। मुगलों ने मंदिर को नष्ट करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने इसे नियंत्रित नहीं किया। ईस्ट इंडिया कंपनी एवं अंग्रेजों ने भी समय-समय पर कोशिश की लेकिन वे असफल रहे। 1863 में अंग्रेजों ने अधिनियम लाया और हिंदू मंदिरों को पूर्ण स्वतंत्रता दी। स्वतंत्रता संग्राम के समय ये मंदिर स्वतंत्रता सेनानियों की सभाओं का स्थान भी बना।

1925 तक अंग्रेजों ने हिंदुओं के मन में 3 जहर का इंजेक्शन लगा दिया। वे तीन जहर थे:

जाति और सामाजिक न्याय: निचली जातियों पर उच्च जाति के अत्याचारों की कथा
आर्य द्रविड़: उत्तर भारतीय मध्य यूरोप से आए थे, दक्षिण भारतीय भारत के असली मूल निवासी थे
ब्राह्मणवादी पितृसत्ता: ब्राह्मण या आर्य, वे बुरे हैं, वे निचली जातियों को मंदिर में प्रवेश करने से रोकते हैं

इसका लाभ उठाकर अंग्रेज़ों ने 1925 में मद्रास धार्मिक और धर्मार्थ दान अधिनियम लाकर सभी धर्मों के सभी धार्मिक स्थलों को अपने अधिकार में ले लिया। जब मुस्लिम और ईसाई ने विरोध किया तो उन्होंने चर्च और मस्जिद को छोड़ दिया लेकिन मंदिर को नहीं छोड़ा। गांधी और नेहरू ने कभी इसका विरोध नहीं किया और हिंदू सोते रहे।

1947 में भारत को आजादी मिली और 1950 में हमें अपना संविधान मिला, जिसने हमें अनुच्छेद 26 दिया। इसका मतलब है कि सरकार किसी भी धर्म की धार्मिक प्रथा में हस्तक्षेप नहीं कर सकती और हिंदूओं ने अपना मंदिर वापस ले लिया। लेकिन कुटिल कांग्रेस नहीं रुकी, वे हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम 1951 लेकर आए।

क्या कहता है यह अधिनियम:

-राज्य कानून बना सकता है और मंदिरों पर कब्जा कर सकता है (मस्जिद और चर्च नहीं)
-वे किसी भी धर्म के किसी भी प्रशासक को मंदिर का अध्यक्ष या प्रबंधक नियुक्त कर सकते हैं
-वे मंदिर के पैसे ले सकते हैं और किसी भी उद्देश्य के लिए इसका इस्तेमाल कर सकते हैं
-वे मंदिर की जमीन बेच सकते हैं और उस पैसे का किसी भी उद्देश्य से उपयोग कर सकते हैं
-वे मंदिर की परंपराओं में हस्तक्षेप कर सकते हैं

कांग्रेस शासित तमिलनाडु ने इस अधिनियम का इस्तेमाल किया और अपना धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम 1959 लाया और राज्य के सभी 35,000 मंदिरों को अपने कब्जे में ले लिया। उसके बाद आंध्र प्रदेश, राजस्थान और कई और राज्यों ने इस तरह के अधिनियम लाए और राज्य के मंदिरों पर अधिकार कर लिया। आज 15 राज्यों ने भारत में लगभग 4 लाख मंदिरों पर कब्जा कर लिया है (भारत में 9 लाख मंदिर हैं)।

जब आप मंदिर जाते हैं और दान पेटी में पैसे देते हैं तो 11, 21, 51,101 रुपये कहां जाते हैं? सरकार की जेब में जाता है। हर साल लगभग 1 लाख करोड़ रुपये का हिंदू धन जो हम धर्म के लिए मंदिर में देते हैं, वह सरकार की जेब में जाता है और सरकार इसका इस्तेमाल करती है। सरकार इस पैसे का उपयोग मदरसा, चर्च और अन्य कार्यों के लिए करती है। लगभग 10-15% पैसा हिंदू धर्म के लिए इस्तेमाल किया जाता है जबकि बाकी अन्य कामों में जाता है।

कर्नाटक सरकार को एक साल में मंदिर से 79 करोड़ रुपये मिले। उन्होंने मंदिर पर 7 करोड़ रुपये, मस्जिद पर 59 करोड़ रुपये और चर्च पर 5 करोड़ रुपये खर्च किए। आंध्र सरकार को तिरुपति मंदिर से हर साल 3100 करोड़ रुपये मिलते हैं। उस पैसे का 18% मंदिर पर खर्च होता है और बाकी चर्च पर खर्च किए जाते हैं। इसके साथ ही इस पैसे का दुरुपयोग धर्मांतरण के लिए किया जाता है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन रेड्डी, जो कि स्वयं ईसाई हैं, ने अपने चाचा को तिरुपति बोर्ड का अध्यक्ष नियुक्त किया है। उसने 10 मंदिरों को नष्ट कर दिया और उस जमीन को गोल्फ कोर्स के रूप में इस्तेमाल किया। चर्च भारत में हजारों स्कूल चलाता है लेकिन मंदिर कोई स्कूल नहीं चला सकता क्योंकि मंदिर का पैसा मंदिरों में नहीं है।

मंदिर अब सभ्यता के केंद्र नहीं रह गए जैसा कि वे 1925 से पहले थे। चूंकि सरकार ने उन्हें केवल पूजा स्थल के रूप में सीमित कर दिया, इसलिए हिंदू सभ्यता का विकास रुक गया। हमारे पूर्वजों ने इन मंदिरों में बहुत सारा खजाना रखा हुआ था, उन्होंने सोचा कि यह पैसा संकट में हमारी मदद करेगा लेकिन अब तक उसकी लूट ही होती रही है। पुरी मंदिर के रत्न भंडार का क्या हुआ? हमारे मंदिरों से प्राचीन मूर्तियों की तस्करी की गई और उनकी जगह दूसरी प्रति लगाई गई। शायद यही कारण था कि कांग्रेस ने मंदिरों पर ही अधिकार कर लिया।

इस धर्मनिरपेक्ष लूट में चारों स्तम्भ एक साथ हैं। विधायिका ने बनाया असंवैधानिक कानून और लूटा मंदिर, न्यायपालिका जो संविधान की रक्षक है उसे मूर्खतापूर्ण तर्क देकर इसे होने दिया गया, मीडिया ने आंखें मूंद लीं और हमें इस मंदिर की लूट के बारे में कभी नहीं बताया और कार्यपालिका ने इस लूट को अंजाम दिया। हमारा संविधान धर्मनिरपेक्ष है इसलिए सरकार के स्वामित्व वाली कोई भी चीज अपने आप धर्मनिरपेक्ष हो जाती है, इसलिए सरकार मंदिर पर अधिकार कर लेती है। यह अब कोई धार्मिक स्थान नहीं है और यह धर्मनिरपेक्ष स्थान बन जाता है और सर्वोच्च न्यायालय इसमें हस्तक्षेप कर सकता है, सबरीमाला इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।

भारत में चर्च और मस्जिद स्वतंत्र हैं। वे सरकार को कोई पैसा नहीं देते हैं बल्कि उन्हें सरकार से पैसा मिलता है। कई सरकारें मौलवी को वेतन देती हैं वहीं दूसरी तरफ मंदिर के पुजारी को वेतन देना तो दूर वे हिंदू मंदिर से हर साल 1 लाख करोड़ रुपये लेते हैं और उन्हें कुछ भी नहीं देते हैं।
यह तालिका देखें-

1947 के बाद भारत में जिन अत्याचारों का सामना हिंदू कर रहे हैं, उन्हें औरंगजेब के समय भी इसका सामना नहीं करना पड़ा और उन्हें इसकी जानकारी भी नहीं है। जल्द ही वे सभी मंदिरों को नष्ट कर देंगे जैसा कि तमिलनाडु एवं आंध्र प्रदेश में हो रहा है। वे मुस्लिम को पुजारी के रूप में नियुक्त करेंगे, वे परंपरा को बदल देंगे।

कुछ धर्म निरपेक्ष लोग तर्क देते हैं कि अगर मंदिर को आजादी मिल गई तो ट्रस्ट मंदिर का प्रबंधन नहीं कर पाएगा और भ्रष्टाचार होगा। हमें यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे संप्रदाय 10 हजार साल तक मंदिरों का प्रबंधन किया है और यह 1925 तक किया गया। और वे कम से कम इन IAS अधिकारियों एवं राजनीतिक नेताओं की तुलना में कम भ्रष्ट होंगे।
मंदिर चले गए, हिंदू सभ्यता चली गई। हमारे राजाओं ने मंदिर को नियंत्रित किया लेकिन मंदिर से कभी पैसा नहीं लिया लेकिन इन धर्मनिरपेक्ष नेताओं ने…। इससे पहले कि बहुत देर हो जाए इस पर रोक लगनी चाहिए। यह पक्षपात सिर्फ हिन्दुओं के साथ ही क्यों?

ये अधिनियम नहीं हैं, ये कांग्रेस सरकार द्वारा उपहार में दी गई हिंदू संस्कृति को खत्म करने के लिए अभिशाप हैं।
1) वक्फ बोर्ड अधिनियम 1995
2) पूजा स्थल अधिनियम 1991
3) अल्पसंख्यक अधिनियम 1992
4)अनुच्छेद 28 और 30
5) सच्चर समिति 2005
6) हलाल प्रमाणन
7) हिंदू धर्मार्थ और धार्मिक अधिनियम

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