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तलवार की धार पर बिहार: महागठबंधन की अग्निपरीक्षा, तेजस्वी यादव राह के सात सियासी रोड़ों से पहले चरण में फिसले

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बिहार की राजनीति का रंगमंच 2025 के विधानसभा चुनावों के लिए तैयार है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) टिकटों की घोषणा करने के मामले में बाजी मार ले गया है। पीएम मोदी के दिशा-निर्देशन में राज्य की सारी सीटों पर सहमति हो गई है। पहले चरण का मतदान 6 नवंबर को होगा और इसके लिए नामांकन दाखिल करने की अंतिम तिथि 17 नवंबर यानी एक दिन बाद ही है। इसके बावजूद महागठबंधन अभी सीटों का विवाद ही नहीं सुलझा पाया है। उसके सहयोगी दल अपनी ढपली, अपना राग अलाप रहे हैं। हालात यह हैं कि महागठबंधन में सीट शेयरिंग अभी तक नहीं हो पाई है। लेकिन सहयोगी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ने इससे पहले ही अपने कुछ प्रत्याशियों का एलान करके कांग्रेस को भड़का दिया है। उधर 65 सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए हाथ-पैर मार रही कांग्रेस में अभी टिकट बंटवारा हुआ नहीं और टिकटार्थियों की नाराजगी दिखने लगी है। दिल्ली में केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक के बाद टिकट दावेदारों ने जमकर नारेबाजी भी की। कांग्रेस को यह डर भी सता रहा है कि टिकटों की घोषणा के बाद सबसे ज्यादा बगावत उसी की पार्टी में होने वाली है। हालांकि यह भी सच है कि कांग्रेस से ज्यादा रोड़े तेजस्वी यादव की सियासी राहों में बिछ गए हैं। उनकी चुनौतियों पर नजर डालें तो यह उनके लिए सबसे ज्यादा जटिलताओं वाला चुनाव है।

बिहार में महागठबंधन में सीट शेयरिंग में महा-घमासान
बिहार में महागठबंधन में सीट बंटवारे को लेकर स्थिति जटिल है। खबरों के अनुसार, महागठबंधन के अंदर अभी तक सीट शेयरिंग फॉर्मूला को लेकर पूरी सहमति नहीं बन पाई है। आरजेडी और कांग्रेस के बीच सीटों को लेकर कड़ा टकराव चल रहा है, जहां कांग्रेस 65 से ज्यादा सीटों की मांग पर अड़ी हुई है, जबकि आरजेडी कांग्रेस के लिए 55 सीटों की सीमा तय करना चाहती है। इस वजह से सीट बंटवारे पर अभी अंतिम फैसला नहीं हो पाया है और गठबंधन के दल तितर-बितर नजर आ रहे हैं। हालांकि बैठकों के बाद कुछ फॉर्मूला तय होने की खबरें भी आई हैं, लेकिन औपचारिक घोषणा अभी बाकी है। इस असमंजस के कारण चुनाव प्रक्रिया में भी कुछ अस्थिरता बनी हुई है, खासकर नामांकन की अंतिम तिथि एक दिन बाद ही है।

कत्ल की रात में भी सहमति ना बनी तो बंटाधार तय
इस टकराव के पीछे कांग्रेस की ओर से दलित-मुस्लिम समीकरण वाली सीटों की मांग और सीमांचल क्षेत्र की अधिक सीटें अपेक्षित होना है, जबकि आरजेडी इसे लेकर रजामंद नहीं है। इसके अलावा मुकेश सहनी के वीआईपी पार्टी की सीटों की मांग भी मुद्दा बनी है। इस तरह सीट बंटवारे का मामला महागठबंधन में अभी भी सुलझा नहीं है और यह चुनाव के समय तक एक प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है। संक्षेप में, बिहार में महागठबंधन में सीट बंटवारा हुआ नहीं है, बल्कि अभी तक उस पर विवाद और असमंजस बना हुआ है। आज कत्ल की रात है, यदि सीट शेयरिंग पर सहमति नहीं बनी तो महागठबंधन ऐन मौके पर टूट सकता है। मुकेश सहनी तो अलग चुनाव लड़ने के संकेत भी दे चुके हैं।

आइए, तेजस्वी यादव के लिए उन चुनौतियों पर नज़र डालें, जिनमें से प्रत्येक अपनी जटिलताओं के चलते से महागठबंधन के लिए मुश्किल का सबब बना है…

1.पीके का चुनावी समर में आना तेजस्वी के लिए बुरे सपने जैसा
जन सुराज पार्टी के नेता प्रशांत किशोर का चुनावी समर में उतरना तेजस्वी के लिए बुरे सपने जैसा है। तेजस्वी यादव राघोपुर से दो बार (2015 और 2020) जीत चुके हैं। भाजपा के सतीश कुमार (जो एक यादव उम्मीदवार भी हैं और जिन्होंने पहले तेजस्वी की मां राबड़ी देवी को हराया था) पर उनकी जीत का अंतर 38,174 वोटों का था। अब किशोर का आना एक अचानक आए तूफान जैसा है, जो एक समुद्र की शांति को भंग करने की धमकी दे रहा है। रणनीतिक कौशल के लिए प्रसिद्ध पीके भले ही खुद की पार्टी को जिता ना पाएं, लेकिन तेजस्वी का खेल तो बिगाड़ ही सकते हैं। इसका उत्तर मतदाताओं की बदलती निष्ठाओं में निहित हो सकता है, जो बदलाव के आकर्षण से प्रभावित हो सकते हैं।

2.कांग्रेस ने 4000 आवेदन मांगे, अब भारी विरोध से मुश्किल
टिकट बंटवारा हुआ नहीं और टिकटार्थियों की नाराजगी दिखने लगी है। कांग्रेस को भी यह डर सता रहा है। दिल्ली में केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक के बाद टिकट दावेदारों ने जमकर नारेबाजी भी की। इस कारण सदाकत आश्रम में हमेशा दिखने वाले नेताजी अब गायब रहने लगे हैं। दरअसल, इस बार पार्टी ने सभी विधानसभा क्षेत्रों से आवेदन मंगाए थे। इस कारण दावेदारों की संख्या चार हजार से ज्यादा हो गई। चुनावी साल में संगठन के अभाव में इन दावेदारों के सहारे ही पार्टी ने कार्यक्रमों और अभियान को सफल बनाया। कांग्रेस इन्हें आश्वस्त करती रही कि कार्यक्रमों में मेहनत के अनुसार ही टिकट मिलेगा। इन्हें रोज नए-नए टास्क सौंपे गए। रोजाना इन दावेदारों से फीडबैक भी लिया गया। माई बहिन मान योजना, हर घर झंडा कार्यक्रम सहित अन्य कार्यक्रमों के फार्म भरवाने में इनका सहयोग लिया। राहुल की वोटर अधिकार यात्रा में बढ़चढ़कर हिस्सेदारी की। टिकट की आस में दिन-रात एक कर मेहनत करने वाले कई नेता अब पार्टी से सिंबल चाह रहे हैं। नई दिल्ली में दावेदारों ने वहां डेरा जमा लिया है। केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक के दौरान कांग्रेस मुख्यालय के बाहर कार्यकर्ताओं ने नारेबाजी भी की। कार्यकर्ता हाल ही में पार्टी में शामिल हुए नेताओं को तवज्जो देने से भी नाराज हैं।

3.ओवैसी की एमआईएम मुस्लिम वोट बैंक में सैंध लगाएगी
इसके बाद, असदुद्दीन ओवैसी की मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (MIM) द्वारा बिहार में कई उम्मीदवार उतारने की तैयारी में लगे अशांत जल पर नजर डालते हैं। हालांकि एमआईएम की चुनावी सफलता संदिग्ध हो सकती है (2020 में एमआईएम ने मुस्लिम बहुल सीमांचल क्षेत्र में 5 सीटें जीती थीं), मगर मुस्लिम वोटों को हथियाने की उसकी क्षमता महागठबंधन के लिए एक बड़ा खतरा है। दरअसल, तेजस्वी का आधार मुस्लिम-यादव (एम-वाई) गठबंधन से मजबूत है, फिर भी इस समर्थन की नींव प्रतिस्पर्धी उम्मीदवारों के भार तले टूटने का ख़तरा है। यह एक नाज़ुक दौर है, जो सांप्रदायिक राजनीति की भट्टी में बने गठबंधनों का भाग्य तय कर सकता है।

4. तेजप्रताप से लेकर रोहिणी आचार्य तक पारिवारिक प्रतिद्वंद्विता
तेजस्वी यादव के अपने परिवार में ही कई दरारें सामने दिखाई दे रही हैं। उनके बड़े भाई तेज प्रताप यादव और बहन रोहिणी आचार्य संभावित विध्वंसक के रूप में उभरकर सामने आ गए हैं। उनकी महत्वाकांक्षाएं और आक्रोश सतह के नीचे ही उबल रहे हैं। पारिवारिक बंधन, जो अक्सर ताकत का स्रोत होता है, यहां एक संभावित दरार में बदल गया है। ऐसे राजनीतिक परिदृश्य में जहां धारणाएं वास्तविकता जितनी ही महत्वपूर्ण हैं, यादव परिवार के भीतर असंतोष आरजेडी के लिए हानिकारक साबित हो सकता है। इससे तेजस्वी यादव के नेतृत्व पर भी सवालिया निशान लगते हैं। तेजस्वी की बड़ी बहन, डॉ. मीसा भारती (जिनके पास पेशेवर चिकित्सा की डिग्री है), पाटलिपुत्र से सांसद हैं और उन्होंने आखिरी बार 2024 में जीत हासिल की थी। वह बहुत महत्वाकांक्षी भी हैं और भविष्य में अपने छोटे भाई तेजस्वी यादव के लिए चुनौती बन सकती हैं।

5.सीएम फेस ना बनाकर कांग्रेस ने तेजस्वी को डुबोया
महागठबंधन के मामले को और भी जटिल बनाने में राहुल गांधी और कांग्रेस अहम भूमिका निभार रहे हैं। कांग्रेस पार्टी का रुख, जो एक सहयोगी दल होते हुए भी तेजस्वी को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में समर्थन देने में साफ हिचकिचा रही है। यह अनिर्णय महागठबंधन के भीतर भी गूंज रहा है और समर्थकों के बीच अनिश्चितता के बीज बो रहा है। एकता पर निर्भर गठबंधन में, सीएम कैंडिडेट का अभाव तेजस्वी की सफल अभियान के लिए आवश्यक विविध मतदाता आधार को एकजुट करने की क्षमता को जरूर बाधित करेगा। कांग्रेस की इस चुप्पी को न केवल एक रणनीतिक विकल्प के रूप में, बल्कि विश्वास की कमी के रूप में भी देखा जा सकता है, जो तेजस्वी की विश्वसनीयता को कम कर सकता है।

6. सीट शेयरिंग में देरी ने पहले चरण का पासा पलटा
बिहार में पहले चरण के लिए नामांकन की कल अंतिम तिथि है, लेकिन अभी तक महागठबंधन में सीट शेयरिंग नहीं हो पाई। जाहिर है इससे चुनाव में इसके सहयोगी दलों को नुकसान होगा। सौदेबाजी की मेज पर जहां वामपंथी दल (विशेषकर दीपांकर भट्टाचार्य के नेतृत्व वाली भाकपा-माले, झामुमो और वीआईपी पार्टी के नेता मुकेश सहनी) जैसे सहयोगी दल सीटों के बंटवारे के लिए नाजुक बातचीत में लगे हुए हैं। प्रत्येक दल अपनी आवाज बुलंद करना चाहता है, फिर भी यह शोर चुनावी सफलता के लिए आवश्यक एकमात्र संदेश को दबा सकता है। वे जितना अधिक अपनी स्थिति के लिए संघर्ष करते हैं, गठबंधन उतना ही अधिक बिखरता जा रहा है। जिससे तेजस्वी का अभियान उन्हीं सहयोगियों के कारण कमजोर पड़ रहा है, जो इसे मजबूती देने वाले थे।

7. लालू की विरासत एम-वाई फैक्टर अब बोझ
चुनौतियों के इस चक्रव्यूह में, सबसे गहरा शायद एम-वाई फैक्टर ही है। मुस्लिम-यादव गठबंधन लंबे समय से तेजस्वी की राजनीतिक पहचान का आधार रहा है, फिर भी यह उन्हें उनके पिता द्वारा निर्धारित सीमाओं में ही सीमित रखता है। इस विरासत को आगे बढ़ाने और व्यापक मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए, तेजस्वी यादव परंपरा और नवीनता के नाजुक अंतर्संबंध को समझ ही नहीं पा रहे हैं। इसलिए उनकी जीत का मार्ग बाधाओं से भरा है। बाहरी और आंतरिक दोनों ओर से तेजस्वी और महागठबंधन के सहयोगियों का आगे का सफल मुश्किलों से भरा है। तेजस्वी यादव एक ऐसे चौराहे पर खड़े हैं, जहां उनके सियासी भविष्य की गूंज अनिश्चितताओं से भरी है।

 

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