बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के नतीजों ने एक बार फिर अपना साफ संदेश दिया है। जनता अब सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप और नेगेटिव राजनीति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। महागठबंधन की हार, खासकर कांग्रेस के कमजोर प्रदर्शन को सीधे तौर पर राहुल गांधी के प्रचार अभियान से जोड़ा जा रहा है। राहुल गांधी का अभियान ज्यादातर ‘वोट चोरी’, संवैधानिक संस्थाओं पर अविश्वास और सांस्कृतिक विवाद पर आधारित था। जबकि बिहार के आम मतदाता के लिए असली मुद्दे विकास, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और पलायन जैसे रोजमर्रा के सवाल थे। वोट के जरिए अपना फैसला सुना मतदाताओं ने साफ संदेश दिया है- हमें आरोप नहीं, समाधान चाहिए; हमें राजनीति नहीं, प्रगति चाहिए।

इस चुनाव में राहुल गांधी की नकारात्मक राजनीति के कारण कांग्रेस का सफाया हो गया है। पार्टी सिर्फ एक सीट पर आगे चल रही है। यह बिहार के चुनावी इतिहास में कांग्रेस का अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन है। आइए जानते हैं राहुल गांधी की रणनीति की विफलता के 10 बड़े कारण-
1. नेगेटिव राजनीति की विफलता
राहुल गांधी का चुनाव प्रचार ज्यादातर आरोपों और राष्ट्रीय मुद्दों पर केंद्रित था। वोट चोरी, एसआईआर और संवैधानिक संस्थाओं पर सवाल उनकी प्राथमिकता बन गई। लेकिन बिहार के ग्रामीण और युवा मतदाता रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा और पलायन जैसी जमीनी समस्याओं की बात करना चाहते थे। नेगेटिव नैरेटिव ने उन्हें जोड़ने की बजाय दूर कर दिया।

2. संवैधानिक संस्थाओं पर लगातार आरोप
वोट चोरी यात्रा और चुनाव आयोग पर आरोपों का जनता पर उल्टा असर पड़ा। बिना ठोस सबूत के बार-बार आरोप लगाना मतदाताओं को लोकतंत्र में उनकी गंभीरता पर शक करने पर मजबूर कर दिया। लोग यह सोचने लगे कि राहुल गांधी के लिए आरोप लगाने का खेल चुनावी हथियार बन गया है, न कि समाधान का माध्यम।

3. सांस्कृतिक संवेदनशीलता की कमी
बिहार और पूर्वांचल के सबसे बड़े महापर्व छठ को ‘ड्रामा’ कहना सीधे तौर पर लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाता है। विशेषकर महिला मतदाता और धार्मिक भावना वाले लोग इससे नाराज हुए। इसका सीधा नतीजा वोटों के नुकसान के रूप में दिखा।

4. राष्ट्रीय सुरक्षा पर विरोधाभासी रुख
ऑपरेशन सिंदूर जैसी संवेदनशील सुरक्षा पहल पर सवाल उठाना और घुसपैठ पर नरम रुख दिखाना मतदाताओं को रास नहीं आया। लोग चाहते हैं कि विपक्ष देश की सुरक्षा को हल्के में न ले, और इसे लेकर राहुल गांधी की छवि उलझी हुई दिखी।

5. पार्ट-टाइम राजनीति वाली छवि
राहुल गांधी की कार्यशैली को पार्ट-टाइम पॉलिटिक्स वाली छवि के रूप में देखा जाता है। चुनाव से पहले सक्रियता कम और चुनाव के दौरान सीमित रैलियां मतदाताओं में संदेह पैदा करती हैं। लोग देखते हैं कि जब पार्टी को उनकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है, वह पूरी तरह सक्रिय नहीं होते। इस छवि ने उनके व्यक्तिगत नेतृत्व पर सवाल खड़े कर दिए।

6. कांग्रेस की कमजोर जमीनी पकड़
बिहार में कांग्रेस का बूथ और कार्यकर्ता नेटवर्क बहुत कमजोर है। संगठन कमजोर होने के बावजूद सीटों का अधिक दावा करना और कामयाब उम्मीदवारों की बजाय कमजोर उम्मीदवारों को आगे करना वोट बैंक को जोड़ने में नाकाम रहा।

7. टिकट बंटवारे में गलतियां
नाव प्रक्रिया शुरू होने के बाद टिकट बंटवारे को लेकर पार्टी में असंतोष देखने को मिला। कई जगह जनाधार वाले नेताओं को छोड़कर कमजोर उम्मीदवारों को टिकट दिया गया। इससे पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटा और मतदान में इसका असर पड़ा।

8. आंतरिक कलह और गुटबाजी
प्रदेश कांग्रेस इकाई में अंदरूनी झगड़े रहे। बूथ स्तर पर संगठन की कमी से पार्टी जनता तक अपना संदेश पहुंचाने में नाकाम रही। पार्टी जमीन पर अपनी पकड़ बनाने में विफल रही।

9. ‘जंगलराज’ का डर
महागठबंधन में लालू यादव की पार्टी के साथ गठबंधन से लोगों को जंगलराज लौटने का डर लगा। राहुल गांधी इस डर को दूर करने में नाकाम रहे। मतदाता ने नीतीश कुमार के एनडीए के अनुभवी नेतृत्व को ही सुरक्षित विकल्प माना।

10. मोदी फैक्टर का प्रभाव
प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता, केंद्र की कल्याणकारी योजनाओं और स्थिर नेतृत्व ने मतदाताओं को महागठबंधन के आरोपों से दूर कर दिया। लोगों ने ‘डबल इंजन’ वाली सरकार में भरोसा जताया और विकास को प्राथमिकता दी।

बिहार के मतदाता साफ संदेश दे चुके हैं कि नकारात्मक राजनीति, आरोप-प्रत्यारोप और संवेदनशील मुद्दों पर विवाद अब काम नहीं करता। कांग्रेस को अपनी राजनीतिक शैली बदलने, संगठन मजबूत करने और जनता के वास्तविक मुद्दों पर फोकस करने की जरूरत है।









