Home विचार लोकतंत्र की दुहाई देकर सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा भूल रहे मी लॉर्ड!

लोकतंत्र की दुहाई देकर सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा भूल रहे मी लॉर्ड!

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लोकतंत्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और सबसे मजबूत स्तंभ न्यायपालिका है। हालांकि बीते छह दशकों के दौरान कई मामलों में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता, दोनों ही संदेह के घेरे में रही है।

दरअसल आजादी के बाद से ही न्यायपालिका में सरकार की दखल सामने आती रही है।

1951 में जवाहर लाल नेहरू के समय में वरिष्ठतम न्यायाधीश पतंजलि शास्त्री के चीफ जस्टिस बनने में रोड़े अटकाने का प्रयास किया गया था। वहीं 1954 में वरिष्ठतम जस्टिस मेहर चंद महाजन की जगह बिजन कुमार मुखर्जी को मुख्य न्यायाधीश बनाने का अनैतिक प्रयास किया गया था। तब यह प्रयास न्यायाधीशों की एकजुटता के कारण विफल रहा था।

1976 में इंदिरा गांधी द्वारा देश पर आपातकाल थोपने के बाद नागरिकों के मौलिक अधिकार खत्म कर दिए गए थे। ये भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का एक काला उदाहरण इसलिए है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश में सरकार का दबाव दिख रहा था।

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश को अब पलट दिया है और 2017 में ये निर्णय किया है कि किसी भी परिस्थिति में मौलिक अधिकारों को नागरिकों से नहीं छीना जा सकता।

राजीव गांधी के समय में जजों के तबादले के लिए कॉलेजियम बनाने के आदेश दिए गए थे। इसके साथ ही जिस तरह से शाहबानो प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय को ‘नीचा’ दिखाने का निर्णय किया गया ये सभी जानते हैं।

दरअसल ये बात लगातार साबित होती रही है कि कांग्रेस सरकारों ने न्यायालय को अपने मन मुताबिक चलाया है और उसका इस्तेमाल भी किया है।

एक बार फिर अलार्मिंग सिचुएशन सामने नजर आ रही है। हालांकि इस बार अलग तरह का दृश्य हैै। इसमें राजनेताओं, मीडिया और न्यायाधीशों की दोस्ती का नया ‘नेक्सस’ उभरकर सामने आया है।

बीते छह महीने के दौरान ही कई न्यायाधीशों ने सुप्रीम कोर्ट की अंदरुनी राजनीति को जिस तरह सतह पर लाया गया है, वह बेहद चिंतनीय है। उससे भी दुखद ये कि विरोधी दलों ने इसे राजनीति से जोड़ दिया है।

जिस तरह से इन न्यायाधीशों का व्यवहार निकलकर सामने आया है इससे लगता है कि ये पार्टी विशेष के राजनेताओं के हाथों के खिलौने हों और उन्हीं के निर्देशों का अनुसरण कर रहे हों।

जाहिर है अगर देश के न्यायाधीशों के प्रति ऐसी धारणा लोगों में बन गई तो यह बेहद खतरनाक साबित होने वाला है।

खतरनाक है राजनेताओं, मीडिया और न्यायाधीशों की दोस्ती
12 जनवरी, 2018 को जब सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीश- जस्टिस चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस कुरियन जोसेफ और जस्टिस मदन लोकुर प्रेस के सामने आए, वह अपने आप में अभूतपूर्व घटना थी। ऐसा लगने लगा कि वास्तव में न्यायपालिका पर केंद्र सरकार दबाव बना रही है और उनके फैसलों में दखल देने की कोशिश कर रही है।

इन चारों न्यायाधीशों ने जो मुद्दे उठाए वह वास्तविक हो सकते हैं, लेकिन इनके तौर-तरीकों से ये सवाल जरूर खड़े होने लगे हैं कि क्या ये लुटियन्स के पत्रकारों के कहने पर चल रहे हैं? इनके माउथ पीस करण थापर जैसे पत्रकार कैसे हो सकते हैं, जिनके सोनियां गांधी और कांग्रेस नेताओं से गहरे ताल्लुकात जगजाहिर रहे हैं?

इन चारों जजों के प्रेस कांफ्रेंस के आयोजक अगर 10 जनपथ से ताल्लुक रखने वाले पत्रकार शेखर गुप्ता थे, तो क्या ऐसा नहीं लगता कि ऐसे ही पत्रकार अब एजेंडा सेट कर रहे हैं? क्या ऐसा नहीं लगता है कि इसके पीछे कहीं न कहीं कांग्रेस की मिलीभगत है?

जस्टिस चेलमेश्वर-जस्टिस कुरियन के उठाए सवालों से ही खड़े हो रहे कई सवाल
जस्टिस चेलमेश्वर और जस्टिस कुरियन जोसेफ कह रहे हैं- ‘‘सरकार और न्यायपालिका के बीच जरूरत से अधिक मित्रता लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। इतिहास हमेें माफ नहीं करेगा।”

दोनों न्यायाधीशों की बातों में सच्चाई हो भी सकती है, और नहीं भी। परन्तु क्या ये सही नहीं है कि कम्युनिस्ट पार्टी के नेता डी राजा से जस्टिस चेलमेश्वर के अच्छे ताल्लुकात हैं?

क्या ये सच नहीं है कि जब ये चारों जज प्रेस कांफ्रेंस करने आए थे तो उनसे पहले प्रशांत भूषण और लुटियंस के कई कांग्रेस परस्त पत्रकारों को इस बात की खबर पहले से थी?

ध्यान देने की बात ये है कि सवाल उठाने वाले इन न्यायाधीशों का करियर लगभग तीन दशक का रहा है, तो क्या इन्हें इससे पहले किसी भी तरह से अहसास नहीं हुआ कि राजनेताओं और पत्रकारों से दोस्ती अच्छी नहीं है?

जस्टिस चेलमेश्वर का खुलकर विचार व्यक्त करना कितना सही?
लुटियन दिल्ली के हार्वर्ड क्लब ऑफ इंडिया में लुटियन पत्रकार करण थापर को न्यायाधीश चेलमेश्वर ने साक्षात्कार देने से पहले जरा भी नहीं सोचा कि वह सुप्रीम कोर्ट की गरिमा से खिलवाड़ करने जा रहे हैं।

जस्टिस चेलमेश्वर और जस्टिस कुरियन ने कहा कि वे रिटायरमेंट के बाद किसी भी तरह का सरकारी पद नहीं लेंगे। क्या ऐसा नहीं लगता है कि वे खुद को निष्पक्ष दिखाने के चक्कर में ऐसे न्यायाधीशों की निष्पक्षता पर संदेह पैदा कर रहे हैं, जिन्होंने रिटायरमेंट के बाद भी सेवा दी है?

दरअसल 26 जनवरी 1950 को सुप्रीम कोर्ट के अस्तित्व में आने से लेकर अब तक चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के पद पर रहे न्यायधीशों में से 44 ऐसे हैं, जिन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी या गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से ऑफर किए गए पद को स्वीकार किया। क्या इन माननीय न्याधीशों को यह मुद्दा 10 साल के यूपीए सरकार के कार्यकाल में नहीं उठाना चाहिए था?

सुप्रीम कोर्ट के जजों में 161 जज ऐसे हैं, जिन्होंने रिटायरमेंट के बाद सरकारी या गैर सरकारी संस्थानों में पद लिया है। 12 फरवरी 2016 तक सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने वाले 100 जजों में से 70 जजों ने रिटायरमेंट के बाद पद लिया, तो क्या ये सभी निष्पक्ष या न्यायप्रिय नहीं थे?

एजेंडा के तहत सुप्रीम कोर्ट को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश !
जिस मुखरता के साथ जस्टिस चेलमेश्वर और जस्टिस कुरियन प्रेस के सामने आ रहे हैं और अपनी खीझ जाहिर कर रहे हैं इससे यह पूरा प्रकरण ही संदेहास्पद है। दरअसल ऐसी भी खबरें हैं कि इन्हीं जजों में से एक ने यह तक कहा है कि ‘भविष्य में जस्टिस रंजन गोगोई यदि मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाए गए तो समझ लेना कि सारे शक सही हैं।’

शक!… ऐसा लगता है कि उनका इशारा ये है कि मोदी सरकार और वर्तमान मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के बीच सांठ-गांठ है? बहरहाल सरकार और जस्टिस दीपक मिश्रा के बीच सांठ-गांठ है कि नहीं ये तो पता नहीं, परन्तु इन दोनों की बेचैनी जरूर जाहिर हो रही है।

दरअसल मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा की कोर्ट राम मंदिर पर सुनवाई कर रही है? और जिसे रोकने के प्रयास में कांग्रेस पार्टी ने अपने सांसद वकील कपिल सिब्बल को लगा रखा है? कपिल सिब्बल ने तो सुप्रीम कोर्ट में साफ कहा था कि राम मंदिर की सुनवाई 2019 के चुनाव के बाद की जाए! हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उनकी ये बात नहीं मानी थी।

क्या कांग्रेस के हाथों का खिलौना बन गए हैं सुप्रीम कोर्ट के कुछ न्यायाधीश?
दिल्ली के कई बड़े राजनेताओं-पत्रकारों के बारे में तो कई खुलासे पहले भी हो चुके हैं कि वे सत्ता, जमीन और हथियार दलाली तक में शामिल रहे हैं। जबकि ये पहली बार है जब इन पत्रकारों और राजनेताओं की पहुंच सीधे न्यायाधीश के घर और उनके चैंबर तक सामने आ रही है।

जाहिर है इन चारों ही माननीय न्यायाधीशों से ये सवाल तो जरूर बनता है कि शेखर गुप्ता, करण थापर, डी राजा और 10 जनपथ तक पहुंच रखने वाले राजनेताओं की पहुंच इन माननीयों तक कैसे संभव हो पाई है?

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