देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के व्यक्तित्व के बारे में आम धारणा है कि वह खुले विचारों वाले, आधुनिक और लोकतांत्रिक व्यक्ति थे। पर यह सच्चाई नहीं है, इतिहास में कुछ ऐसी घटनाएं भी दर्ज हैं, जो बताती हैं कि उन्होंने अपनी सोच को सही स्थापित करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने से भी परहेज नहीं किया। नेहरू, अपनी पसंद या नापसंद के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के साथ उनके संबंधों की कुछ घटनाएं बताती हैं कि सभी एक साथ देश के लिए काम तो करते थे, लेकिन मत भिन्नता के कारण नेहरू उन्हें पसंद नहीं करते थे। आइए, उन्हीं रिश्तों की कुछ परतों को हटाकर सच्चाई पर नजर डालते हैं।
नेहरू और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के रिश्तों की पड़ताल
देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद के साथ प्रधानमंत्री नेहरू के कैसे संबध थे, इस बात का पता उन पत्रों से चलता है, जिनका पत्राचार जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल और डॉ राजेन्द्र प्रसाद के बीच हुआ। देश के पहले राष्ट्रपति के चुनाव के समय नेहरू ने डॉ राजेन्द्र प्रसाद को एक पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने लिखा कि राजा जी (राजगोपालाचारी) को देश का राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए, यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो राजा जी के साथ नाइंसाफी होगी। आगे, पत्र में यह भी लिखा कि सरदार पटेल भी इस बात से सहमत हैं। इस पत्र में नेहरू ने तमाम तर्क और भावनाओं को सामने रखने की कोशिश की। डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने इस पत्र के जवाब में नेहरू के तमाम तर्कों और भावनाओं का एक-एक कर जवाब दिया और कहा कि मेरे और राजाजी के बीच चुनाव का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। इन्हीं पत्रों की श्रृखंला में एक ऐसा भी पत्र हैं, जहां यह बात स्पष्ट होती है कि नेहरू ने डॉ राजेन्द्र प्रसाद पर दबाव बनाने के लिए यह झूठ बोला कि सरदार पटेल भी यह चाहते है कि राजा जी ही देश के राष्ट्रपति बनें।
इतना ही नहीं, Indian Law Institute की स्थापना के दिन 28 नवंबर 1960 को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा दिए गए ऐतिहासिक भाषण की छपी हुई प्रतियों को वितरित होने से भी प्रधानमंत्री नेहरू ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश बी के सिन्हा से कह कर रुकवा दिया था। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि राष्ट्रपति के भाषण के बारे में प्रधानमंत्री नेहरू को पहले से पता चल चुका था। इन बातों का खुलासा, के आर मलकानी की पुस्तक India First मे किया गया है।
नेहरू और सरदार पटेल के खट्टे-मीठे रिश्ते
देश के पहले गृह मंत्री सरदार पटेल के साथ प्रधानमंत्री नेहरू के रिश्तों को लेकर कई तरह की बातें लिखी गई हैं। यह बात सच है कि सरदार पटेल का कांग्रेस में नेहरू से कहीं ऊंचा कद था। सरदार पटेल की इस मजबूती और उनके काम करने के निर्णायक तरीकों से प्रधानमंत्री नेहरू अलग-थलग पड़ जाते थे। नेहरू और सरदार पटेल के रिश्तों की तस्वीर, सरदार पटेल की बेटी मणिबेन पटेल के साथ घटी घटना से सामने आती है। इसका जिक्र देश में दुग्ध क्रांति के जनक माने जाने वाले डॉ वर्गीज कुरियन ने अपनी पुस्तक -‘I too had a dream’ में किया है। डॉ कुरियन के साथ मणिबेन पटेल कैरा दुग्ध कोऑपारेटिव सोसाइटी में थीं। काम के सिलसिले में मुलाकातों के दौर में मणिबेन पटेल ने कुरियन को बताया था कि सरदार पटेल की मौत के तुरंत बाद वह प्रधानमंत्री नेहरू से मिलने उनके घर, दिल्ली पहुंची। सरदार पटेल ने अंतिम समय में मणिबेन को 30 लाख रुपये और बहीखाते का एक रजिस्टर दिया था और हिदायत दी थी कि यह सीधे नेहरू के हाथों में देना। जब मणिबेन ने नेहरू से मुलाकात की और सारा सामान दे दिया, तो कुछ समय तक उनके पास इस आशा में बैठी रहीं कि नेहरू उनसे पूछेंगे कि अब वह कहां रहेगी या उनकी सहायता के लिए कोई बात करेंगे। कुछ समय तक ऐसी कोई बातचीत न होने पर, मणिबेन झुंझला करके वहां से उठकर चली आती हैं।
नेहरू और जनरल थिमैया के संबंध
1957 में भारतीय सेना के प्रमुख बनने वाले जनरल थिमैया के साथ प्रधानमंत्री नेहरू और रक्षामंत्री कृष्ण मेनन ने कैसा सलूक किया था, यह घटना इतिहास की किताबों में बंद है, जिस पर जनता के बीच चर्चा कम ही होती है। इस घटना का जिक्र शिवकुमार कुणाल ने अपनी पुस्तक-‘1962, The War that wasn’t’ में किया है। 358 पृष्ठों की इस किताब में भारत-चीन युद्ध की वास्तविक घटनाओं का वर्णन है। इस किताब के पृष्ठ 37 पर लिखा है कि 1959 में जब जनरल थिमैया को पता चला कि NEPA की पूरी जिम्मेदारी सेना के हवाले करने की बात प्रधानमंत्री नेहरू ने संसद में कही है, तो वह सीधे नेहरू से मिलने उनके कार्यालय में पहुंचे। नेहरू वहां जनरल थिमैया का इंतजार कर रहे थे। जनरल ने कहा कि प्रधानमंत्री जी जिस तरह से आपने NEPA को सेना को देना का निर्णय लिया है उससे चीन को मौका मिला जाएगा और पूरे क्षेत्र में स्थितियां उलझ जाएंगी, अभी तक तो चीन वहां पर अपनी सेना के नाम पर सिर्फ बॉर्डर गार्ड्स ही रखता है। जनरल थिमैया ने, नेहरू को जल्द से जल्द यह फैसला वापस लेने के लिए कहा। इसके बाद, नेहरू, कृष्ण मेनन को जनरल थिमैया के पास भेजते हैं, और रक्षामंत्री जनरल थिमैया को काफी बातें सुनाते हैं और कहते हैं कि आपकी प्रधानमंत्री से सीधे मिलने की हिम्मत कैसे हुई। इसके बाद नेहरू को थिमैया अपना इस्तीफा भेज देते है,जिसे वह स्वीकार नहीं करते हैं और 2 सिंतबर 1959 को जनरल थिमैया के इस्तीफे पर संसद में प्रधानमंत्री नेहरू बयान देते हैं कि कुछ भावनात्मक कारणों से जनरल ने इस्तीफा दिया है। जनरल थिमैया ने जिस बात के लिए नेहरू को आगाह किया था, वही बात 1962 में भारत-चीन युद्ध के रुप में सामने आई।