कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री और आरजेडी चीफ लालू यादव के बेटे तेजस्वी के साथ लंच किया। 17 नवंबर को तेजस्वी ने ट्वीट कर इस बात की जानकारी दी तो सोशल मीडिया पर कई तरह के कमेंट्स आए, एक कमेंट ऐसा भी है जो इस ‘लंच सेशन’ के लिए जिम्मेदार कारणों की पोल खोलता है। एक व्यक्ति ने कमेंट किया, ”ये दोनों ‘पक्के चोरों’ की संतान हैं, इसलिए चोरों का पोलराइजेशन हो रहा है।”
दरअसल राहुल गांधी और तेजस्वी यादव का मिलाप राजनीतिक समीकरण के तहत हुआ है और आने वाले भविष्य की राजनीतिक दिशा भी बता रहा है। ये कवायद असल में पूरे देश से हो रहे सफाये से कांग्रेस को बचाने की है। कांग्रेस के सामने स्थिति यह है कि वह बिना क्षेत्रीय क्षत्रपों के सहारे चुनावी मैदान में आने के काबिल नहीं रह गई है। आइये हम जानते हैं कि आखिर कांग्रेस किन-किन राज्यों में क्षत्रपों के सहारे चुनावी नैया पार लगाने की कवायद कर रही है।
बिहार में तेजस्वी यादव अच्छे हैं !
17 नवंबर को बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव और राहुल गांधी ने एक साथ लंच किया तो कयास लगने लगे कि 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस और आरजेडी एक ही राजनीतिक मंच साझा कर सकते हैं। जाहिर है कांग्रेस पार्टी अपने दम पर राजनीतिक लड़ाई लड़ने में अक्षम हो गई है, तभी तो क्षेत्रीय क्षत्रपों के आसरे 2019 के लोकसभा चुनाव में जीत का ख्वाब बुन रही है। बहरहाल तेजस्वी यादव ने राहुल गांधी के साथ लंच के बारे में लिखा, “शुक्रिया राहुल गांधी मुझे शानदार लंच पर बाहर ले जाने के लिए। खुद को बहुत ही महान महसूस कर रहा हूं। फिर से आपका शुक्रिया अपनी व्यस्त दिनचर्या में से समय निकालने के लिए।”
Thank you @OfficeOfRG for taking me out for wonderful lunch. Feel appreciated and grateful. Again thanks for taking out time out of ur tight schedule. pic.twitter.com/wqIg8Ss3xm
— Tejashwi Yadav (@yadavtejashwi) November 17, 2017
तेजस्वी यादव के साथ राहुल गांधी के लंच को लेकर उनकी समझ पर भी सवाल उठाने वालों की कोई कमी नहीं है। क्योंकि राहुल की इस हरकत से साफ हो गया है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष की उनकी दलील झूठी है और लोगों को सिर्फ धोखा देने के लिए है। दरअसल ये वही तेजस्वी यादव हैं जिनके नाम पर करोड़ों रुपये की बेनामी संपत्ति इकट्ठा करने के आरोप हैं। उन पर सीबीआई, इनकम टैक्स और ईडी जैसी तीन एजेंसियों की जांच चल रही है। हालांकि तेजस्वी के इस ट्वीट पर कई लोग तरह-तरह की प्रतिक्रिया देते हुए उनके साथ ही राहुल गांधी का भी जमकर मजाक उड़ा रहे हैं।
Breaking. Rahul gandhi is dating tejasvi yadav.
— Ghanta Ka Reporter (@GhantakReporter) November 17, 2017
लंच का पैसा किसने दिया, या यहां भी स्टाफ चला दिया?✔️
— Hukumdev Yadav? (@TruthIsBitter99) November 17, 2017
Are waah Bada Pappu aur Chota Pappu ka milan akhir kar ho hi gaya…..ab ye dono milke comedy world ka naam khub roshan karenge
— Manish kumar (@being_manish_kg) November 17, 2017
गुजरात में हार्दिक, अल्पेश, जिग्नेश का भरोसा
राहुल गांधी के रहते हुए भी गुजरात में हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी ही प्रदेश की सियासत का केंद्र बिंदु बन गए हैं। कांग्रेस इन्हें अपने लिए तुरुप का इक्का मान रही है। परन्तु सवाल यह कि क्या यही सच भी है? कांग्रेस जिन तीन चेहरों के दम पर गुजरात का चुनावी रण जीतने का आधार तैयार कर रही है, क्या उनकी विश्वसनीयता गुजराती जनमानस के बीच बन पाई है? क्या कांग्रेस पर गुजराती समाज को विश्वास हो चला है? दरअसल यह तो जाहिर हो चुका है कि हार्दिक पटेल को कांग्रेस ने फंडिंग करके पाटीदार नेता के तौर पर उभारा है, वहीं अल्पेश ठाकोर तो कांग्रेस के पुराने नेता रहे ही हैं। रही बात जिग्नेश मेवानी की तो दलितों के नाम पर राजनीति कर रहे जिग्नेश की स्थिति यह है कि दलितों के बीच ही उनकी विश्वसनीयता सवालों में है।
उत्तर प्रदेश में अखिलेश का साथ पसंद है!
2017 के जनवरी में यूपी की राजनीति में एक नई बात हुई और कांग्रेस पार्टी ने समाजवादी पार्टी के आगे घुटने टेक दिए। कहां तो कांग्रेस सभी 403 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करने वाली थी, लेकिन समाजवादी पार्टी से गठबंधन हुआ तो वह 105 सीटों पर लड़ने को राजी हो गई और समाजवादी पार्टी ने 298 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए। यानी कांग्रेस पार्टी ने यूपी में समाजवादी पार्टी को अपना बड़ा भाई मान लिया। नारा दिया ”यूपी को ये साथ पसंद है”, लेकिन प्रदेश की जनता ने दोनों राहुल गांधी और अखिलेश यादव के गठबंधन को नकार दिया और भाजपा को प्रचंड बहुमत दिया। कांग्रेस को महज 7 सीटों पर ही जीत मिली और शर्मिंदगी उठानी पड़ी। जाहिर है कांग्रेस पार्टी के लिए ये सेटबैक था, लेकिन लगता नहीं है कि कांग्रेस इस ‘साथ’ के नकारे जाने से भी कुछ सबक सीख पाई है।
तमिलनाडु में स्टालिन के आसरे कांग्रेस
2013 में कांग्रेस और डीएमके के बीच श्रीलंकाई तमिलों के मुद्दे पर मतभेद उभर आए थे और दोनों दलों का नौ साल पुराना गठबंधन टूट गया था, लेकिन 2016 में ये दल फिर एक साथ आ गए। साथ चुनाव भी लड़े, लेकिन एआईएडीएमके से जीत नहीं पाए। कांग्रेस की तो और भी फजीहत हो गई, उसे 234 सदस्यीय विधानसभा में महज आठ सीटें ही मिलीं, जबकि डीएमके ने 89 सीटें जीतीं। जाहिर है कांग्रेस की हर प्रदेश में दुर्गति होती चली जा रही है, लेकिन पार्टी सीख लेने को तैयार नहीं है। एक बार फिर 2019 में वह एम के स्टालिन के भरोसे चुनाव लड़ने की तैयारी में है और डीएमके के आसरे ही अपनी उम्मीद देख रही है। साफ है कि कांग्रेस पार्टी क्षेत्रीय क्षत्रपों के आसरे चुनाव जीतना चाहती है लेकिन सच्चाई यह है कि उसकी राजनीतिक ताकत लगातार कम होती चली जा रही है।
कश्मीर में उमर अब्दुल्ला का आसरा
24 दिसंबर, 2014 को जब जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के नतीजे घोषित हुए तो उनमें PDP 28 सीटों पर जीत के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, जबकि बीजेपी 25 सीटों के साथ दूसरी बड़ी पार्टी बनी, वहीं नेशनल कॉन्फ्रेंस को महज 15 सीटें मिली और कांग्रेस चारों खाने चित होकर चौथे नंबर पर पहुंच गई। जाहिर है एक वक्त जम्मू कश्मीर की राजनीति में कांग्रेस का ही दबदबा था, लेकिन पार्टी की गलत कश्मीर नीति के कारण वह अपना जनाधार खो चुकी है। एक बार फिर वह 2019 में अपने लिए सेफ जोन ढूंढने में लग गई है।
दरअसल बीते कुछ अर्से से कांग्रेस पार्टी जिस राह पर चल रही है इससे यह बात तो साफ जाहिर होती है कि बिना किसी योजना के ही पार्टी राजनीतिक मैदान में डटी हुई है। भ्रष्टाचारी लालू प्रसाद का साथ देना हो या अखिलेश यादव की अराजक सरकार का सपोर्ट हो, या फिर जीवन भर कांग्रेस पार्टी की आर्थिक नीतियों का विरोध करने वाले वामपंथियों के सहयोग से सरकार चलाना हो… ऐसी कई बातें बताती हैं कि कांग्रेस बिना विजन और बिना मिशन है। ऐसे में सवाल यह कि क्या कांग्रेस पार्टी की भी हैसियत आने वाले वर्षों में एक क्षेत्रीय पार्टी जैसी न हो जाए?