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बिहार की राजनीति में उबाल: करारी हार पर मंथन के बजाए तेजस्वी विदेश में, लालू अस्वस्थ और टूट की दहलीज पर आरजेडी

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बिहार विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद राष्ट्रीय जनता दल जिस असमंजस और आत्ममंथन के दौर से गुजर रहा है, वह अब धीरे-धीरे राजनीतिक संकट में बदलता दिख रहा है। तेजस्वी यादव का लगभग एक महीने के लिए विदेश प्रवास पर जाना, लालू प्रसाद यादव की लगातार बिगड़ती सेहत और इसी बीच जेडीयू की ओर से यह दावा कि आरजेडी के 17-18 विधायक उनके संपर्क में हैं। इन तीनों घटनाओं ने बिहार की राजनीति को एक बार फिर उबाल पर ला दिया है। बड़ा सवाल अब यह नहीं रह गया कि आरजेडी चुनाव हारी है, बल्कि यह है कि क्या पार्टी अंदर से टूटने की दहलीज खड़ी है। बिहार के राजनीतिक गलियारों में बयानबाजी की गर्मी साफ महसूस की जा सकती है। इसकी वजह बना है बिहार सरकार के पूर्व मंत्री और जदयू के मुख्य प्रवक्ता नीरज कुमार का वह बयान, जिसमें उन्होंने दावा किया कि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के 17-18 विधायक उनके संपर्क में हैं। इस एक बयान ने सत्ता और विपक्ष के बीच राजनीतिक बहस को नए सिरे से हवा दे दी है।

हार के बाद विदेश यात्रा: गैरहाजिरी या गैर-जिम्मेदारी?
नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू खुले तौर पर संकेत दे रही है कि वह एनडीए को और मजबूत करने की रणनीति पर काम कर रही है। ऐसे में आरजेडी की अंदरूनी स्थिति, नेतृत्व की कमजोरी और वैचारिक दिशाहीनता एक बार फिर कठघरे में है। चुनावी हार के तुरंत बाद तेजस्वी यादव का लंबे समय के लिए विदेश चले जाना राजनीतिक हलकों में कई सवाल खड़े करता है। आम तौर पर चुनावी पराजय के बाद नेता संगठन की समीक्षा करते हैं। कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाते हैं और भविष्य की रणनीति पर काम करते हैं। लेकिन यहां तस्वीर उलटी दिखाई देती है। पार्टी बिखराव की आशंका से जूझ रही है और उसका शीर्ष चेहरा विदेश में जमकर मौज-मस्ती कर रहा है। यह कुछ-कुछ उनकी सहयोगी पार्टी कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी की तरह ही है। वह भी अहम मौकों पर विदेश की सैर पर चले जाते हैं।

संकट की घड़ी में लालू-तेजस्वी ही मोर्चे पर मौजूद नहीं
दरअसल, राजनीति में प्रतीक बहुत मायने रखते हैं। तेजस्वी का विदेश जाना केवल एक निजी यात्रा नहीं, बल्कि यह संदेश भी देता है कि संकट की घड़ी में नेतृत्व मोर्चे पर मौजूद नहीं है। यही वह खालीपन है, जिसमें टूट, जोड़-तोड़ और सियासी सौदे जन्म लेते हैं। आरजेडी आज भी पूरी तरह लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक छाया में खड़ी है। पार्टी का संगठन, अनुशासन और भावनात्मक एकता काफी हद तक उन्हीं पर टिकी रही है। लेकिन उनकी लगातार खराब सेहत ने पार्टी के भीतर शक्ति-संतुलन को अस्थिर कर दिया है। लालू यादव न सिर्फ राजनीतिक रणनीतिकार रहे हैं, बल्कि संकट के समय विधायकों को साधे रखने वाले ‘फेविकोल’ भी रहे हैं। उनकी अनुपस्थिति में आरजेडी का वह पारंपरिक अनुशासन ढीला पड़ता दिख रहा है। तेजस्वी अब तक उस स्तर की राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक पकड़ नहीं बना पाए हैं, जो लालू की पहचान रही है।

साफ संकेत कि आरजेडी के भीतर सब कुछ ठीक नहीं
जेडीयू प्रवक्ता नीरज कुमार का यह दावा कि आरजेडी के 18 विधायक संपर्क में हैं, केवल बयानबाजी नहीं माना जा रहा। बिहार की राजनीति का इतिहास गवाह है कि ऐसे बयान अक्सर जमीन तैयार करने के बाद लिए-दिए जाते हैं। यह संख्या चाहे कम-ज्यादा हो, लेकिन इससे यह साफ संकेत जरूर मिलता है कि आरजेडी के भीतर सब कुछ ठीक नहीं है। करारी हार और नेतृत्व की गैर मौजूदगी से उनमें असंतोष तेजी से पनप रहा है। विधायकों के असंतोष की वजहें भी छिपी नहीं हैं। नेतृत्व का अभाव, भविष्य को लेकर अनिश्चितता, सत्ता से दूरी और संगठनात्मक ढीलापन। आरजेडी की राजनीति में विधायक विचारधारा से अधिक संभावनाओं के साथ चलते हैं। जहां सत्ता दिखती है, वहीं खिंचाव भी बढ़ता है।

जेडीयू की रणनीति: एनडीए को फिर से अभेद्य बनाना
बिहार से दसवीं बार मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार की राजनीति हमेशा व्यावहारिक रही है। वे जानते हैं कि बिहार में स्थायित्व सत्ता संतुलन से आता है, भावनाओं से नहीं। ऐसे में अगर आरजेडी कमजोर होती दिखती है, तो जेडीयू का प्रयास होगा कि उस कमजोरी को अपने पक्ष में बदला जाए। एनडीए को मजबूत करना इस समय जेडीयू की प्राथमिकता है। खासकर तब जब राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी गठबंधन खुद अंदरूनी खींचतान से जूझ रहा है। यदि आरजेडी के कुछ विधायक टूटते हैं या पाला बदलते हैं, तो न सिर्फ बिहार में एनडीए की स्थिति मजबूत होगी, बल्कि यह संदेश भी जाएगा कि विपक्षी एकता केवल कागजी है। इंडिया गठबंधन और राहुल गांधी का नेतृत्व भी कमजोर पड़ रहा है।

तेजस्वी बनाम लालू: अनुभव की कमी के चलते पिछड़ रहे तेजस्वी 
तेजस्वी यादव को अक्सर लालू यादव का उत्तराधिकारी कहा जाता है, लेकिन राजनीतिक कौशल विरासत में अपने आप नहीं आ जाता। लालू यादव भले ही चारा घोटाला समेत भ्रष्टाचार के कई मामलों में संलिप्त रहे हों, लेकिन उनकी राजनीति संकट में भी अवसर तलाशने वाली रही है। तेजस्वी में वह फुर्ती और आक्रामकता अब तक दिखाई नहीं देती। उनमें अनुभव की कमी भी साफ-साफ झलकती है। तेजस्वी अपेक्षाकृत संयमित नेता हैं, लेकिन बिहार जैसे राज्य में राजनीति केवल छवि से नहीं चलती। वहां संगठन, जातीय समीकरण, व्यक्तिगत संपर्क और निरंतर उपस्थिति मायने रखती है। इसी मोर्चे पर तेजस्वी पिछड़ते और फेल होते दिखते नजर आते हैं।

(from Right to left) Tejashwi Yadav with his Mother and Former Bihar CM Rabri Devi and Elder Brother Tejpratap Yadav. Express Photo By Prashant Ravi. 16.10.2013.

राष्ट्रीय जनता दल के भीतर असंतोष, बाहर से दबाव तो टूटेगी आरजेडी?
राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि खरमास के बाद बिहार की राजनीति में हलचल तेज हो सकती है। यह दौर पारंपरिक रूप से राजनीतिक गतिविधियों के लिए अनुकूल माना जाता है। ऐसे में यदि टूट होती है तो उसका समय भी यही हो सकता है। आरजेडी के भीतर असंतोष, नेतृत्व का अभाव और बाहर से दबाव—तीनों मिलकर ऐसी जमीन तैयार कर रहे हैं, जहां टूट की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। सवाल यह नहीं कि टूट होगी या नहीं, सवाल यह है कि कितनी बड़ी होगी और उसका असर कितना दूर तक जाएगा।

इंडिया गठबंधन की राजनीति पर पड़ेगा सीधा असर
पॉलिटिकल एक्सपर्ट की माने तो आरजेडी में टूट होती है, तो उसका असर केवल बिहार तक सीमित नहीं रहेगा। इंडिया गठबंधन पहले से ही नेतृत्व और दिशा के संकट से जूझ रहा है। बिहार उसकी रीढ़ माना जाता रहा है। वहां कमजोरी आई तो पूरे गठबंधन की साख पर सवाल उठेंगे। कांग्रेस पहले ही कमजोर कड़ी बनी हुई है और क्षेत्रीय दल अपने-अपने हित साधने में लगे हैं। आरजेडी की कमजोरी यह संदेश देगी कि विपक्ष का कथित “एकजुट मोर्चा” भीतर से खोखला है। इससे भाजपा और एनडीए को राष्ट्रीय स्तर पर मनोवैज्ञानिक बढ़त मिलेगी। आरजेडी में संभावित टूट का सबसे बड़ा लाभ भाजपा को मिलेगा। एक ओर एनडीए का कुनबा मजबूत होगा, दूसरी ओर विपक्ष का नैरेटिव कमजोर पड़ेगा। भाजपा को यह कहने का अवसर मिलेगा कि क्षेत्रीय दल अवसरवादी हैं और स्थायित्व केवल एनडीए दे सकता है।

आरजेडी टूटी को पश्चिम बंगाल चुनाव में ममता को भी होगी मुश्किल
इसके अलावा पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में विपक्षी एकता की भूमिका अहम मानी जा रही है। लेकिन अगर बिहार में आरजेडी टूटती है, तो उसका असर बंगाल चुनाव तक जाएगा। ममता बनर्जी की राजनीति भी इंडिया गठबंधन की मजबूती पर आंशिक रूप से निर्भर करती है। आरजेडी जैसी पुरानी पार्टी का बिखराव यह संदेश देगा कि विपक्ष ना तो स्थिर है और ना भरोसेमंद। इससे तृणमूल की रणनीति पर भी दबाव बढ़ेगा और भाजपा का यह तर्क और मजबूत होगा कि विपक्षी एकता सिर्फ बयानबाजी का गठजोड़ है। यदि राष्ट्रीय जनता दल में हालात नहीं संभले, तो आने वाले समय में आरजेडी का संकट और गहराएगा। और तब यह सिर्फ एक दल की कहानी नहीं रहेगी, बल्कि विपक्ष की सामूहिक विफलता का उदाहरण बन जाएगी।

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