पिछले तीन सालों में विपक्ष की स्वार्थी और संकीर्ण दृष्टि के कारण असहिष्णुता और अभिव्यक्ति की आजादी मजाक का मुद्दा बनकर रह गया है। इतने दिनों में यह भी साबित हो गया है कि तथाकथित बौद्धिक जमात और मीडिया का एक वर्ग भयंकर रूप से ‘दोहरेपन’ का शिकार है। एक ओर तो छोटी-मोटी बातों पर भी ये राष्ट्रीय बहस खड़ी कर देते हैं। ऐसा लगने लगता है कि मानो देश में आपातकाल आ गया है, वहीं दूसरी ओर केरल, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में बेरहमी से किए गए हत्याओं पर भी चुप्पी साधे रहते हैं।
इसी दोहरेपन की वजह से आज पत्रकारिता जैसा पवित्र पेशा भी संदेह के घेरे में है। लेकिन अब समूचा देश इनके पाखंड से अवगत होता जा रहा है। ममता बनर्जी द्वारा आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के बंगाल में कार्यक्रम को रद्द किया जाना अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला तो है ही, लोकतांत्रिक समाज में इससे बड़ी असहिष्णुता भी नहीं हो सकती है। लेकिन इस मुद्दे पर तथाकथित बौद्धिक जमात की चुप्पी इनके ‘दोहरेपन’ पर एक बार फिर सवाल उठाती है।
मोहन भागवत को बोलने की स्वतंत्रता नहीं!
03 अक्टूबर को कोलकाता में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का कार्यक्रम आयोजित करने के लिए अनुमति नहीं दी गयी है। दरअसल सिस्टर निवेदिता की 150वीं वर्षगांठ के अवसर पर कोलकाता के महाजाति सदन में एक व्याख्यानमाला का आयोजन किया जाना था। सिस्टर निवेदिता मिशन ट्रस्ट के तत्वावधान में सिस्टर नवेदिता के भारतीय समाज में योगदान व अन्य विषयों पर चर्चा प्रस्तावित थी। लेकिन शुरू से ही टाल-मटोल किया जा रहा था और अंत में कार्यक्रम के आयोजन की अनुमति नहीं दी गयी।
03 अक्टूबर को होने वाले इस कार्यक्रम का न तो कोई सांप्रदायिक उद्देश्य था और न ही यह कोई धार्मिक आयोजन ही था। फिर भी कार्यक्रम की अनुमति देना न सिर्फ गैर लोकतांत्रिक है बल्कि सीधे-सीधे अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है। इतना ही नहीं ये असहिष्णुता का मामला भी बन जाता है जब यह सिर्फ हिंदू विरोध की मानसिकता के तहत किया गया है। पर ममता की मनमानी पर तथाकथित बुद्धिजीवियों की चुप्पी उनकी मंशा पर सवाल उठाती है।
अमित शाह को लोकतांत्रिक अधिकार नहीं!
तथाकथित बौद्धिक जमात की नजर में भारत में ’कश्मीर की आजादी’ और ’बस्तर की आजादी’ के लिए होने वाले सेमिनारों का समर्थन किया जा सकता है। देश विरोधी सेमिनार स्वीकार्य है। लेकिन पश्चिम बंगाल में लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन कैसे जायज है? दरअसल ममता बनर्जी ने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के दौरे पर रोक लगा दी है। अमित शाह 11 से 13 सितंबर के बीच पश्चिम बंगाल के दौरे पर रहेंगे। इस दौरान 12 सितंबर को उनके कार्यक्रम के लिए नेताजी इनडोर स्टेडियम बुक किया गया था, लेकिन वहां पर कुछ काम चलने का तर्क देकर प्रशासन ने इसकी परमिशन नहीं दी।
दरअसल ममता के तानाशाही रवैये की वजह मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति है। ममता बनर्जी राजनीतिज्ञ हैं, वो अपने वोट बैंक को साधने के लिए ऐसे अनैतिक कार्य भी कर सकती हैं, लेकिन बड़ा सवाल अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों को लेकर है कि वे चुप क्यों हैं? क्या उन्हें यह लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन नहीं लगता है?
ममता राज में तस्लीमा नसरीन पर प्रतिबंध जायज!
वैसे देश की राजनीति में एक चलन इन दिनों आम होता जा रहा है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने वीएचपी नेता प्रवीण तोगड़िया की राज्य में इंट्री पर रोक लगा रखी है। पिछले चार साल से ममता ने प्रवीण तोगड़िया को प्रदेश में घुसने नहीं दिया जबकि प्रवीण तोगड़िया ने कई बार बंगाल जाने की कोशिश की वे कामयाब नहीं हो सके।
इसी तरह मुस्लिम कट्टरपंथियों के एक वर्ग को खुश करने के लिए ममता सरकार ने तस्लीम नसरीन को पश्चिम बंगाल में आना प्रतिबंधित कर दिया। उनके एक धारावाहिक का प्रसारण तक रोक दिया गया था जो ‘आकाश आठ’ चैनल पर प्रकाशित होने वाला था। बहारहाल पश्चिम बंगाल में जेहादी तत्वों द्वारा लगातार बढ़ रहे हिंसाचार पर तथाकथित सेक्युलर और बौद्धिक जमात की चुप्पी परेशान करने वाली है।
प. बंंगाल में कश्मीर और पाकिस्तान पर बोलना मना है!
आप पाकिस्तानी आतंकी हमले, कश्मीर में घुसपैठ सहित उसके दूसरे हथकंडों का विरोध नहीं कर सकते। अगर आप पाक की करतूतों के बारे में कोई विरोध प्रदर्शन, सभा, सेमिनार या रैली करना चाहेंगे तो आपको उसकी इजाजत नहीं मिलेगी। पाक आतंकी हमले में बाद जब देश भर में गुलाम अली का कार्यक्रम विरोध हो रहा था तो ममता बनर्जी ने उन्हें कोलकाता बुलाकर कार्यक्रम करने की इजाजत दी। लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने यहां कश्मीर और बलूचिस्तान के मुद्दे पर पाक विरोधी सेमिनार करने की इजाजत नहीं दी।
कलकत्ता क्लब में होने वाला यह कार्यक्रम स्वाधिकार बांग्ला फाउंडेशन की ओर से आयोजित होना था। यह कार्यक्रम बलूचिस्तान और कश्मीर आधारित एक टॉक शो था। इस कार्यक्रम में तारिक फतेह के अलावा पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान, पूर्व सैन्य अधिकारी जीडी बख्शी, कश्मीरी मूल के सुशील पंडित शामिल होने वाले थे। तारिफ फतेह ने आरोप लगाया है कि ममता सरकार ने पहले कार्यक्रम के पोस्टर ने कश्मीर शब्द हटाने को कहा था। जिसके ना करने पर कार्यक्रम को रद्द कर दिया गया।
– @KolkataPolice on urging of CM @MamataOfficial forces @TheCalcuttaClub to shut talk on #Kashmir #Balochistan. @GeneralBakshi @neelakantha pic.twitter.com/ZQYnR9Cwsr
— Tarek Fatah (@TarekFatah) January 4, 2017
बहरहाल इस मसले पर अभिव्यक्ति के तथाकथित पैरोकारों की जुबान बंद रही। ऐसा लगा कि ये लोग अभिव्यक्ति नाम का शब्द भी नहीं जानते हैं। इनका दोहरापन केरल में होने वाली राजनीतिक हत्याओं पर चुप्पी पर भी सामने आया है। साफ है कि इन हत्याओं में वामपंथी कार्यकर्ताओं की भूमिका है? तो क्या इन तथाकथित बौद्धिक जमात की नजर में लाल आतंक इस देश में स्वीकार्य है? इसी तरह पश्चिम बंगाल में मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के तहत हिंदुओं और हिंदुओं से जुड़े मुद्दों पर ममता सरकार का दोहरा रवैया भी इन्हें स्वीकार्य है?
साफ है कि तथाकथित बौद्धिक जमात के इसी दोहरेपन ने समाज में बड़ी खाई का निर्माण किया है जिसकी कीमत आने वाले वक्त में देश को चुकानी ही पड़ेगी।