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अर्नब की गिरफ्तारी ने आपातकाल के दौरान पत्रकारों के दमन की काली यादें ताजा कर दीं

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अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी ने आपातकाल और उस दौरान पत्रकारों पर हुई ज्यादतियों की खौफनाक यादें ताजा करा दी हैं। उस दौर में लोकतंत्र का गला घोंटने वालों ने न सिर्फ विपक्षी दलों के नेताओं बल्कि सच के साथ खड़े पत्रकारों का भी पुरजोर दमन किया। एक ओर राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं की गिरफ्तारी हो रही थी तो दूसरी ओर बड़े मीडिया संस्थानों तक के संपादकों को गिरफ्तार किया जा रहा था, उन पर पाबंदियां लगाई जा रही थीं। इतना ही नहीं, सरकार की अमानवीयता का आलम यह था कि इन गिरफ्तारियों के बाद भी राजनेताओं या पत्रकारों के घरवालों को सूचना तक नहीं दी जा रही थी।     

मीडिया का उत्पीड़न

आपातकाल लगते ही अखबारों पर सेंसर बैठा दिया गया था। सेंसरशिप के अलावा अखबारों और समाचार एजेंसियों को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने नया कानून बनाया। इसके जरिए आपत्तिजनक सामग्री के प्रकाशन पर रोक लगाने की व्यवस्था की गई। इस कानून का समर्थन करते हुए तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने कहा कि इसके जरिए संपादकों की स्वतंत्रता की ‘समस्या’ का हल हो जाएगा। सरकार ने चारों समाचार एजेंसियों पीटीआई, यूएनआई, हिंदुस्तान समाचार और समाचार भारती को खत्म करके उन्हें ‘समाचार’ नामक एजेंसी में विलीन कर दिया। इसके अलावा सूचना और प्रसारण मंत्री ने महज छह संपादकों की सहमति से प्रेस के लिए ‘आचारसंहिता’ की घोषणा कर दी।

जब काटे गए अखबार के बिजली के तार

अंग्रेजी दैनिक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ का प्रकाशन रोकने के लिए बिजली के तार तक काट दिए गए। इस बात का पूरा प्रयास किया गया कि नेताओं की गिरफ्तारी की सूचना आम जनता तक न पहुंचे। जहां कहीं पत्रकारों ने इस पहल का विरोध किया उन्हें भी बंदी बनाया गया। पुणे के साप्ताहिक ‘साधना’ और अहमदाबाद के ‘भूमिपुत्र’ पर प्रबंधन से संबंधित मुकदमे चलाए गए। बड़ोदरा के ‘भूमिपुत्र’ के संपादक को तो गिरफ्तार ही कर लिया गया। लेकिन सबसे ज्यादा तंग ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को किया गया। अखबार की संपत्ति पर दिल्ली नगर निगम द्वारा कब्जा कराके उसे बेचने का भी प्रयास किया गया। सरकार की कार्रवाइयों से परेशान होकर इसके मालिकों ने सरकार द्वारा नियुक्त अध्यक्ष और पांच निदेशकों को अंतत: स्वीकार कर लिया। इसके बाद अखबार के तत्कालीन संपादक एस मुलगांवकर को सेवा से मुक्त कर दिया गया।

अखबार के निदेशक पर झूठा मुकदमा

‘स्टेट्समैन’ को तो जुलाई 1975 में ही बाध्य किया गया कि वह सरकार द्वारा मनोनीत निदेशकों की नियुक्ति करे। लेकिन कलकत्ता हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी। उसके बाद प्रबंध निदेशक ईरानी पर मुकदमा चलाने के लिए उस मामले को उठाया गया जो दो साल पहले ही सुलझ गया था। सरकार के इसमें असफल रहने पर ईरानी के पासपोर्ट को जब्त करने का आदेश दिया गया।

संघ से जुड़े लोगों पर गिरी गाज

आपातकाल लगते ही सरकार के भीतर संघ के करीबियों और वामपंथियों को खोजकर उन्हें या तो निकाला जा रहा था या हाशिए पर धकेला जा रहा था। वामपंथी आनंद स्वरूप वर्मा उसी वक्त रेडियो से निकाले गए। हालांकि उस वक्त उनके साथ काम करने वालों ने आईबी के उन अधिकारियों को समझाया कि रेडियो में को भी विचारधार का व्यक्ति हो, उसका कोई मतलब नहीं है, क्योंकि खबरों के लिए अलग-अलग पूल बनाए जाते हैं, फिर विचारधारा का क्या मतलब। वर्मा तो वैसे भी खबरों का अनुवाद करते हैं। लेकिन, अधिकारियों ने एक नहीं सुनी और वर्मा को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। 

दरअसल, आपातकाल लगने के 72 घंटे के भीतर इंद्र कुमार गुजराल की जगह विद्याचरण शुक्ल सूचना को नया प्रसारण मंत्री बनाया गया। दो बजे मंत्री ने पद संभाला तो पीआईबी के प्रमुख सूचना अधिकारी डॉ एआर बाजी ने शाम चार बजे दिल्ली के बड़े समाचार पत्रों के संपादकों को एक बैठक का बुलावा भेज दिया। बैठक शुरू होते ही मंत्री महोदय ने कहा कि सरकार संपादकों के कामकाज से खुश नहीं है। उन्हें अपने तरीके बदलने होंगे। इस पर एक संपादक ने कहा कि ऐसी तानाशाही स्वीकार करना उनके लिए असंभव है। इस पर मंत्री ने उत्तर दिया– हम देखेंगे कि आपके अखबार से कैसा बरताव किया जाए।

मार्क टली को छोड़ना पड़ा देश

कुलदीप नैयर अपनी किताबइमरजेंसी की इनसाइड स्टोरी  में लिखते हैं कि 25 जून की आधी रात को ही अखबारों के दफ्तरों की बिजली काट दी गई। इस पर अधिकारियों ने सफाई दी कि पावर हाउस में गड़बड़ी आ गई थी। ना केवल भारतीय पत्रकार बल्कि विदेशी पत्रकारों पर भी इमरजेंसी की गाज गिरी। कुलदीप नैयर लिखते हैं कि विदेशी संवाददाताओं को उनकी खबरों के लिए गिरफ्तार तो नहीं किया जा सकता था लेकिन उन्हें देश से निकाला जाने लगा। सबसे पहले द वाशिंगटन पोस्ट के लेविस एम सिमंस थे जिन्होंने संजय गांधी एंड हिज मदर नाम से लेख लिखा था। बीबीसी के मार्क टली को भी देश छोड़ना पड़ा।

इसी बीच सूचना प्रसारण मंत्रालय का जिम्मा आई के गुजराल से लेकर विद्याचरण शुक्ला को दे दिया गया जो कि संजय गांधी के विश्वस्त लोगों में से थे। शुक्ला ने सेंसरशिप की बागडोर अपने हाथों में ले ली जिसके बाद प्रेस सेंसरशिप का एक भयानक दौर शुरू हुआ।

मीडिया को ‘रेंगने’ पर किया गया मजबूर

अखबारों के छपने से पहले उसकी सामग्री पर नज़र रखी जाने लगी। कमोबेश पूरी मीडिया ही इंदिरा गांधी के सामने नतमस्तक हो चुकी थी। अगर कुछ अपवादों को छोड़ दें तो। इस पर लालकृष्ण आडवाणी ने कहा भी था, ‘मीडिया को झुकने को कहा तो वो रेंगने लगा।’

आपातकाल के पहले हफ्ते में ही संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 22 को निलंबित कर दिया गया। ऐसा करके सरकार ने कानून की नजर में सबकी बराबरी, जीवन और संपत्ति की सुरक्षा की गारंटी और गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंदर अदालत के सामने पेश करने के अधिकारों को रोक दिया गया। जनवरी 1976 में अनुच्छेद 19 को भी निलंबित कर दिया गया। इससे अभिव्यक्ति, प्रकाशन करने, संघ बनाने और सभा करने की आजादी को छीन लिया गया। राष्ट्रीय सुरक्षा काननू (रासुका) तो पहले से ही लागू था। इसमें भी कई बार बदलाव किए गए।

किशोर कुमार भी रहे पीड़ित

आपातकाल के दौरान अमृत नाहटा की फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ को जबरदस्ती बर्बाद करने की कोशिश हुई। किशोर कुमार जैसे गायक को काली सूची में रखा गया। ‘आंधी’ फिल्म पर पाबंदी लगा दी।

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