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देखिए अर्नब की गिरफ्तरी पर वामपंथी, लिबरल, फ्री स्पीच और सेक्युलर मीडिया गैंग का दोगलापन, कहा- यह भयावह है, लेकिन पहले आग किसने लगाई?

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रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन चीफ अर्नब गोस्वामी को कथित रूप से आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में महाराष्ट्र पुलिस ने गिरफ्तार किया, इसके बाद कोर्ट ने उन्हें 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया। अर्नब की गिरफ्तरी को लेकर देशभर में चौतरफा निंदा हो रही है,लेकिन मीडिया का एक धड़ा, जो अपने आप को वामपंथी, लिबरल और सेक्युलर मानता है और फ्री स्पीच या अभिव्यक्ति की आजादी का सबसे बड़ा पैरोकार और पेटेंटधारी समझता है, आज सवाल कर रहा है कि गिरफ्तरी तो भयावह है, लेकिन पहले आग किसने लगाई? यह सवाल काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस सवाल का जवाब ही उन्हें आईना दिखाने वाला है।

सबसे पहले आपको वामपंथी, लिबरल, सेक्युलर और फ्री स्पीच गैंग की विशेषता से परिचय कराना चाहता हूं। इस गैंग ने किस तरह स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता का चीर हरण किया और पत्रकारिता के पेशे को दलाली के रूप में तब्दील कर दिया इसका काफी पुराना इतिहास है। इस गैंग ने राजनीतिक आकाओं द्वारा फेंकी गईं रोटियां खाने, अपने बेटों और बेटियों को विदेशों में पढ़ाने, पॉश इलाकों में फ्लैट और जमीन का एक टुकड़ा हासिल करने के लिए पत्रकारिता को ताक पर रखकर अपने को बिकाऊ बना दिया और पत्रकार न होकर दरबारी बन गए। अपने स्वार्थ की पूर्ति और एक खास एजेंडे के तहत दूसरे की छवि खराब करने के लिए पीत पत्रकारिकता सहारा लिया। आज ये अपना चेहरा आईना में देखने के बजाय दूसरों को आईना दिखाने की कोशिश कर रहे हैं।  

इस गैंग का सबसे बड़ा शिकार और पीड़ित देश के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी रहे हैं। इसी गैंग ने एक निर्वाचित मुख्यमंत्री को अपनी तरफ से अपराधी सिद्ध करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। 2002 के गुजरात दंगों में इस गैंग ने पत्रकारिता के सारे मूल्यों और मानदंडों की धज्जियां उड़ा दीं। नरेन्द्र मोदी को अपराधी घोषित करने और उनकी छवि खराब करने के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुहिम चलाया। फर्जी और मनगढ़ंत आरोपों को आधार बनाकर समय-समय पर प्रोपेगेंडा करने की कोशिश की। लेकिन हमेशा जनता ने इनकों सबक सिखाया, जिसका प्रमाण नरेन्द्र मोदी के लगातार तीन बार गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में और दो बार देश के प्रधानमंंत्री के रूप में शपथ लेना है। 

ये भी विडंबना है कि नरेन्द्र मोदी 13 वर्षों तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे। लेकिन 2002 को छोड़कर उनके शासन काल में कभी दंगे नहीं हुए। लेकिन वामपंथी, लिबरल और सेक्युलर मीडिया गैंग ने 2002 के दंगों का मुद्दा कभी हाथ से जाने नहीं दिया। नरेन्द्र मोदी को लेकर दुष्प्रचार का सिलसिला 2002 के बाद से शुरू हुआ, वो आज भी बदस्तूर जारी है। लेकिन 2007 आते-आते उन पर अपमानजनक टिप्पणियां भी की जाने लगीं। मीडिया के इस गैंग ने नरेन्द्र मोदी को बार-बार गुजरात के खलनायक के तौर पर दिखाने की कोशिश की। इस गैंग ने विदेशी मीडिया के एक हिस्से के साथ गठबंधन कर लिया और ये लोग नरेन्द्र मोदी की छवि को धूमिल करने के लिए ज़ोर शोर से अपना एजेंडा चलाने लगे।

2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी सिर्फ विरोधी राजनीतिक पार्टियों के खिलाफ नहीं लड़ रहे थे, बल्कि मोदी विरोधी इस गठबंधन में मीडिया का एक बड़ा हिस्सा, अंग्रेज़ी बोलने वाले कथित बुद्धिजीवी, अवार्ड वापसी गैंग और देश के टुकड़े टुकड़े करने वाली सोच रखने वाले छात्र नेता शामिल थे, जिनको इस लिबरल और सेक्युलर मीडिया गैंग ने पूरा मंच प्रदान किया। टुकड़े-टुकड़े गैंग के सदस्य लिबरल मीडिया के हिरो बन गए, उनका खूब महिमामंडन किया गया। जांच से पहले ही उन्हें क्लीन चिट देने की भरपूर कोशिश की गई। लेकिन इस गैंग की नजर में नरेन्द्र मोदी हमेशा खलनायक बने रहे। हालांकि नानावटी-मेहता आयोग ने मोदी विरोधी मीडिया गिरोह को आईना दिखा दिया।

नरेन्द्र मोदी ने गुजरात दंगों के मामले में 17 वर्षों तक इस गैंग के दुष्प्रचार का सामना किया। इस दौरान उनका नाम गुजरात दंगों से जोड़कर उन्हें ठेस पहुंचाई गई। मीडिया में उन्हें अछूत बनाने और अलग-थलग करने की कोशिश की। लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। नानावटी-मेहता आयोग ने 17 वर्ष के बाद 2002 के गुजरात दंगा मामलों में तत्कालीन गुजरात सरकार को क्लीन चिट दे दी। आयोग ने माना कि उन दंगों में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके तीन मंत्रियों अशोक भट्ट, भरत बरोट और हरेन पांड्या का कोई रोल नहीं था।

आज उद्धव सरकार ने अपने खिलाफ उठ रही आवाज को दबाने और अर्नब को सबक सिखाने के लिए कानून की धज्जियां उड़ा दीं। लेकिन सवाल उठता है कि क्या नरेन्द्र मोदी गुजरात के चपरासी थे? नहीं, वो भी उद्धव ठाकरे की तरह मुख्यमंत्री थे। लेकिन उद्धव की तरह विधान परिषद के बैकडोर से आए मुख्यमंत्री नहीं थे। वे उद्धव की तरह कांग्रेस आलाकमान सोनिया गांधी और एनसीपी प्रमुख शरद पवार के कृपापात्र नहीं थे, बल्कि गुजरात के 6.2 करोड़ लोगों द्वारा निर्वाचित मुख्यमंत्री थे। एक लोकप्रिय और निर्वाचित मुख्यमंत्री होते हुए भी कभी अपने पद और सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग नहीं किया।

वर्ष 2002 के गुजरात दंगों की जांच करने वाली एसआईटी के प्रमुख रहे आर के राघवन ने एक नयी किताब से खुलासा किया कि उस समय राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी 9 घंटे लंबी पूछताछ के दौरान लगातार शांत व संयत बने रहे और पूछे गए करीब 100 सवालों में से हर एक का उन्होंने जवाब दिया था। इस दौरान उन्होंने जांचकर्ताओं की एक कप चाय तक नहीं ली थी।

राघवन ने अपनी आत्मकथा ”ए रोड वेल ट्रैवल्ड” में लिखा है कि मोदी पूछताछ के लिए गांधीनगर में एसआईटी कार्यालय आने के लिए आसानी से तैयार हो गए थे और वह पानी की बोतल स्वयं लेकर आए थे। राघवन ने कहा कि मोदी को छोटे ब्रेक के लिए सहमत कराने में काफी अनुनय करना पड़ा। राघवन ने मोदी के ऊर्जा स्तर की तारीफ करते हुए कहा कि वह छोटे ब्रेक के लिए तैयार हुए लेकिन वह खुद के बदले मल्होत्रा को राहत की जरूरत को देखते हुए तैयार हुए।

ये तो वामपंथी, लिबरल और सेक्युलर मीडिया गैंग के दोगलेपन का सर्वोत्तम उदाहरण है। लेकिन इसके अलावा कई ऐसे मामले हैं, जब इस गैंग ने दोहरे मानदंड और चरित्र का बखूबी प्रदर्शन किया। इस गैंग ने मोदी सरकार और देश को बदनाम करने के लिए ममूली झगड़े को धर्मनिरपेक्षता पर खतरा बता दिया। भीड़ द्वारा किसी मुस्लिम को पीट-पीटकर मारने की घटना को मॉब लिंचिंग करार देकर प्रोपेगेंडा किया और इस मामले को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुहिम चलायी। लेकिन जब मुस्लिम भीड़ द्वारा किसी हिन्दू युवक की हत्या होती है, ये गैंग चुप्पी साध लेता है। 

ये गैंग उन लोगों को प्रोत्साहन और बढ़ावा देता है, जो हिन्दुओं के धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश करते हैं। लिबरल मीडिया गैंग धर्मनिरपेक्षता और फ्री स्पीच की आड़ में उनका बचाव करता है। यहां तक कि उनके समर्थन में मुहिम चलाता है और उन्हें अपना मंच प्रदान करता है। जब हिन्दुओं द्वारा अपने धर्म के खिलाफ किए जा रहे दुष्प्रचार और अपमान का प्रतिकार किया जाता है, तो ये गैंग अपने कुतर्कों और तथाकथित प्रगतिशल विचारों के नाम पर उन्हें उचित ठहराने की पूरी कोशिश करता है।

लिबरल और सेक्युलर मीडिया गैंग खुद को दलितों का सबसे बड़ा हितैषी होने का दिखावा करता है। जब किसी बीजेपी शासित राज्य में किसी दलित के खिलाफ अपराध होता है, तो ये मीडिया गैंग सरकार और पुलिस को बदनाम करने के लिए मुहिम चलाने लगता है। जब किसी कांग्रेस शासित राज्य में दलितों को निशाना बनाया जाता है, तो इस गैंग को दलितों पर हो रहा अत्याचार दिखाई नहीं देता है। 

यह मीडिया गैंग महिलाओं के साथ भी भेदभाव करता है। जब किसी बीजेपी शासित राज्य में किसी लड़की या महिला के साथ बलात्कार होता है, तो उनके पन्ने सरकार और पुलिस की आलोचना में भर जाते हैं। सोशल मीडिया पर इनकी सक्रियता बढ़ जाती है। ट्विटर पर ट्रेंड शुरू हो जाता है। यहां तक कि बीजेपी सरकारों को महिला विरोधी साबित करने के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रोपेगैंडा किया जाता है। तरह-तरह की दलीलें दी जाती हैं। लेकिन गैर-बीजेपी सरकार में इन्हें महिला अत्याचार दिखाई नहीं देता। 

लिबरल और सेक्युलर मीडिया गैंग को बीजेपी शासित राज्यों में लोकतंत्र और संविधान खतरे में दिखाई देता है। लेकिन पश्चिम बंगाल और केरल में बीजेपी कार्यकर्ताओं की लगातार हो रही राजनीतिक हत्या पर इनकी आंखें अंधी हो जाती हैं। गैर-बीजेपी राज्यों में बीजेपी कार्यकर्ताओं और मीडिया का जिस तरह उत्पीड़न किया जाता है,उसकी मिसाल कहीं और नहीं मिलती है। लेकिन ये गैंग इस मामले में चुप्पी साध लेता है। ऐसे में लिबरल, सेक्युलर और वामपंथी मीडिया गैंग को दूसरों को आईना दिखाने से पहले खुद के गिरेबान में झांकने की जरूरत है।

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