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मोदी युग में अप्रासंगिक है मायावती टाइप पॉलिटिक्स !

मायावती की कास्ट पॉलिटिक्स के दिन कैसे लद गए, रिपोर्ट

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18 जुलाई 2017 को बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष सुश्री मायावती ने राज्यसभा में दलितों का मुद्दा नहीं उठाए दिए जाने के विरोध में सदन की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। यह देश के इतिहास में पहली घटना है जिसमें किसी सांसद ने चेतावनी देकर अपना त्यागपत्र दिया। लेकिन इस त्यागपत्र के साथ कई सवाल भी उठने लगे। क्या राज्यसभा से मायावती का इस्तीफा देना महज एक दिखावा है या फिर उनके द्वारा अपनी खोई हुई राजनीतिक पृष्ठभूमि को पाने की ओर उठाया गया कदम? इन सवालों पर मंथन, चिंतन का दौर चल ही रहा था कि यूपी की राजनीति में बड़े बदलाव के संकेत मिलने लगे हैं। खतरा बहुजन समाज पार्टी में ही मायावती के तख्तापलट का है।

16 संगठन मायावती के खिलाफ आए साथ
बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष और राज्यसभा की पूर्व सांसद मायावती को यूपी की दलित राजनीति से बाहर करने की तैयारी शुरू हो चुकी है। स्वयं को दलितों का मसीहा कहने वाली मायावती द्वारा पार्टी से निष्कासित किए गए नेताओं ने मोर्चा संभाल लिया है। रविवार को बहुजन समाज पार्टी के पूर्व नेताओं के नेतृत्व में दिल्ली में एक मीटिंग आयोजित की गई। इसमें मायावती का तख्तापलट करने का एजेंडा तैयार किया गया। मायावती का तख्तापलट करने के लिए दलित, मुसलमानों और ओबीसी के 16 संगठन एक साथ आ गए हैं।

नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने बनाया एंटी माया मोर्चा
मायावती का विरोध करने के लिए साथ आए संगठनों को एक मंच पर लाने का काम बीएसपी के पूर्व नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने किया है। नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने नेशनल बहुजन एलायंस (राष्ट्रीय बहुजन गठबंधन) की स्थापना की। इसके साथ ही एक समन्वय समिति का भी गठन किया गया। इसका संयोजक बीएसपी के पूर्व एमपी प्रमोद कुरील को बनाया गया। इस दौरान कुरील ने कहा कि वह अभी बीएसपी में हैं लेकिन मायावती को अपने नेता के रूप में नहीं देखना चाहते। वह मायावती का साथ छोड़ना चाहते हैं।

खोते जनाधार से कमजोर हुईं मायावती
मायावती ने जब राज्यसभा से इस्तीफा दिया था तो कहा जा रहा था कि पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए वे फिर से पहल करेंगी। लेकिन क्या ये सब इतना आसान है? दरअसल बीएसपी के लिए अपने पुराने जनाधार को वापस पाना आसान नहीं होगा, खासकर तब जब उसका दलित वोट बैंक भी दूसरी पार्टियों की तरफ झुक चुका है। 2017 के यूपी चुनाव में 22.2% वोट के साथ बीएसपी महज़ 19 सीटें ही जीत पाई और उसके राज्यसभा में भी केवल 6 सांसद ही हैं। इतना तक तो ठीक था पर समय के साथ बीएसपी का गैर जाटव आधार वोट बीजेपी की तरफ खिसकता चला गया है जिसे वापस अपने खेमे में लाना कठिन है। 

वर्तमान राजनीति में अप्रासंगिक हैं मायावती !
दरअसल 1980 और 1990 के दशक में दलित उभार का प्रतीक बनकर बहुजन समाज पार्टी दबे-कुचले समाज के दिलो-दिमाग में घुस गई थी। लेकिन अब दौर बदल चुका है। उस दौर में कांशीराम ने दलित राजनीति में जो किया था, क्या आज मायावाती उसे ही भुनाती रहेंगी? जाहिर तौर पर जवाब ना में ही होगा। आज बीएसपी के मुकाबले उससे कहीं ज्यादा युवा और उर्जावान दलित लीडरशिप खड़ी है जो आगे आकर उन युवाओं को आकर्षित कर रही है, जो आज के वैश्विक दौर में पहले से कहीं ज्यादा प्रगतिशील तथा महत्वाकांक्षी है।

आउटडेटेड है बहुजन समाज पार्टी की सोच
दरअसल आज का दलित आर्थिक रूप से मजबूत हुए हैं तो उन्होंने नये विचारों को भी अपनाया है। आज का दलित कहीं न कहीं पीएम मोदी की स्टाइल से भी प्रभावित है। बीते दिनों ऊना कांड हो या फिर सहारनपुर में भीम आर्मी की भूमिका, वह सोशल मीडिया में सक्रिय रूप से उपस्थिति दर्ज कराता है, वो राजनीतिक कैम्पेन का हिस्सा है। जाहिर तौर पर नयी जमात जाति के जकड़न से बंधे नहीं रहना चाहती है। ऐसे में बीएसपी को अब अपनी पुरानी ”कास्ट पॉलिटिक्स” से बाहर आकर नए चुनावी तरीकों को भी अपनाना होगा, जिससे वह इस युवा वर्ग को आकर्षित कर सके। लेकिन क्या यह संभव है?

मोदी की सर्वसमावेशी राजनीति में सब शामिल
पीएम मोदी ने जिस तरह से समाज को जोड़ने की नीति बनाई है वो आज के लोगों को भा रही है। सबका साथ, सबका विकास का नारे के साथ एक भारत श्रेष्ठ भारत की अवधारणा आज के युवाओं को ज्यादा अपील करती है। आज की राजनीति आर्थिक रूप से सशक्त होना चाहती है न कि जातीय वैमनस्यता में फंसकर देश को पीछे धकेलना चाहती है। दरअसल अब वह दौर भी नहीं रहा जहां जातीय भेदभाव होते थे, और इसी आधार पर देश की राजनीति बढ़ती थी। आज पीएम मोदी राष्ट्रनायक हैं और सवा सौ करोड़ देशवासी उनके साथ चलने को तैयार हैं। सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय के सिद्धांत पर आगे बढ़ रही भारत को मोदी स्टाइल की पॉलिटिक्स पसंद है जिसमें मायावती जैसी नेताओं की जरूरत कमतर होती चली गई है।

इस तरह गिरती चली गई मायावती की बीएसपी
बीएसपी जब पहली बार 1996 में सत्ता में आई थी तब वह ठीक से ना तो सत्ता सुख भोग पाई और ना ही विपक्ष में रह पाई थी। बावजूद इसके 2007 में बीएसपी ने पूर्ण बहुमत से सत्ता में आकर पूरे देश को चौंका दिया था, इसके बाद 2012 के चुनावों में उसको 289 सीटें गंवानी पड़ी वहीं 2017 में मोदी लहर के कारण पूरे उत्तर प्रदेश में महज 19 सीटों पर ही सिमटकर रह गई। 2014 के लोकसभा चुनावों की करारी हार के बाद बीएसपी आज भी शायद देश की राजनीति को समझने में असमर्थ रही। 2017 के विधानसभा चुनावों में 100 मुसलमानों को टिकट देकर वह यही साबित करती रहीं कि वे 1990 के दौर से बाहर नहीं निकल पायी हैं।  

अमीरों की पार्टी बनी बीएसपी
बीते कई सालों में बीएसपी नेताओं के स्कैंडल, भ्रष्टाचार, केंद्रीकृत राजनीति, विचारधारा में कमी और बड़े नेताओं के पार्टी छोड़कर जाने से भी पार्टी की साख को नुकसान पंहुचा है। इसके साथ ही गौर करें तो पिछले 10 सालों से बीएसपी का दलित जनाधार घटता जा रहा है, गैर-जाटव जातियां बीजेपी और कांग्रेस से जुड़ चुकी हैं। जाहिर तौर पर पार्टी की छवि कांशीराम के सिद्धांतों से परे अपने मूलजनाधार से नाता तोड़ चुकी है और अमीरों की पार्टी बन चुकी है। इतना ही नहीं मायावती के बारे में यह सर्वविदित हो गया कि वे पैसा लेकर टिकट देती हैं, यह संदेश भी दलितों के बीच में मायावती के जानाधार को कम कर गया।

दूसरी पंक्ति के नेताओं ने मायावती की महत्ता कम की
बीएसपी और मायावती के सामने सबसे बड़ी चुनौती दलित युवा नेताओं का उभरना है, जिनमें जिग्नेश मेवानी और चंद्रशेखर प्रमुख हैं। ऊना दलित संघर्ष समिति के संयोजक जिग्नेश मेवानी गुजरात में हुए ऊना कांड से उभरकर सामने आए। भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर द्वारा सहारनपुर जातीय हिंसा के खिलाफ जंतर-मंतर में प्रदर्शन किया गया था, जिससे उनके प्रति दलित युवाओं में एक नयी उम्मीद की किरण दिखी। इससे बीएसपी के नेताओं के सामने एक नई समस्या खड़ी हो गई है, जो आने वाले समय में एक नई चुनौती साबित हो सकती है।

सर्वशक्तिमान मायावती का पराभव तो तय था…
दरअसल मायावती की राजनीति ऐसी रही है कि वह अभी तक अपना विकल्प तक पेश नहीं कर पाई। दरअसल बदलते दौर में लोग पार्टियों की नीतियों के साथ चेहरे में भी बदलाव पसंद करते हैं लेकिन मायावती सर्वशक्तिमान बनीं रहीं और कोई दूसरा चेहरा नहीं दे पाईं। वहीं बीजेपी की सर्वसमावेशी राजनीति के आगे मायावती पानी मांगती नजर आ रही हैं। बीजेपी और आरआरएस ने जिस तरह से अम्बेडकर की विचारधारा को संघ की विचारधारा के साथ तालमेल बिठाया उसने कहीं न कहीं दलितों के लिए एक विकल्प तैयार किया। राष्ट्रपति चुनाव के लिए बीजेपी द्वारा दलित नेता रामनाथ कोविंद को उम्मीदवार बनाकर यह संदेश देने में सफल रही है कि वह दलितों की हितैषी पार्टी है। 

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