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ममता राज में बंगाल की बदहाली: 6688 कंपनियों के पलायन से टूट रही है राज्य की आर्थिक रीढ़

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पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में राज्य औद्योगिक बदहाली के कगार पर है। कभी देश के औद्योगिक परिदृश्य में अग्रणी रहा पश्चिम बंगाल आज गहरे आर्थिक संकट से जूझ रहा है। ममता राज में 2011 से 2025 के बीच सिर्फ 14 वर्षों में राज्य से 6,688 कंपनियां या तो बंद हो चुकी हैं या अन्य राज्यों में चली गई हैं। इन कंपनियों में 110 ऐसी भी थीं, जो देश के प्रमुख स्टॉक एक्सचेंजों में लिस्टेड थीं। यह केवल एक आंकड़ा नहीं, बल्कि राज्य के औद्योगिक पतन की दयनीय गाथा है। सवाल उठता है कि आज जब पूरा देश प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीतियों के कारण आर्थिक विकास और रोजगार सृजन की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है, तब आखिर पश्चिम बंगाल क्यों लगातार पिछड़ता जा रहा है? आखिर ऐसा क्या हुआ कि जो राज्य कभी उद्योगों का केंद्र था, वह आज मजदूरों और पूंजीपतियों दोनों के लिए असुरक्षित और अव्यवहारिक बन गया है?

औद्योगिक गौरव का अतीत
बंगाल शुरू से ही भारत के औद्योगिक, व्यापारिक और बौद्धिक नेतृत्व का प्रतीक रहा है। कोलकाता, दुर्गापुर, हल्दिया, आसनसोल और जमशेदपुर जैसे औद्योगिक क्षेत्रों में भारी उद्योग, कोयला खदानें, इस्पात संयंत्र, और जूट मिलें फल-फूल रही थीं। 1960 और 70 के दशक में राज्य का भारत के कुल औद्योगिक उत्पादन में बड़ा योगदान हुआ करता था। लेकिन समय के साथ श्रमिक आंदोलनों के राजनीतिकरण, प्रशासनिक जड़ता और गलत नीतियों ने इसकी चमक फीकी कर दी। 21वीं सदी में जब अन्य राज्य निजी निवेश और सार्वजनिक-निजी साझेदारियों (PPP) को प्रोत्साहित कर औद्योगिक विकास के रास्ते पर बढ़े, तब बंगाल पीछे रह गया।

कंपनियों का पलायन और निवेश का संकट
साल 2011 से 2025 के बीच राज्य से पलायन करने वाली 6,688 कंपनियां इस बात का साफ संकेत हैं कि बंगाल का कारोबारी माहौल अब भरोसेमंद नहीं रहा। महाराष्ट्र, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों ने इन कंपनियों को आकर्षित किया। ममता की नीतियों के कारण अकेले महाराष्ट्र में 1,308 कंपनियां शिफ्ट हुईं, जबकि 1,297 कंपनियां दिल्ली और 879 उत्तर प्रदेश चली गईं। ये आंकड़े यह बताने के लिए काफी है कि अन्य राज्य जहां निवेश के लिए बेहतर नीति और प्रशासनिक सहयोग दे रहे हैं, वहीं बंगाल में उद्योग लगातार उपेक्षा, अस्थिरता और अनिश्चितता का शिकार हो रहे हैं।

नीतिगत असमर्थता और भ्रष्टाचार
बंगाल में औद्योगिक पतन के कई कारण हैं, जिनमें सबसे प्रमुख है नीतिगत पंगुता। नई परियोजनाओं को मंजूरी देने की प्रक्रिया लंबी, जटिल और अपारदर्शी है। सिंगूर में टाटा नैनो प्रोजेक्ट के विफल होने के बाद निवेशकों में यह विश्वास जड़ से हिल गया कि बंगाल में भूमि अधिग्रहण और सरकारी समर्थन स्थिर नहीं है। इसके अलावा, प्रशासनिक भ्रष्टाचार और नौकरशाही की सुस्ती ने औद्योगिक विकास की संभावनाओं को गहरी चोट पहुंचाई है। उद्योगपतियों को छोटी-छोटी मंजूरियों के लिए महीनों इंतजार करना पड़ता है और कई बार उन्हें कट की व्यवस्था करनी पड़ती है। राज्य की छवि एक उद्योग विरोधी प्रशासन के रूप में बन गई है, जो निर्णय लेने की क्षमता से ज्यादा राजनीतिक बयानबाजी में उलझा रहता है।

राजनीतिक अस्थिरता और मजदूर आंदोलन की छवि
बंगाल की राजनीति में ट्रेड यूनियनों का वर्चस्व और आंदोलनों की संस्कृति निवेशकों के लिए लंबे समय से चिंता का विषय रही है। कई बार देखा गया है कि स्थानीय स्तर पर नेताओं की मिलीभगत से उद्योगों को रंगदारी और अवैध ठेकेदारी का सामना करना पड़ता है। टीएमसी सरकार पर यह आरोप भी लगते रहे हैं कि वह उद्योगपतियों को सुरक्षा और भरोसे का वातावरण नहीं दे पा रही। इससे राज्य में राजनीतिक स्थिरता की कमी और उद्योगों के लिए अनुकूल वातावरण का अभाव साफ दिखाई देता है।

बुनियादी ढांचे की विफलता और लॉजिस्टिक कमजोरियां
बंगाल का भूगोल ऐसा है कि वह पूर्वोत्तर भारत, नेपाल, भूटान और बांग्लादेश जैसे बाजारों तक पहुंच के लिए एक रणनीतिक द्वार बन सकता था। लेकिन राज्य सरकार इस संभावना का उपयोग नहीं कर पाई। कोलकाता पोर्ट, हल्दिया डॉक, हाइवे और रेलवे नेटवर्क जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर को समय के साथ विकसित नहीं किया गया। औद्योगिक पार्क, स्पेशल इकनॉमिक जोन (SEZ) और लॉजिस्टिक हब जैसी योजनाएं भी अधूरी रहीं या राजनीतिक कारणों से रोकी गईं।

रोजगार का संकट और युवाओं का पलायन
इस औद्योगिक पतन का सबसे बड़ा प्रभाव राज्य की युवा पीढ़ी पर पड़ा है। राज्य में बेरोजगारी दर लगातार बढ़ रही है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के अनुसार, 2024 में यह दर 7.5 प्रतिशत को पार कर गई थी। बंगाल के कॉलेजों और तकनीकी संस्थानों से निकलने वाले युवा छात्रों को अपने ही राज्य में रोजगार नहीं मिल रहा, और वे दिल्ली, पुणे, हैदराबाद, बेंगलुरु जैसे शहरों में पलायन को मजबूर हैं। दूसरी ओर, छोटे शहरों और गांवों से मजदूर वर्ग अब केरल, पंजाब, और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में दिहाड़ी मजदूरी और निर्माण कार्य करने जा रहे हैं। यह पलायन सिर्फ श्रमिकों का नहीं, बल्कि संभावनाओं का भी है।

सिंगूर और हल्दिया से लेकर छोटे उद्योगों तक असर
बंगाल के औद्योगिक पराभव के प्रतीक बन चुके हैं कुछ ऐतिहासिक घटनाक्रम। सिंगूर में टाटा नैनो कारखाने को भारी विरोध और राजनीतिक आंदोलन का सामना करना पड़ा, जिससे टाटा समूह को परियोजना बंद कर गुजरात के साणंद में जाना पड़ा। इस एक घटना ने बंगाल को लंबे समय के लिए एक ‘उद्योग विरोधी राज्य’ की छवि दे दी। हल्दिया पेट्रोकेमिकल्स जैसे बड़े उद्यम में बार-बार प्रबंधन परिवर्तन और सरकारी हस्तक्षेप ने निवेशकों का भरोसा तोड़ा। इसके अलावा, पश्चिम मेदिनीपुर, नादिया, और मुर्शिदाबाद जैसे जिलों के छोटे और मंझोले उद्योग- जैसे माचिस, बुनाई, और चमड़ा एक-एक कर बंद हो गए।

अन्य राज्यों से तुलना में बंगाल की स्थिति
जब गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्य निवेशकों को तेजी से भूमि, बिजली, टैक्स में छूट और श्रम सुधार जैसी सुविधाएं दे रहे हैं, तब बंगाल में इन बातों पर राजनीतिक बहसें ज्यादा और क्रियान्वयन बहुत कम दिखाई देता है। बंगाल में न केवल श्रम सुधार धीमे हैं, बल्कि भूमि अधिग्रहण अब भी राजनीतिक रूप से संवेदनशील बना हुआ है। इसके चलते कोई भी बड़ी कंपनी बंगाल में निवेश करने से पहले कई बार सोचती है।

सरकारी घोषणाएं और जमीनी हकीकत
राज्य सरकार ने ‘बंगाल ग्लोबल बिजनेस समिट’ जैसे आयोजनों के माध्यम से यह दिखाने की कोशिश की है कि वह निवेश के लिए तैयार है। लेकिन 2023 में किए गए 3 लाख करोड़ रपये के निवेश MOU में से 85 प्रतिशत से अधिक परियोजनाएं धरातल पर नहीं उतर सकीं। निवेशकों के लिए एकल खिड़की सिस्टम की सुविधा भी केवल कागजों तक सीमित रही है। शिकायत निवारण और मंजूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता अब भी एक बड़ी समस्या बनी हुई है।

जिस राज्य ने एक समय देश को औद्योगिक दिशा दी, ममता बनर्जी के नेतृत्व में वह आज पिछड़ता जा रहा है। बंगाल को ममता के नारे नहीं, ठोस फैसले चाहिए – ताकि उसके युवाओं को अपना भविष्य तलाशने दूसरे राज्यों की ओर न भागना पड़े। बंगाल को उद्योग चाहिए, रोजगार चाहिए, और सबसे बढ़कर एक भरोसेमंद शासन चाहिए।

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