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राजस्थान में ‘लंगड़ा’ राइट टू हेल्थ बिल आया, डॉक्टरों के दबाव में सरकार के घुटने टेकने से 90 प्रतिशत निजी अस्पताल RTH बिल के दायरे से ही बाहर, गहलोत को देना पड़ेगा जवाब…अब ‘लूट की छूट’ क्यों दी?

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विधानसभा चुनाव के लिए लुभावने वादों के लिए सीएम अशोक गहलोत इतने आतुर हैं कि डॉक्टरों के आगे घुटने टेकने को मजबूर हो गए और जनता के लिए ‘लंगड़ा’ राइट टू हेल्थ बिल ही मंजूर कर लिया।  इससे ऐसा लगता है कि सीएम गहलोत को सिर्फ इसका श्रेय लेना था कि देश में राजस्थान पहला राज्य बने, जिसने राइट टू हेल्थ बिल लागू किया। हकीकत में अब यह बिल जनता की सेहत सुधारने में ज्यादा मददगार साबित होने वाला नहीं है। क्योंकि 16 दिन चली डॉक्टरों और मेडिकल कर्मियों की हड़ताल और लाखों मरीजों के परेशान होने के बाद अब जो नया बिल जनता के सामने आया है, उसके दायरे से 90 प्रतिशत से ज्यादा निजी अस्पताल बाहर ही हो गए हैं। राजधानी समेत प्रदेश के ज्यादातर अच्छे अस्पतालों में मरीज बिल के नए प्रावधानों के तहत लाभ नहीं ले पाएंगे। ऐसे में कांग्रेस को चुनावों में जवाब देना होगा कि जब ऐसा ही दिखावटी बिल लाना था तो इतने दिनों तक ‘सरकारी नौटंकी’ क्यों चलती रही? हड़ताल पर अंकुश न लगा पाने के चलते इस दौरान जिन मरीजों की जान गई, उनकी मौत का जिम्मेवार कौन है?कांग्रेस सरकार घुटनों पर आई, निजी अस्पतालों को दे दी ‘लूट की छूट’
राजस्थान की गहलोत सरकार द्वारा जनहित में राइट टू हेल्थ बिल लाने का डंका काफी समय से पीटा जा रहा था। डॉक्टरों के विरोध के बावजूद भी इसे जनता के दिखावे के लिए विधानसभा में पास को करा लिया, लेकिन इसके बाद डॉक्टरों के दबाव में जनता के हित के छोड़कर बेकफुट में आ गई। डॉक्टरों के एसोसिएशनों ने मेडिकल कर्मियों के साथ दो बार विरोध रैली निकालकर प्रदर्शन किया और दूसरी बार में देर रात को सरकार घुटनों पर आ गई। वो मांगें भी मान ली गईं, जिनके बाद जनता के लिए राइट टू हेल्थ बिल के ज्यादा मायने ही नहीं रह गए। गहलोत ने जोधपुर में खुद कहा था कि निजी अस्पताल मरीजों को लूटने के अड्डे बने हुए हैं और राइट टू हेल्थ बिल में 90 फीसदी से ज्यादा निजी अस्पतालों को राहत देकर ‘लूट की छूट’ दे दी गई।

प्रदेश के 90% से अधिक निजी अस्पताल इसके दायरे से बाहर हो जाएंगे
दरअसल, कांग्रेस और सीएम अशोक गहलोत को राइट-टू-हेल्थ बिल लाने वाला राजस्थान को पहला राज्य बनाने का ही क्रेडिट लेना था। उन्हें यह श्रेय तो मिल ही गया है, चाहे राज्य की जनता तो राहत मिले या न मिले। राइट टू हेल्थ बिल प्रदेश के हर नागरिक को इलाज की गारंटी देने के लिए लाया गया था, पर समझौते की सारी शर्तें लागू होते-होते बिल की आत्मा ही निकल गई। अब हालात यह हैं कि प्रदेश के 90 प्रतिशत से अधिक निजी अस्पताल इसके दायरे से बाहर हो जाएंगे। अब सिर्फ सरकार से अनुदान या रियायत दर पर जमीन लेने वाले अस्पताल ने यदि पहले एमओयू में किसी ऐसे क्लॉज में साइन किए हैं कि भविष्य में सरकार की योजनाओं में शामिल होंगे। नए नियमों के तहत केवल उन्हें ही राइट टू हेल्थ बिल में शामिल होना पड़ेगा।

झुकी सरकार को इन 8 बिंदुओं पर करना पड़ा समझौता
1. 50 बिस्तरों से कम वाले निजी मल्टी स्पेशियलिटी अस्पतालों को आरटीएच से बाहर कर दिया है।
2. सभी निजी अस्पतालों की स्थापना सरकार से बिना किसी सुविधा के हुई है और रियायती दर पर बिल्डिंग को भी आरटीएच अधिनियम से बाहर रखा जाएगा।
3. ये अस्पताल आरटीएच के दायरे में आएंगे-
– निजी मेडिकल कॉलेज अस्पताल
– पीपीपी मोड पर बने अस्पताल
– सरकार से मुफ्त या रियायती दरों पर जमीन लेने के बाद स्थापित अस्पताल (प्रति उनके अनुबंध की शर्तें)
– अस्पताल ट्रस्टों द्वारा चलाए जाते हैं(भूमि और बिल्डिंग के रूप में सरकार द्वारा वित्तपोषित)
4. राजस्थान के विभिन्न स्थानों पर बने अस्पतालों को कोटा मॉडल के आधार पर नियमित करने पर विचार किया जाएगा
5. आंदोलन के दौरान दर्ज किए गए पुलिस केस और अन्य मामले वापस लिए जाएंगे
6. अस्पतालों के लिए लाइसेंस और अन्य स्वीकृतियों के लिए सिंगल विंडो सिस्टम होगा
7. फायर एनओसी हर 5 साल में रीन्यू करवाई जाएगी
8. नियमों में कोई और परिवर्तन हो तो आईएमए के दो प्रतिनिधियों के परामर्श के बाद किया जाएगाइतनी उठक-बैठक के बाद जनता के लिए आया खोखला बिल
राजस्थान की करोड़ों की जनता के हित के बजाए निजी अस्पतालों के हित के समक्ष शरणागत हो जाने के कारण अब इस प्रारूप से आमजन को कोई नया बड़ा फायदा नहीं मिलेगा। चूंकि अब रियायत दर पर जमीन या कोई भी फायदा लेने पर हेल्थ बिल में शामिल होना अनिवार्य है। संभव है कि आने वाले दिनों में निवेशक हेल्थ में निवेश करने से पहले सोचेंगे। डॉक्टर्स और सरकार के बीच जिन 8 बिंदुओं पर समझौता हुआ है, उसके बाद अब प्रदेश के 90 प्रतिशत निजी अस्पताल हेल्थ बिल से बाहर हो जाएंगे। देशभर में शोर-शराबे, इतनी उठा-पटक और कई मरीजों की जान जाने के बाद जो बिल जनता के हाथ में आया है, सही मायने में उसके फायदे अब ज्यादा नहीं होंगे। क्योंकि राइट टू हेल्थ बिल में ये बदलाव किए गए हैं…

बदलाव- अब 50 से कम बेड वाले निजी अस्पताल बिल में नहीं
मायने : प्रदेश में अधिकांश अस्पताल 50 से कम बेड वाले हैं। जो अस्पताल 80 बेड तक हैं भी, वे रजिस्ट्रेशन कम बेड का कराने की कोशिश करेंगे। यानी अलग जीएसटी रजिस्ट्रेशन कराकर 50-50 बेड से कम के अस्पताल दिखा सकते हैं। जयपुर में 50 से कम बेड वाले 380 से अधिक अस्पताल हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो 95 प्रतिशत अस्पताल छोटे ही हैं।

बदलाव- निजी अस्पताल रियायती दर पर या अनुदान लिया है तो… 
मायने: ज्यादातर निजी अस्पताल ऐसे ही हैं जो खुद के स्तर पर चल रहे हैं या सरकार से उन्होंने कभी किसी तरह का अनुदान नहीं लिया है। प्रदेश में करीब जयपुर में 560 निजी अस्पताल और प्रदेश में करीब ढाई हजार प्राइवेट हास्पीटल हैं। जिन अस्पतालों ने रियायती दर पर जमीन तो ली है लेकिन आवंटन की शर्तें पूरी कर रहे हैं, वे बिल से बाहर रहेंगे। उदाहरण- आवंटन की शर्त के अनुसार, किसी अस्पताल ने रियायती दर पर जमीन ली है तो उन्हें 20-25 प्रतिशत मरीजों का निशुल्क इलाज करना होता है। सरकार से सहायता प्राप्त ज्यादातर अस्पताल ऐसा करते ही रहे हैं। यानी वे बिल के दायरे में नहीं आएंगे। केवल निजी मेडिकल कॉलेज और राजधानी में मेट्रो मॉस हॉस्पिटल बिल के दायरे में आएगा।

बदलाव- प्राइवेट मेडिकल कॉलेज व पीपीपी मोड पर चल रहे अस्पताल शामिल
मायने: निजी मेडिकल कॉलेज (जयपुर के निम्स, महात्मा गांधी, जेएनयू व उदयपुर के गीतांजलि, पेसेफिक, अमेरिकन मेडिकल कॉलेज व अन्य) व सरकारी अस्पताल ही राइट टू हेल्थ बिल में शामिल होंगे। इसके अलावा ऐसे ट्रस्ट अस्पताल जो गवर्नमेंट से किसी तरह लाभित हैं, उन पर भी बिल लागू होगा। ट्रस्ट के ऐसे अस्पतालों की संख्या कम है, जिन्हें सरकार से मदद मिली है। प्रदेश की बहुसंख्यक आबादी गांवों-कस्बों में बसती है। ऐसे स्थानों के प्राइवेट अस्पताल राइट टू हेल्थ बिल में नहीं आने के कारण जनता को इस बिल का फायदा नहीं होगा। बल्कि चुनाव में जनता सरकार से सवाल करेगी कि ऐसे बिल को लाने का उन्हें क्या फायदा मिला।

बदलाव- कोटा की तर्ज पर आवासीय में नियमित हो सकेंगे अस्पताल
मायने: निजी अस्पतालों को कोटा शहर की तर्ज पर आवासीय में नियमित किए जाने को सहमति दी है। अभी व्यावसायिक और सांस्थानिक माना गया है। {हड़ताल के दौरान जितने भी रेजिडेंट, सरकारी या निजी चिकित्सकों पर जो भी केस लगे हैं, वे वापस होंगे। विभागीय जांच भी नहीं होगी। {फायर एनओसी पांच साल में ली जाएगी। पहले एक साल का प्रावधान था। {अस्पतालों में विभिन्न लाइसेंस के लिए सिंगल विंडो सिस्टम होगा। पीएचएनएस सेक्रेट्री डॉ. विजय कपूर के मुताबिक जिस नए प्रारूप में समझौता हुआ है, अब वही मान्य होगा। बिल विधानसभा में पारित हो चुका है। इसलिए दोबारा बिल पेश नहीं होगा। राज्यपाल की मंजूरी मिलते ही यह कानून बन जाएगा। हालांकि, अभी इसके नियम और शर्तें बननी बाकी हैं। सरकार से हुए समझौते की शर्तें इसी दौरान शामिल की जाएंगी।

 

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