बिहार विधानसभा चुनाव 2025 जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, वैसे-वैसे सियासी हवा का रुख भी साफ होता जा रहा है। हाल के सर्वे लगातार दिखा रहे हैं कि महागठबंधन पीछे छूटता जा रहा है, जबकि एनडीए की स्थिति लगातार मजबूत हो रही है। दरअसल, विधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद महागठबंधन सीट शेयरिंग में पेंच फंसता नजर आ रहा है। बाहर से सभी नेता एकजुटता का दिखा रहे हैं, लेकिन वास्तविक स्थिति यह है कि अंदरखाते सीट बंटवारे को लेकर जबरदस्त खींचतान मची हुई है। जहां कांग्रेस तेजस्वी को सीएम प्रोजेक्ट करने को बिल्कुल तैयार नहीं हैं, वहीं सीटों के बंटवारे पर भी महागठबंधन में सहमति नहीं बन पा रही है। दूसरी ओर एनडीए में सीटों के बंटवारे पर करीब-करीब सहमति बन चुकी है, बस घोषणा की औपचारिकता बाकी है। इसके अलावा एनडीए को पीएम मोदी, विकास और वर्क परफार्मेंस के चलते वोट पोल में बढ़त मिल रही है। ऐसे में चेहरा, नैरेटिव, संगठन और सहयोगी दलों की सीमाओं के चलते बिहार में तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले गठबंधन का पिछड़ना लाजिमी नजर आ रहा है।
विकास, स्थिरता और नेतृत्व के सामने तेजस्वी-कांग्रेस कमजोर
बिहार में विधानसभा चुनाव के लिए दो चरण की तिथियां घोषित हो चुकी हैं और मतगणना 14 नवंबर को होगी। चुनाव कुछ ही दिनों की दूरी पर होने से सियासी माहौल गरमा चुका है। पीएम मोदी और सीएम नीतीश की जोड़ी, तेजस्वी की नेतृत्व चुनौती, कांग्रेस की कमजोर उपस्थिति और नए राजनीतिक खिलाड़ियों ने विपक्ष के समीकरण बिगाड़ दिए हैं। हाल के सर्वेक्षणों में यह साफ झलक रहा है कि महागठबंधन जनता का भरोसा जीतने में पीछे रह गया है, जबकि एनडीए लगातार बढ़त बनाता दिख रहा है। पीएम मोदी की लोकप्रियता और नीतीश कुमार के अनुभव ने इस गठजोड़ को मजबूती दी है। वहीं विपक्षी खेमे में अभी तक सब कुछ बिखरा-बिखरा सा है। महागठबंधन में सीएम फेस से लेकर सीट शेयरिंग तक घमासान मचा हुआ है। इन पर कोई आम सहमति नहीं बन पा रही है। यही वजह है कि अलग-अलग सर्वे एजेंसियों के अनुमानों में चुनावी हवा महागठबंधन के खिलाफ और एनडीए के पक्ष में बहती दिख रही है। जनसुराज और ओवैसी जैसे फैक्टर ने महागठबंधन की जमीन और कमजोर कर दी है। सबसे बड़ी कमी महागठबंधन के पास कोई ठोस नैरेटिव न होना माना जा रहा है।
आइए, बिहार की चुनावी हवा में एनडीए के मजबूत और महागठबंधन के कमजोर होने की कुछ वजहों पर एक नजर डालते हैं…
1.मोदी-नीतीश के चेहरे के आगे सब हुए धराशायी
बिहार की राजनीति में चेहरों का असर हमेशा निर्णायक रहा है। प्रधानमंत्री मोदी की अपार लोकप्रियता और सीएम नीतीश कुमार की प्रशासनिक पकड़ ने चुनावी समीकरण को बदल दिए हैं। सर्वे बताते हैं कि विकास कार्य और वर्क परफॉर्मेंस के साथ-साथ पीएम मोदी का करिश्मा मिलकर एनडीए को मजबूत बना रहे हैं। इसके आगे महागठबंधन का कोई चेहरा बराबरी नहीं कर पा रहा। तेजस्वी यादव जरूर हाथ-पैर मारने में लगे हुऐ हैं, लेकिन उनके कई सहयोगी दलों में उन्हें लेकर एका नहीं है। यही वजह है कि विभिन्न ओपिनियन पोल में मोदी-नीतीश की जोड़ी जनता को ज्यादा भरोसेमंद लग रही है।
2.तेजस्वी यादव के सीएम फेस बनने पर कन्फ्यूजन
आरजेडी नेता तेजस्वी यादव खुद को कई बार सीएम फेस घोषित कर चुके हैं, लेकिन उनके नेतृत्व को लेकर जनता और सहयोगी दलों दोनों में ही भ्रम की स्थिति है। कई बार उनके बयानबाजी और रणनीति को लेकर सवाल उठे हैं। अलग-अलग सर्वे अनुमानों में युवा नेता होने के बावजूद वे अभी तक स्थायी विश्वास पैदा नहीं कर पाए हैं। ना ही उनके चाहने के बावजूद कांग्रेस ने उन्हें सीएम फेस माना है। यही कारण है कि कभी उन्हें सीएम के विकल्प के रूप में आगे बढ़ते हुए दिखाया जाता है, तो कभी विपक्षी खेमे में भी असहमति झलकती है। यह कन्फ्यूजन महागठबंधन को नुकसान पहुंचा रहा है।
3.महागठबंधन नहीं बना पाया कोई भी नैरेटिव
बिहार में नीतीश कुमार के सरकार कई साल है। लेकिन महागठबंधन के सहयोगी उनके खिलाफ कोई नैरेटिव नहीं बना पाए हैं। क्योंकि पीएम-सीएम की जोड़ी ने बिहार में विकास की गंगा बहा दी है। दरअसल, हर चुनाव एक नई कहानी मांगता है, एक ऐसा मुद्दा जो जनता से जुड़ सके। लेकिन, महागठबंधन अभी तक कोई ठोस नैरेटिव गढ़ने में नाकाम रहा है। ना रोजगार का ठोस एजेंडा, ना शिक्षा-स्वास्थ्य पर स्पष्ट विज़न। केवल नीतीश विरोध से जनता को साधा नहीं जा सकता। जबकि, एनडीए और उसके सहयोगी लगातार “विकास, स्थिरता और नेतृत्व” की लाइन पर अपनी पकड़ मजबूती के साथ बनाए हुए हैं।
4. बिहार में कांग्रेस और राहुल गांधी का सीमित प्रभाव
महागठबंधन की सबसे बड़ी कमजोरी उसके सहयोगी दलों में कांग्रेस है। राहुल गांधी ने तेजस्वी यादव को टूल बनाकर बिहार के कुछ जिलों में यात्रा निकालने की औपचारिकता जरूर पूरी की, लेकिन वे बिहार की जनता-जनार्दन के दिलों पर कोई छाप नहीं छोड़ पाए। ना ही प्रदेश में मृतप्राय पार्टी को जिंदा कर पाए। राज्य में कांग्रेस का संगठन बेहद कमजोर है और उसकी जमीनी पकड़ नगण्य है। महज कुछ सीटों पर लड़कर कांग्रेस गठबंधन का हिस्सा तो बनती है, लेकिन कोई बड़ा वोट ट्रांसफर कराने की स्थिति में नहीं है। इस बार भी कांग्रेस की भूमिका ‘यूपीए के सहारे’ वाली ही दिख रही है जो गठबंधन को और अधिक कमजोर बना रही है।
5. बिहार में नया विकल्प, जनसुराज की चुनौती
राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने अभी तक पर्दे के पीछे से रणनीति बनाकर अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग दलों को जिताने में भूमिका निभाई है। इस बार वे बिहार में अपनी पार्टी बनाकर चुनाव मैदान में हैं। प्रशांत किशोर की ‘जनसुराज’ यात्रा ने बिहार की राजनीति में एक नया विकल्प पैदा किया है। हालांकि, चुनावी नतीजों में इसका बड़ा असर कितना होगा ये कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव महागठबंधन पर साफ दिख रहा है। क्योंकि एनडीए का वोट बैंक पूरी मजबूती से उसके साथ जुड़ा है। ऐसे में प्रशांत किशोर महागठबंधन के वोट बैंक में ही सैंध लगाएंगे। इससे विपक्ष के प्रत्याशियों के वोटों में कमी आ सकती है। सर्वे बता रहे हैं कि खासकर ग्रामीण और शिक्षित मतदाताओं में पीके का कुछ असर है।
6.ओवैसी से महागठबंधन का समीकरण कमजोर
एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी का बिहार में सीमांचल इलाका हमेशा से टारगेट रहा है। यहां मुस्लिम वोटों पर उनकी पकड़ बढ़ रही है, जिसका सीधा असर महागठबंधन के पारंपरिक वोट बैंक पर पड़ने वाला है। विभिन्न ओपिनियन पोल के अनुसार, सीमांचल में आरजेडी को मुस्लिम-यादव समीकरण पर हमेशा भरोसा रहा है, लेकिन ओवैसी की सक्रियता इस समीकरण को कमजोर बना रही है। आरजेडी का माई (मुस्लिम प्लस यादव) फेक्टर में दरार महागठबंधन की हार की एक बड़ी वजह बन सकती है।
7. लालू यादव की चारा चोर इमेज से होगा नुकसान
बिहार के मुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी अपने कार्यकाल में विवादित रहे हैं। जहां अपराधों के चरम पर होने के कारण उनका शासन जंगलराज के रूप में मशहूर हुआ। अपहरणों को तो बकायदा अपहरण-उद्योग का दर्जा मिला। अपहरण के बाद फिरौती में नेताओं का नाम आने से उनकी इमेज और बिगड़ी। रही-सही कसर बेलगाम भ्रष्टाचार ने पूरी कर दी। लालू यादव खुद ही करोड़ों के चारा घोटाले में जेल गए। नौकरी के बदले जमीन घोटाले समेत कई केस अब भी चल रहे हैं। ऐसे में राहुल गांधी के वोट चोर के नारे पर लालू यादव की चारा चोर की छवि बहुत भारी पड़ने वाली है। इससे आरजेडी समेत महागठबंधन के सहयोगियों को मुश्किल का सामना करना पड़ेगा।
8. महागठबंधन की सीट शेयरिंग में फंसा पेंच
बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद महागठबंधन सीट शेयरिंग में पेंच फंसता नजर आ रहा है। बाहर से जहां सभी नेता एकजुटता का प्रदर्शन कर रहे हैं, वहीं अंदर सीट बंटवारे खींचतान मची है। सीटों के बंटवारे पर भी अभी सभी की सहमति नहीं बन पा रही है। वीआईपी प्रमुख सहनी जहां 30 सीट और डिप्टी सीएम पर अड़े हुए हैं, वहीं माले भी 40 सीट की डिमांड कर रही है। इस पर भी महागठबंधन में सहमति नहीं बन पाई है। बल्कि सीटों का बंटवारा फंस गया है। कांग्रेस भी कमजोर होने के बावजूद इस बार ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने का मन बना रही है। कांग्रेस की संभावित हार से महागठबंधन का सियासी गणित भी कमजोर पड़ेगा।
9. तीन डिप्टी सीएम पर मंथन भी रहा बेनतीजा
सीट शेयरिंग के गुणा गणित के बीच कांग्रेस ने तीन डिप्टी का फॉर्मूला प्रपोज किया है। लेकिन लगातार तीन दिन की मीटिंग के बाद भी कोई रिजल्ट नहीं निकल पाया है। बीते एक सप्ताह में तेजस्वी यादव के आवास पर छह बैठक हो चुकी हैं, 5 अक्टूबर से लेकर 7 अक्टूबर तक लगातार तीन दिन बैठक चली। 7 अक्टूबर को तो रात एक बजे तक सीट शेयरिंग, डिप्टी सीएम, सीएम फेस को लेकर मंथन होता रहा। लेकिन कोई फैसला नहीं हो पाया। मीटिंग से निकलने बाद सहनी ने कहा–हम लगभग फाइनल प्वाइंट पर पहुंच गए हैं और मैं डिप्टी सीएम बनूंगा। 8 अक्टूबर को घोषणा कर देंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इसके अलावा लालू के बड़े बेटे तेजप्रताप यादव भी पार्टी से अलग होने के बाद तेजस्वी यादव की राह का कांटा बने हुए हैं।
10. आरजेडी की छह सीटों पर पेंच, माले भी अड़ी
तेजस्वी यादव के आवास पर हुई मैराथन बैठक में सीटों के फार्मूले पर डिटेल्ड चर्चा हुई। इसमें कहा गया कि 2020 के विधानसभा चुनाव के प्रदर्शन को सबसे अधिक महत्व दिया जाए। जिन सीटों पर उम्मीदवार 1000 वोट से कम से हारे थे और दूसरे स्थान पर रहे थे, उसे भी बड़ा आधार बनाया जाए। 2024 के लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन को तो सामने रखा ही जाए। लेकिन कांग्रेस और आरजेडी के बीच आधा दर्जन सीटों पर पेंच फंस गया। कांग्रेस की सबसे बड़ी मांग लेफ्ट की बछवाड़ा सीट को लेकर थी, जो सीपीआई की पारंपरिक सीट मानी जाती है। अगले ही दिन भाकपा-माले की नाराजगी खुलकर सामने आई। माले ने 40 सीटों की मांग दुहराई, जबकि सीपीआई ने 24 और सीपीआईएम ने 11 सीटों की मांग की। आरजेडी की तरफ से माले को 20 के आसपास सीटें देने की बात कही गई। इस पर माले तैयार नहीं हुई। आरजेडी ने स्पष्ट कर दिया कि वह 130-135 से कम पर लड़ना नहीं चाहती।