लेफ्ट पार्टियों की राष्ट्र विरोधी मानसिकता एक बार फिर सामने आई है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) ने केरल के पलक्कड़ जिले में जगह-जगह पर भारत के नक्शे के ऐसे पोस्टर चिपकाए हैं, जिसमें जम्मू-कश्मीर है ही नहीं। दरअसल सीपीएम अपनी सबरीमाला के मुद्दे पर अपनी नीतियों को राज्य के लोगों को बताने के लिए जनमुनेत्ता यात्रा निकाल रही है। इसी यात्रा को लेकर ये पोस्टर तैयार किया गया है, जिसमें भारत के नक्शे से जम्मू-कश्मीर को गायब कर दिया गया है। सीपीएम की इस हरकत को लेकर केरल में जबरदस्त आक्रोश है। स्थानीय भाजपा नेताओं का कहना है कि इसको लेकर सीपीएम के खिलाफ कानूनी कार्रवाई जाएगी।
वाम दलों के नेता हमेशा से ही राष्ट्र विरोध को अपनी शान समझते हैं। ये लोग हर मुद्दे पर भारत को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं-
देशद्रोहियों की तरह बात क्यों करते हैं वामपंथी?
वामपंथी जब भी मुंह खोलते हैं देशविरोधी भाषा ही बोलते हैं। वामपंथियों के देशविरोधी कृत्यों का एक पूरा काला इतिहास है। यह किसी से छिपा नहीं है। ताजा मामला सीपीएम के पूर्व महासचिव प्रकाश करात के बयान का है। भारत-चीन के बीच सिक्किम-भूटान सीमा पर डोकलाम क्षेत्र की तनातनी पर प्रकाश करात ने चीन का पक्ष लिया और भारत सरकार को सलाह दे डाली कि ये मामला भूटान और चीन का है। करात यह बयान भारत के विरुद्ध है और ये देशद्रोह की श्रेणी में रखा जा सकता है।
क्या है डोकलाम विवाद?
भूटान का पठारी क्षेत्र है डोकलाम सिक्किम की सीमा से सटा है। इससे चीन की भी सीमा लगती है। भूटान और भारत के बीच एक समझौता है जिसके तहत भारत, भूटान के इस क्षेत्र की निगरानी करता है और सुरक्षा मुहैया कराता है। चीन की सेना ने जबरन वहां घुसकर विवाद पैदा किया जिसका भारतीय सेना ने डटकर विरोध किया। उसके बाद वहां पर दोनों देशों के बीच स्थिति तनावपूर्ण है। भारत ने पहली बार चीन के सामने झुकने के बजाय और अधिक सेना की तैनाती कर दी है।
मोदी के आक्रामक रूख से चीन को लगा धक्का
चीन की नीति विस्तारवादी है। वह किसी क्षेत्र को विवादित बताता है। फिर उस क्षेत्र में सेना को जबरन तैनात करता है। लेकिन मोदी सरकार में ऐसा पहली बार हुआ कि चीनी सेना को भारतीय सेना ने खदेड़ दिया। भारतीय सेना चीन के सामने आक्रामक तेवर के साथ डटी है। पहली बार मोदी सरकार की नीतियों की वजह से चीन को झटका लगा है।
चीन को लगे धक्के से वामपंथी परेशान
मोदी सरकार के कारण पहली बार चीन के होश उड़े हुए हैं। दुनिया भर में उसकी किरकिरी हो रही है। इससे चीन परस्त वामपंथियों के पेट में दर्द होने लगा है। दस साल तक सीपीएम के महासचिव रहे प्रकाश करात का मोदी सरकार को चीन से नए सिरे से बातचीत की सलाह इसी ओर ही इशारा करता है।
भारत-चीन युद्ध 1962 में चीन के साथ थे वामपंथी
वामपंथियों से प्रभावित होकर नेहरू हिन्दी-चीनी भाई-भाई कर रहे थे। पंचशील का समझौता किया था और जब 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर दिया, तब वामपंथियों को असली चेहरा देश के सामने आ गया था। कोलकाता में हुए एक अधिवेशन में तब ज्योति बसु ने कहा था कि चीन कभी भी हमलावर नहीं हो सकता है। 1962 में वामपंथियों का कहना था कि भारत-चीन के बीच युद्ध नहीं बल्कि पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच एक संघर्ष है। वामपंथी गैंग ने युद्ध का दोष भारत पर मढ़ दिया था।
पत्थरबाजों के समर्थक हैं करात
सेना प्रमुख ने पत्थरबाज डार को जीप से बांधने के मसले पर मेजर लीतुल गोगोई की तारीफ की थी। इसके बाद सीपीएम के पूर्व महासचिव प्रकाश करात ने पार्टी के मुखपत्र ‘पीपुल्स डेमोक्रेसी’ में लेख लिखकर सेना प्रमुख पर तीखा हमला बोला। उन्होंने कहा कि आर्मी चीफ का बयान मोदी सरकार के विचार को सामने ला रहा है जो कश्मीर में लोगों के राजनीतिक विरोध को सैन्य ताकत के इस्तेमाल से दबाना चाहती है।
डायर से तुलना कर किया लाखों शहीदों का अपमान
वामपंथी इतिहासकार पार्था चटर्जी ने कश्मीर में पत्थरबाज को जीप से बांधने वाले मेजर लीतुल गोगोई के बचाव में उतरे आर्मी चीफ जनरल बिपिन रावत की तुलना जनरल डायर से की। जालियांवाला नरसंहार के दोषी जनरल डायर से तुलना करके पार्था चटर्जी ने 13 अप्रैल, 1919 को शहीद हुए हजारों वीरों का अपमान किया। चटर्जी ने न्यूज पोर्टल वायर में ‘जनरल डायर मोमेंट’ में लेख लिखा था। चटर्जी ने लिखा कि 1919 में ब्रिटिश आर्मी ने जो पंजाब में किया वही आज कश्मीर में इंडियन आर्मी कर रही है।
मोदी के इजरायल दौरे का करात ने किया विरोध
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के पूर्व महासचिव प्रकाश करात ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इजरायल दौरे पर अफसोस जताया है। करात ने प्रधानमंत्री के इजरायल दौरे की निंदा करते हुए कहा कि यह कदम फिलिस्तीन के साथ सहयोग करने की भारत की नीति के एकदम विपरीत है और फिलिस्तीन मामले में भारत की नीति में बदलाव को दर्शाता है। भारत में विदेश नीति को लेकर कभी राजनीति नहीं होती थी लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से विदेश नीति को भी राजनीति में घसीटा जा रहा है।
कम्युनिस्ट पार्टियों का सिर्फ और सिर्फ एक ही एजेंडा है भारत का नीचा दिखाना और अपनी विचारधार के चश्मे से चीजों को देखना। यही वजह है कि धीरे-धीरे लेफ्ट पार्टियों की प्रासंगिकता भी खत्म होती जा रही है। डालते हैं एक नजर-
राष्ट्र और विकास विरोधी एजेंडे के चलते खत्म होने की कगार पर लेफ्ट
आपको बता दे हैं कि अपनि राष्ट्र विरोधी मानसिकता के कारण ही भारत में लेफ्ट पार्टियां अब इतिहास बनने की ओर है। त्रिपुरा में करारी हार के बाद अब सिर्फ केरल ही में वामदलों की सरकार बची है। आखिर क्या वजह है कि कभी देश के कई राज्यों में सरकार चलाने वाले और केंद्रीय स्तर पर राजनीति में दखल रखने वाले वामदलों की धीरे-धीरे विदाई हो रही है। इसका सीधा सा कारण है कि लेफ्ट पार्टियों की राष्ट्र विरोधी और विकास विरोधी राजनीति की अब देश में कोई जगह नहीं हैं और इसीलिए उन्हें देश की जनता ने नकार दिया है।
प्रासंगिकता खोते वाम दल
लेफ्ट पार्टियां कभी देश की राजनीति के केंद्र में हुआ करती थीं, लेकिन आज इनकी प्रासंगिकता खत्म होती जा रही है। त्रिपुरा में करारी शिकस्त के बाद वामदलों के नेताओं को मुंह छिपाने तक की जगह नहीं मिली। त्रिपुरा को लेफ्ट का सबसे बड़ा गढ़ माना जाता था और वहां 25 वर्षों से वामदलों की सरकार थी। आखिर क्या वजह है कि पहले पश्चिम बंगाल, फिर त्रिपुरा से लेफ्ट की विदाई हो गई है। पिछले 14 सालों के संसदीय चुनावों पर गौर करें तो लेफ्ट का न सिर्फ वोट शेयर लगातार गिरता जा रहा है बल्कि उसकी सीटों में भी जबरदस्त गिरावट आई है।
लेफ्ट का घटता जनाधार
लोकसभा चुनाव में मिले वोटों पर नजर डालें तो लेफ्ट का जनाधार वर्ष 2004 से 2014 तक आते आते खत्म होने के कगार पर पहुंच चुका है। जहां 2004 में लेफ्ट पार्टियों का वोट शेयर 7 प्रतिशत हुआ करता था, वो 2014 तक दस सालों में केवल 2.5 प्रतिशत पर आकर सिमट गया। इस औसत के अनुसार 2019 के लोकसभा चुनाव में लेफ्ट का वोटर शेयर 1 प्रतिशत से भी कम होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। त्रिपुरा में बीजेपी की जीत के बाद अब सिर्फ केरल में ही लेफ्ट पार्टी की सरकार बची है।
वर्ष | 2004 | 2009 | 2014 |
CPI | 10 | 04 | 01 |
CPM | 43 | 16 | 09 |
वोट शेयर (प्रतिशत में) | 7 | 4 | 2.5 |
विकास विरोधी मानसिकता !
वामदलों की हार का कारण क्या है? इनकी हार का सबसे बड़ा कारण है, इनकी राष्ट्र और विकास विरोधी मानसिकता। वामदलों की सबसे बड़ी दिक्कत है कि यह लोग समय के साथ खुद को बदलना नहीं चाहते हैं। वामदलों के नेता खुद भी कूप मंडूप बने रहना चाहते हैं और अपने समर्थकों को भी उसी दुनिया में रखना चाहते हैं। पिछले दो-तीन दशकों में दुनिया बहुत बदल गई है, जिस चीन का ये पार्टियां अनुसरण करती हैं, उसने भी अपनी नीतियों को लेकर उदारवादी रवैया अपनाया है और आर्थिक व विकास की नीतियों में दुनिया के साथ कदम मिला कर चल रहा है। भारत में वामदल यह सब करने में असफल रहे। यही वजह है कि पहले वामदलों का पश्चिम बंगाल से सफाया हुआ और अब त्रिपुरा में भी इनका बोरिया-बिस्तर बंध गया है।
जेएनयू और लेफ्ट की छात्र इकाई हार की बड़ी वजह
किसी भी पार्टी को जमीनी स्तर पर मजबूत करने में उसकी छात्र इकाई की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। त्रिपुरा और केरल के बाद अगर कहीं लेफ्ट पार्टियों का गढ़ है, तो वो है दिल्ली का जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय। जेएनयू में लेफ्ट विचारधारा को सबसे अधिक खुराक मिलती है। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से जेएनयू में लेफ्ट की छात्र इकाई के नेताओं ने राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को अंजाम दिया, भारत विरोधी नारे लगाए, और पाकिस्तान में बैठे देश के दुश्मनों का समर्थन किया, उसने पूरे देश के अलावा त्रिपुरा में बैठे भारतीयों के स्वाभिमान को चोट पहुंचाई। जेएनयू में लगाए गए भारत तेरे टुकड़े….जैसे नारों की गूंज अभी तक लोग भूले नहीं हैं। वामदलों के बड़े नेता इसे समझ नहीं पाए और मीडिया में इन बातों को लेकर मिले कवरेज को अपनी जीत समझने लगे। चुनाव के समय जब जनता की जवाब देने की बारी आई तो त्रिपुरा से वामदलों का सफाया हो गया। वामदलों की छात्र इकाई अपनी पार्टी का प्रचार करने बजाए त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और केरल में हिंसात्मक गतिविधियों में लिप्त रही है।
नक्सलियों का समर्थन
लेफ्ट पार्टियां देश के लिए नासूर बनते जा रहे नक्सवाद की सबसे बड़ी हिमायती हैं। इतना ही नहीं माओवाद इन्हीं की एक शाखा है। देश के कई राज्यों में नक्सली गतिविधियां बढ़ती जा रही हैं। जहां-जहां नक्सलियों का आतंक है, वहां न तो विकास हो पा रहा है और न ही नागरिकों को मूलभूत अधिकार मिल पा रहे हैं। इसे लेकर भी देश में भारी असंतोष है। अब अपने कुतर्कों के माध्यम से वामपंथी, नक्सली गतिविधियों को जायज नहीं ठहरा सकते हैं, क्योंकि देश की जनता इसे भलीभांति समझ चुकी है। यह भी एक वजह है कि वामदलों को अब पहले जैसा समर्थन नहीं मिल पा रहा है।
इन सबसे अलावा एक सच्चाई यह भी है कि मोदी सरकार के शासन में सबका साथ-सबका विकास के नारे के साथ देशभर में बगैर किसी भेदभाव के जो काम हो रहा है उसे भी जनता समझ रही है। वामदलों के शासन वाले राज्यों, खासकर त्रिपुरा की बात करें तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने वहां विकास की तमाम योजनाएं चलाई हैं। त्रिपुरा समेत पूरे पूर्वोत्तर को रेल, सड़क और हवाई मार्ग से जोड़ा है, साथ ही वहां के निवासियों को यह विश्वास दिलाया है कि दिल्ली मैं बैठी सरकार उन्हीं की और उनके लिए ही काम कर रही है। इस संदेश ने त्रिपुरा के लोगों को साहस दिया और आखिर में उन लोगों ने 25 साल से सरकार में बैठे वामदलों को उखाड़ फेंका।