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कांग्रेस की वंशवाद की परंपरा ने न्यायपालिका को भी ‘स्वार्थों का घोंसला’ बनाया

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सत्ता की शक्ति पर अंकुश तभी लगता है, जब सत्ता पर बैठा व्यक्ति अपने सभी रिश्तों से ऊपर उठकर अपने राजधर्म को महत्व देता है। वंश परंपरा में सत्ता के केन्द्र पर अंकुश लगाना असंभव है। यह दुर्भाग्य है कि प्रजातंत्र में कांग्रेस जैसी एक वंश परपंरा ने दशकों तक इस देश पर शासन किया और शासन व्यवस्था के सबसे महत्वपूर्ण अंग न्यायपालिका में भी वंश परंपरा को बनाए रखने के लिए राजनैतिक और नैतिक बल दिया। 

सर्वोच्च न्यायालय के हालात
देश की न्यायपालिका में एक तिहाई से अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय उनके पिता, चाचा या अन्य कोई रिश्तेदार न्यायापालिका के उच्च पदों पर रहा या राजनीति में रहा। ऐसा कहने का मतलब यह है कि न्यायपालिका में भी अधिकांश उन्हीं लोगों को प्रवेश मिलता है जिनके परिवार का कोई न कोई व्यक्ति न्यायपलिका या राजनीति में रहा हो। आइए सबसे पहले देश की सर्वोच्च न्यायालय के कुल उन 12 न्यायाधीशों के उन रिश्तेदारों की लिस्ट बताते हैं जो इनकी नियुक्ति के समय न्यायपालिका या राजनीति के शिखर पर थे- 

न्यायाधीश का नाम रिश्तेदार का नाम
न्यायमूर्ति रंजन गोगोई असम के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता केशब चंद्र गोगोई के पुत्र
न्यायमूर्ति मदन लोकुर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश बी एन लोकुर के पुत्र
न्यायमूर्ति अर्जन कुमार सीकरी भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश सर्व मित्र सीकरी के पुत्र
न्यायमूर्ति शरद अरविंद बोडे महाराष्ट्र के पूर्व एडवोकेट जनरल अरविंद बोडे के पुत्र
न्यायमूर्ति अरुण कुमार मिश्रा मध्यप्रदेश के पूर्व न्यायाधीश हरगोविंद मिश्रा के पुत्र
न्यायमूर्ति रोहिंटन फाली नरीमन सर्वोच्च न्यायालय के जाने माने वकील फाली नरीमन के पुत्र
न्यायमूर्ति उदय ललित दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश यू ललित के पुत्र
न्यायमूर्ति धनंनजय चंद्रचूर्ण भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश वाई वी चंद्रचूड़ के पुत्र
न्यायमूर्ति संजय किशन कौल जम्मू कश्मीर के पूर्व मंत्री राजा सूरज किशन कौल के पोते
न्यायमूर्ति इंदू मल्होत्रा सर्वोच्च न्यायालय के वकील ओ पी मल्होत्रा के पुत्री
न्यायमूर्ति के एम जोसेफ सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश के के मैथ्यू के पुत्र

 

सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए देशभर के विभिन्न उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों या सर्वोच्च न्यायालय के उच्च श्रेणी के अधिवक्ताओं के समूह से सर्वोच्च न्यायालय की कॉलेजियम चयन करती है। सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका और विधायिका का कितना हस्तक्षेप होना चाहिए इसको लेकर अभी तक कोई समाधान नहीं आया है, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय न्यायाधीशों को नियुक्त करने के अपने अधिकार को नहीं छोड़ना चाहता है। 

उच्च न्यायालयों के हालात
अब बताते हैं कि उच्च न्यायालयों में न्यायधीशों की नियुक्ति के लिए विभिन्न उच्च न्यायालयों के कॉलेजियम किस तरह से नियुक्ति करते हैं। अभी हाल ही मे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने जिन वकीलों के नाम भेजे उनमें से आधे से अधिक व्यक्तियों के रिश्तेदार राजनीति या न्यायपालिका के ऊंचे पदों पर हैं या थे। यही हाल देश के अन्य उच्च न्यायालयों का भी है।

अपनों को ही आगे बढ़ने का मौका
सर्वोच्च न्यायालय से लेकर उच्च न्यायालयों तक रिश्तेदारों के नामों को न्यायाधीश पद पर नियुक्त करने के लिए चयन तो किया जाता ही है बल्कि न्यायाधीश अपने रिश्तेदार वकीलों को अपनी ही कोर्ट में मुकद्दमा करने का मौका देते हैं। आपको साल 2014 की पंजाब हरियाणा की वह लिस्ट दिखाते हैं जब कांग्रेस का राज देश में होता था।

कांग्रेस की न्यायपालिका में घुसपैठ
कांग्रेस के नेता कपिल सिब्बल स्वयं ही वरिष्ठ और जाने-माने वकील हैं और उनके छोटे बेटे अमित सिब्बल को दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायधीशों ने वोटिंग के जरिए सीनियर एडवोकेट घोषित किया। जबकि सीनियर एडवोकेट के चयन की इस प्रक्रिया को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में मामला लंबित है। इससे पूर्व 2011 में भी कपिल सिब्बल के बड़े बेटे को सीनियर एडवोकेट का दर्जा पहले ही हासिल हो चुका है। इस तरह सिब्बल परिवार में तीनों ही सीनियर एडवोकेट का दर्जा हासिल कर चुके हैं।

यही सीनियर एडवोकेट जब दस सालों का अनुभव ले लेते हैं तो उनका चयन उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के लिए कॉलेजियम कर लेती है। उच्च न्यायालय में न्यायाधीश पर कुछ सालों का अनुभव मिलते ही इन रिश्तेदारों को सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश बना दिया जाता है। इसी पूूरी प्रक्रिया में विधायिका या कार्यपालिका कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। यह पूरी प्रक्रिया ही निरकुंश राजतंत्र के समान है।

न्यायपालिका में कांग्रेस की घुसपैठ का फायदा
कांग्रेस ने पिछले साठ सालों में देश की न्यायपालिका पर ऐसे ही अपना दबदबा बनाए रखना का तरीका खोजा है। कांग्रेस की वंशवाद की इस विषबेल का फायदा कांग्रेस को अपनी राजनीति के अनूकूल निर्णयों को आसानी से पा लेने में होता है। इसका ताजा उदाहरण है रामजन्म भूमि मंदिर मस्जिद विवाद। यह विवाद दशकों के बाद जब सर्वोच्च न्यायालय के सामने पहुंचा तो सर्वोच्च न्यायालय इस पर समयबद्ध सुनवाई करके विवाद को सुलझाने के बजाए, राजनीतिक फायदा देने के लिए इस सुनवाई को जनवरी, 2019 तक के लिए टाल दिया। इसका सबसे जबरदस्त उदाहरण आपातकाल के दौरान दिखाई दिया, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बनाए गए ए एन रे ने इंदिरा गांधी के लिए देश के नागरिकों के मूल अधिकारों पर ही पाबंदी लगा दी।

देश में कांग्रेस की वंशवादी संस्कृति से राजनीति ही नहीं पूरा सामाजिक ताना-बाना ही प्रदूषित हो चुका है। वंशवाद की यह संस्कृति ही ‘सबका साथ सबका विकास’ की सबसे बड़ी बाधा है।

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